त्रिनिदाद और टोबैगो के गिरमिटिया कौन है, जिनका भारत से संबंध है!

125

भारतीयों की पहचान उनकी मेहनतसफलता और हर मुसीबत से लड़ने की कर्मठता के लिए जानी जाती है। ये अपनी संस्कृति के साथ हर नई जगह में घुलमिल जाते हैं। यही वजह है कि भारतीय सदियों से दुनिया भर में प्रवास करते रहे हैं। भारतीयों की कार्यकुशलताशिक्षा और उद्यमशीलता का लोहा आज दुनिया मान रही है।

एक समय ऐसा भी था जब भारतीयों को जबरन दूसरे देशों में मजदूरी के लिए ले जाया जाता था। धीरेधीरे गुलाम जैसी जिंदगी से आगे बढ़े और जहाँ बसे वहाँ की पहचान बन गए। पराधीनतादर्द और पीड़ा से मुक्त होकर अपना नाम कमाया। वेनेजुएला के पास एक छोटा सा द्वीप है जिसे त्रिनिदाद और टोबैगो के नाम से जाना जाता है। इसका इतिहास भारत से जुड़ा हुआ है क्योंकि भारतीय यहाँ भी ले जाकर बसाए गए थे।

देशों के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब त्रिनिदाद और टोबैगो पहुँचे तो उसका जमकर स्वागत किया गया। कोवा में नेशनल साइक्लिंग वेलोड्रोम में एक कार्यक्रम में पीएम मोदी ने कहा, “मैं जानता हूँ कि त्रिनिदाद और टोबैगो में भारतीय समुदाय की मौजूदगी उनके साहस और कार्यकुशलता के बारे में बताती है,” भगवान राम के जयकारे सुनकर पीएम मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने कहा, “मैं भी इसी तरह की भक्ति भावना के साथ कुछ लेकर आया हूँअयोध्या में स्थित राम मंदिर की प्रतिकृति और सरयू नदी का कुछ जल”

पीएम ने कहा, “हम अपने प्रवासी समुदाय की ताकत और समर्थन को बहुत महत्व देते हैं। दुनिया भर में फैले 35 मिलियन से अधिक लोगों के साथभारतीय प्रवासी हमारा गौरव हैं। जैसा कि मैंने अक्सर कहा हैआप में से प्रत्येक एक राष्ट्रदूत हैभारत के मूल्योंसंस्कृति और विरासत का एक राजदूत है। आपके पूर्वजों ने जिन परिस्थितियों का सामना कियावो मजबूत इरादे वाले लोगों को भी तोड़ सकती थी लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और समस्याओं का डटकर सामना किया। पूर्वजों ने गंगा और यमुना को पीछे छोड़ दिया लेकिन अपने दिलों में रामायण को बसाए रखा। उन्होंने अपनी मिट्टी छोड़ीलेकिन अपनी आत्मा नहीं।” प्रधानमंत्री मोदी ने प्रवासियों को “एक शाश्वत सभ्यता के संदेशवाहक” के रूप में भी याद किया। प्रवासियों के योगदान से देश को सांस्कृतिकआर्थिक और आध्यात्मिक फायदा हुआ। इस खूबसूरत देश पर आप का प्रभाव दिख रहा है।”

19वीं शताब्दी में भारत के लोगों को मजदूरी करने के लिए अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में भेजा। कम मजदूरी और दयनीय हालत के बावजूद भारतीय मजदूर बड़ी संख्या में अनुबंध समाप्त होने के बाद वहीं रह गए। इसकी शुरुआत 1834 में मॉरीशस से हुई। 87 साल की औपनिवेशिक अनुबंध के तहत 1.5 मिलियन से ज्यादा भारतीय दूसरे देशों में बंधुआ मजदूरों के रूप में लाए गए। अनुबंध समाप्त होने के बाद इनमें से कई अप्रवासियों ने विदेशी धरती पर ही रहने का फैसला किया। इन लोगों ने समृद्ध बस्तियाँ बनाईं और अपनी परंपराओं को आगे बढ़ाया।

त्रिनिदाद और टोबैको की पहली महिला और वर्तमान प्रधानमंत्री कमला सुशीला प्रसाद– बिसेसर एक हिंदू हैं। उनकी विरासत दक्षिण भारत और उत्तर भारत दोनों से मिलती है। उनके पूर्वज भारतीय अनुबंध प्रणाली के तहत त्रिनिदाद और टोबैको आए और यहीं बस गए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “भारत में लोग प्रधानमंत्री कमला को बिहार की बेटी मानते हैं। उनकी तरह यहाँ भी ऐसे कई लोग हैं जिनकी जड़ें बिहार में हैं। बिहार की विरासत हम सभी के लिए गर्व की बात है।” दुनिया के महान प्रवासी भारतीयों की शानदार उपलब्धियों की चर्चा करते हुए उन्होंने कई प्रतिष्ठित हस्तियों का नाम भी लिया।

कौन हैं गिरमिटिया? 1833 में ब्रिटिश साम्राज्य, 1848 में फ्रांसीसी उपनिवेशों और 1863 में डच साम्राज्य में दास प्रथा का अंत हो गया। ब्रिटेन में भारतीयों की गिरमिटिया दासता 1920 के दशक तक जारी रही। इससे इंडोसाउथ अफ़्रीकीइंडोकैरिबियनइंडोमॉरीशस और इंडोफिजियन समुदायों का विकास हुआ।

जानकारी के अनुसार दास प्रथा खत्म होने के बाद काम करवाने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य को मजदूरों की जरूरत पड़ी। तब भारत से साल के अनुबंध पर इन मजदूरों को 1834 के दशक में अमेरिकाअफ्रीका और यूरोप भेजा गया। साल बीत जाने के बाद आने के पैसे नहीं थे इसलिए ज्यादातर लोग यहाँ बस गए और इन्हें गिरमिटिया कहा गया।

भारत से बाहर भेजे गए मजदूरों के लिए गिरमिटिया शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अंग्रेजों ने ही किया। जब मजदूरों को अनुबंध के तहत भेजा जाता था तो उसे गिरमिटिया कहा जाता था। गिरमिटिया की पूरी कहानी ब्रिटिश उपनिवेशवाद से जुड़ी हुई है। दरअसल ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित करने और उसे मजबूत बनाने के लिए सस्ते और मेहनतकश लोगों की जरूरत थी। उस वक्त ब्रिटिश शासन ने भारतीय किसानों पर भारी टैक्स लगा दिया था और कर्ज के चंगुल में किसान लगातार फँसते जा रहे थे। ऐसे में गिरमिटिया बनकर बड़ी संख्या में लोगों ने पलायन किया।

बताया जाता है 1498 में क्रिस्टोफर कोलंबस के त्रिनिदाद और टोबैगो के समुद्र तट पर कदम रखा। इससे पहले इस द्वीप को कोई नहीं जानता था। बाद में जब इस द्वीप का दुनिया से सामना हुआ तो यहाँ के लोगों को दास के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया गया। 1802 में इस क्षेत्र को ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया गया और ये द्वीप ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया। अंग्रेजी निवेशक त्रिनिदाद के चीनी क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहते थे। अंग्रेजी कंपनियों को इससे जबरदस्त फायदा हो रहा था। द्वीप के चीनी और कोको बागानों में काम करने के लिए अफ्रीकी देशों से मजदूरों को दास के रूप में लाया गया था। 1838 में ब्रिटिश संसद ने दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया। इसका असर त्रिनिदाद पर पड़ा। यहाँ की कृषि अर्थव्यवस्था तब ढहने के कगार पर पहुँच गई थी। यहाँ अफ्रीकी लोगों ने खेतोंबागानों में काम करने से इनकार कर दिया।

तब इन्होंने चीनी और चॉकलेट उद्योगों को बंद होने से बचाने के लिए नए मजदूरों को लाना शुरू किया। इस वक्त चीनीपुर्तगालीअफ्रीकीअमेरिकी और सबसे ज्यादा भारतीय मजदूरों को यहाँ लाया गया। भारतीय सबसे मेहनती और तैयार मजदूर माने जाते थे और कथित तौर पर इन्हें ‘मूल्यवान स्थिर मजदूर’ कहा जाता था। इसलिए भारतीय मजदूरों की माँग यहाँ ज्यादा थी और किसी भी अन्य राष्ट्र से अधिक संख्या में इन्हें काम पर रखा गया था। 1891 तक इन द्वीपों में 45,800 से अधिक भारतीय रह रहे थे। 1917 में ब्रिटिश सरकार ने गिरमिटिया व्यवस्था को खत्म कर दिया। सच मेंदास व्यापार का उन्मूलन केवल एक दिखावा थाक्योंकि उपनिवेशों में गिरमिटिया व्यवस्था उससे कम अमानवीय नहीं था। भारतीयों को केवल ब्रिटिश हितों के लिए हिंद महासागर और अटलांटिक महासागर को पार करके हजारों किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए मजबूर किया गया।

कुछ समय बाद यहां की परिस्थितियाँ बदली। यहां एक कानून बनाया गया जिसके तहत मज़दूरों को जमीन दी गई। कई भारतीय मजदूरों ने इसे मान लिया और वहीं के होकर रह गए। 1960 के दशक तक बड़ी संख्या में त्रिनिदाद में बसे भारतीय ईसाई मिशनरियों के चंगुल में फँस गए और वहाँ बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ। इनमें से ज्यादातर निरक्षर और गरीब थे। 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय यहाँ के व्यापार और राजनीति में सक्रिय हुए। उन्होंने एकजुट होकर राजनीतिक संगठन बनाए। धीरेधीरे यहाँ की राजनीति पर इनकी पकड़ मजबूत होती चली गई।

30 मई को मनाया जाने वाला भारतीय प्रवासी दिवस उन पहले भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को याद करता हैजो मई 1845 में फेटेल रजाक जहाज पर सवार होकर त्रिनिदाद पहुंचे थे हालाँकि वे अपनी मर्जी से नहीं गए थे बल्कि बिना किसी विकल्प के इस यात्रा पर निकलने के लिए मजबूर थे। धीरे– धीरे इन लोगों ने विदेशी भूमि को अपने घर के रूप में अपनाया और इसे भारत के रंगों और परंपराओं से समृद्ध किया।

जैसा कि पीएम मोदी ने कहा कि गिरमिटिया के बच्चों ने वास्तव में इतिहास रच दिया है। उन्होंने दिखाया कि उनकी ताकतमेहनत और जीवन जीने का दृढ़ संकल्प ब्रिटिश उत्पीड़न और अत्याचारों के कहीं ऊपर था। स्थिति अब बदल गई है। कई देशों की तरह त्रिनिदाद और टोबैगो में ये लोग प्रमुख पदों पर पहुँच गए हैं और देश की उपलब्धियों में अपना अहम योगदान दे रहे हैं।