शक्ति-उपासना की सर्वव्यापकता

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भारत वर्ष की आधुनिक ऐतिहासिक गवेषणा द्वारा यह सिद्ध हो गया है कि शक्ति-उपासना का अस्तित्व अति प्राचीन काल में भी था। मोहन-जो-दारों में जो खुदाई हुई है उसमें मकानों के सात तह निकले हैं, जिससे पता चलता है कि वहां एक-एक करके सात नगर बसे और ध्वंस हो गये। उसके सबसे नीचे के खुदे हुए नगर के बसने का समय अनुमान: ईसा से पूर्व 4000 वर्ष माना गया है। उस खुदाई में जो मूर्तियां निकली हैं उनमें स्वस्तिक, नन्दीपद, लिंग, योनि और शक्ति की मूर्तियां हैं, जिससे सिद्ध होता है कि उस समय भी  शक्ति-उपासना प्रचलित थी।
 
‘एकोऽहं बहु स्याम्’ (मैं एक हूं, बहुत हो जाऊं) यह जो सृष्टि का कारण रूप ब्रह्मा का आदिसंकल्प है इसी संकल्प अर्थात् इच्छा को आद्याशक्ति अथवा महाविद्या कहते हैं। इसी कारण वह यथार्थ में जगज्जननी जगदम्बा है। त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस आद्यापराशक्ति से उद्भुत हुए हैं। ऋग्वेद में शक्ति का वर्णन स्पष्ट रूप से मिलता है। वेद में जो उल्लेख है कि एक ‘अजा’से अनेक प्रजा की उत्पत्ति हुई, वह ‘अजा’ यही आद्याशक्ति है। विश्व की अखिल सत्ता  (अस्तित्व), चेतना, ज्ञान, शक्ति के ही कार्य हैं। केनोपनिषद् में स्वर्ण-वर्णा उमा के प्रकट होने पर देवताओं को ज्ञात हो गया कि उसी शक्ति के प्रभाव से उन्होंने असुरों पर विजय पायी है, तथा उनकी समस्त शक्तियां उसी शक्ति से प्राप्त हुई है।
 
 वेदों की माता तथा मुख्य अधिष्ठात्री परमोपास्या शक्ति गायत्री भी यही आद्याशक्ति है, जो भव-बंधन से मुक्ति प्रदान करती है।  वेदान्त और ज्ञानमार्ग की प्रतिपाद्य ‘विद्या’ जिसके द्वारा अविद्या का नाश और ब्रह्मा की प्राप्ति होती है, वह भी यही आद्याशक्ति है। योग की मुख्य शक्ति कुण्डलिनी भी यही आद्याशक्ति है। उपासना और भक्ति-मार्ग की हादिनी-शक्ति तथा इष्टदेवों की अद्र्धागिनी-जैसे दुर्गा, सीता, राधा, लक्ष्मी, गायत्री, सरस्वती आदि-जिनकी कृपादृष्टि से इष्ट की प्राप्ति होती है वह सब यही आद्याशक्ति है। श्री आध्यात्मरामायण में श्री सीताजी श्री हनुमानजी से कहती हैं कि-‘श्री रामचंद्र जी तो कुछ नहीं करते, अवतार की सारी लीलाएं मैंने ही की है।‘ बौद्धों की ‘प्रज्ञापारमिताÓ जो ज्ञान देने वाली उपास्या देवी है, वह भी आद्याशक्ति ही हैं। बौद्ध जिस तारादेवी की उपासना करते हैं वह भी आद्याशक्ति ही हैं। कुरान और बाइबिल में जो ईश्वर के श्वास और शब्द को सृष्टि का कारण कहा गया है, वह भी यही आद्याशक्ति है।
 
परंतु जहां प्रकाश होता है वहां साथ ही तम भी होता है। और (तम) के अस्तित्व को पार्थिव विज्ञान ने भी माना है। सृष्टि के विकास के निमित्त इन दोनों विरुद्ध पदार्थों की आवश्यकता है। इसी नियम के अनुसार आद्याशक्ति अर्थात् पराशक्ति, जो चैतन्य है, उसकी दृष्टि से अपरा प्रकृति अर्थात् नामरुपात्मक जड़मूल-प्रकृति उसका दृश्य (कार्यक्षेत्र की भांति) हुई और इन दोनों शक्तियों के संयोग से सृष्टि-रचना हुई है। मूल-प्रकृति योनिरुपा, त्रिगुणात्मिका, अविद्या अर्थात अज्ञानमूलक है और परा-प्रकृति चेतन पुरुषरुपा, सच्चिदानन्दस्वरूपिणी, विद्या और ज्ञानमूलक हैं। जीवात्मा तो ईश्वर का अंश है, उसकी प्रथम उपाधि कारण-शरीर है जो आनन्दमय है। उसका परा-प्रकृति से सम्बंध है। परंतु इसके सिवा अन्य दो उपाधियां भी है जो त्रिगुणमयी अपरा-प्रकृति के कार्य हैं-उनकी संज्ञा सूक्ष्म और स्थूल शरीर है। इन दो उपाधियों में तमोगुण और रजोगुण की प्रधानता है। मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है विद्याशक्ति के गुणों के आश्रय से अविद्यान्धकार का नाश करना तथा रजोगुण और तमोगुण का निग्रह करके उनको शुद्ध सत्व में परिणित कर पुन: त्रिगुणातीत अवस्था को प्राप्त करना। इस प्रकार त्रिगुणमयी प्रकृति के कार्य के साथ विद्याशक्ति के आश्रय से जीवात्मा में जो ईश्वर के दिव्य गुण, सामथ्र्य आदि सन्निहित है वे प्रकट होकर उस जीवात्मा के द्वारा संसार में लोकहितार्थ फैलते हैं और इस प्रकार संसार का कल्याण करते हैं। इस  के बिना संसार का कल्याण नहीं हो सकता। अतएव ज्ञान, अज्ञान, परा, अपरा दोनों प्रकृतियों की आवश्यकता है। इसलिए पूजा में ज्ञान और अज्ञान दोनों की पूजा की जाती है। अतएव त्रिगुणमयी प्रकृति अर्थात् अविद्या-शक्ति और दिव्य परा विद्या-शक्ति दोनों आवश्यक है। इसलिए यथार्थ शक्ति-उपासना यही है कि इस त्रिगुणमयी प्रकृति के कार्य अथवा स्वभाव-निद्रा, आलस्य, तृष्णा काम-वासना भ्रांति  अज्ञान, मोह, क्रोध (महिषासुर), काम (रक्तबीज) आदि को महाविद्या के गुण सद्वृद्धि बोध, लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शांति क्षारित, लज्जा, श्रद्धा, क्रांति, सद्गति, धृति, उत्तम स्मृति, दया (परोपकार) आदि के द्वारा निग्रह और पराभव कर उन पर विजय लाभ करे। इससे जीवात्मा अपने उस खोये हुए आत्मराज्य को प्राप्त करेगा, जिस राज्य से आसुरी वृत्तियों ने उसे च्युत कर दिया था। यही देवासुर-संग्राम है जिसका क्षेत्र यह मानव शरीर है। दुर्गासप्तशती के पहले और पांचवें अध्याय में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि उपर्युक्त सभी दैवी गुण श्रीभगवती के ही गुण हैं।
 
मातृभाव और ब्रह्मचर्य
 
शक्ति की उपासना में मातृभाव और ब्रह्मचर्य का महत्व प्रधान माना जाता है। दुर्गासप्तशती के 11वें अध्याय मेें नारायणी-स्तुति में लिखा है-
 
विद्या: समस्तास्तव देव भेदा:
 
स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
 
त्वयैकया पूरितमब्यैयत्
 
का ते स्तुति: स्तव्यपरापरोक्ति:।।
 
हे देवि! समस्त संसार की सब विद्याएं तुम्हीं से निकली हैं और सब स्त्रियां तुम्हारी ही स्वरूप हैं, समस्त विश्व एक तुमसे ही पूरित है, अत: तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाय?
 
शक्ति के उपासक को अपनी धर्मपत्नी के सिवा सब स्त्रियों को जगदम्बा का रूप समझ उनमें परम पूज्य भाव रखना चाहिए। कामात्मक दृष्टि से उन्हीं कभी नहीं देखना चाहिए। सब स्त्रियों को जगदम्बा मानना ही शक्ति उपासना का यथार्थ मातृभाव है, और ऐसी भावना रखने वाले के ऊपर शक्ति की कृपा शीघ्र ही होती है। अतएव शक्ति-उपासना में मन, कर्म और वचन से ब्रह्मचर्य का पालन करना परमावश्यक है। अपनी स्त्री के संग सन्तानार्थ ऋतुकाल में कर्तव्यबुद्धि से, पितृऋण से मुक्त होने के लिए संगम करना ब्रह्मचर्य के विरुद्ध नहीं है ऐसी मनुकी आज्ञा है। सप्तशती में लिखा है-
 
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।
 
हे देवि! तुम बुद्धि के रूप में सभी के हृदय में स्थित हो। वस्तुत: शक्ति सबके हृदय में विराजमान है, अतएव सबको हृदयस्थ शक्ति की उपासना करनी चाहिए।
 
 आज कल उपासना के मुख्य अंग कामादि विकारों के निग्रह की अवज्ञा की जाती है और इसके विपरीत लोग जिव्हा और उदर-परायण होकर भोगात्मक विषयों में ही अनुरक्त हो उन्हीं मेें लिप्त रहते हैं। दया (परोपकार), क्षांन्ति   (क्षमा), धृति (धैर्य), शांति (मनकी समता), तुष्टि (सर्वदा प्रसन्न रहना), पुष्टि (शरीर और मनसे स्वस्थ रहना), श्रद्धा, विद्या, सद्बुद्धि आदि महाविद्या के गुण हैं, इनके प्राप्त होने से ही साधक विद्याशक्ति से सम्बंध स्थापित कर सकता है अन्यथा कदापि नहीं। इसके विपरीत जिनमें इन सद्गुणों के विरुद्ध दुर्गुण-हिंसा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भोग-लिप्सा, तृष्णा, आलस्य आदि विद्यमान है, उनको अनेक प्रकार के पूजा-पाठ, जप-तप आदि करने पर भी शक्ति की कृपादृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती। 
 
पूजा-पाठ, जप-होम, ध्यान आदि भी शक्ति-उपासना के मुख्य अंगों में है, परंतु महाविद्या के सद्गुणों के अभाव में ये व्यर्थ है। अतएव यथार्थ शक्ति उपासना यही है कि पहले दिव्य गुणों को प्राप्त करें, और उनसे विभूषित होकर पूजा-पाठ, स्तवन, जप-ध्यान, होम आदि कर्म करें। जिसका हृदय कलुषित, मन अपवित्र, चित्त दम्भपूर्ण, भाव कुत्सित, इन्द्रियां भोगपरायण तथा जिव्हा असत्य से दग्ध है उनके पूजा-पाठ, जाप आदि कर्म प्राय: व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि भयानक दुर्गुणों को देखकर इष्ट देवता रूष्ट हो जाते हैं। लिखा है कि देवी रूष्ट होने पर समस्त अभीष्ट कामनाओं का नाश कर देती है। परंतु जो सद्गुणों से विभूषित हो अहंकार त्यागकर परम दीन और आर्तभाव से श्री आद्याशक्ति के चरणों में अपने को समर्पण कर देते हैं उनके सब कष्टों और अभावों को मिटाकर माता उनका त्राण करती है। श्री दुर्गासप्तशती की नारायणी स्तुति में भी लिखा है-
 
शरणागतदीनात्र्तपरित्राणपरायणे।
 
सर्वस्यार्तिहारे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।  (11/12)
 
श्री दुर्गा सर्वत्र सब में व्याप्त हैं और जो उन्हें इस प्रकार सबमें व्यापक रूप में वर्तमान जानते हैं, वही भय से त्राण पाते हैं। मोक्षदात्री श्री विद्याकी प्राप्ति के लिए इन्द्रिय-निग्रह परमावश्यक है।  निम्नलिखित वाक्य प्रमाण हैं-
 
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
 
भयेम्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते।।