आरम्भिक मानव जीवन में महिलाओं के प्रति वर्तमान जैसी अवधारणा नहीं थी। उस समय महिला प्रधान समाज था। मानव जनजीवन झुंडों व कबीलों में विभक्त था। कबीलों की मुखिया महिला ही होती थीं। उस समय दो ही नाते होते थे। वो नाते थे महिला और पुरुष। बूआ, बहन व बेटी जैसे नाते नहीं थे। फिर भी वर्तमान जैसे हृदय विदारक यौनाचार व यौन अपराध नहीं थे। कबीलों की या समाज की मुखिया महिलाएँ होती थी। भले ही यह सुनने में अटपटा लगे कि समाज महिला प्रधान था लेकिन यह सत्य है कि तब समाज महिला प्रधान था। उस समय विवाह जैसी व्यवस्था नहीं थी। आज भले ही वह इंसान पसंद हो या नहीं, विवाह व्यवस्था उसी के साथ रहने के लिए बाध्य करती है। इस व्यवस्था में जिससे लड़ाई झगड़ा है, उसी से प्यार करने की बाध्यता है। प्राचीन समय में ऐसा नहीं था। तब महिला पुरुष वंशवृद्धि के लिए ही सहवास करते थे। उसके बाद अलग हो जाते थे। बच्चों को जन्म देने से लेकर पालन-पोषण करने तक का तमाम दायित्व महिला का था। उन बच्चों से पुरुष का कोई लागा देगा नहीं था।
पशु-पक्षिओं में भी यही प्रचलन में है। सहवास के बाद नर व मादा अलग हो जाते हैं। बच्चे मादा के साथ रहते हैं। पशु – पक्षियों में तो आज वही स्थिति है लेकिन इंसान की स्थिति पूरी तरह बदल गई। मानव समाज में पुरुषों ने अपनी जीवनदायिनी को ही अपने अधीन कर लिया। अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। पुरुषों की ताकत का पैमाना यह हो गया कि उसके पास कितनी महिलाएं और कितनी जमीन है? इतिहास में प्रमाण मौजूद हैं कि एक-एक ताकतवर व्यक्ति यानी राजा – महाराजाओं के पास सैंकड़ों महिलाएं होती थी। अभावग्रस्त व साधनहीन व्यक्ति एक-एक महिला के लिए तरसते थे। इन समस्याओं के समाधान के लिए समाज के सूझवान पुरुषों ने विवाह जैसी व्यवस्था का अविष्कार किया।
इंसान ने अपने जीवन में अनेक प्रयोग किए। इन प्रयोगों ने मानव जनजीवन पूरी तरह से अप्राकृतिक बना दिया। इन सब प्रयोगों-अनुप्रयोगों ने महिलाओं का जीवन बदतर बना दिया। बदतर से भी अधिक दयनीयता का चित्रण करने वाला कोई शब्द है तो वही प्रासंगिक होगा। विवाह की व्यवस्था के साथ ही धर्म की व्यवस्था आस्तित्व में आई। इन दोनों व्यवस्थाओं ने ही महिला का सर्वाधिक अहित किया। रीति-रिवाजों व परम्पराओं के नाम पर ऐसा मकड़जाल पूर दिया जिसके परिणामस्वरूप महिलाएं चाह कर भी इन बंधनों से छुटकारा नहीं पा सकती। इस मकड़जाल से छुटकारा तो दूर की बात है, इस व्यवस्था को महिलाएं ही मजबूत करती रही हैं। जिस कारण सत्ती प्रथा, बालिका हत्या, देवदासी, दहेज प्रथा, बाल-विवाह, जन्मपूर्व कन्या-भ्रूण हत्या, विधवा का पुनर्विवाह न होना, जैसी भयावह प्रथाओं का प्रचलन हुआ। इन तमाम कुप्रथाओं ने महिलाओं को नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया। आज भी अनुसूचित जाति/जनजातियों व ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं परिवार की सदस्य कम दासी अधिक हैं। हालांकि महिलाओं के हालात सुधारने के लिए बहुत से महापुरुषों व महामहिलाओं ने अथक प्रयास किए। बहुत सी राजकीय व अराजकीय संस्थाओं के कंधों पर महिला कल्याण के दायित्व का कार्यभार है। कुछ पूरे मन से, कुछ अधूरे मन से, कुछ औपचारिक व कुछ अनौपचारिक लगे हुए हैं। धीरे-धीरे ही सही महिलाओं के हालात में परिवर्तन आ रहा है। यह परिवर्तन महिलाओं के उच्च शिक्षा के कारण ही संभव हो पाया। महिलाओं के लिए शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य ज्योति बा फुले व सावित्रीबाई फूले, पंडिता रमाबाई, राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर व बाबासाहब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने जो कार्य किए वो अस्मृणीय है।
फूले दंपत्ति ने महिला शिक्षा के लिए हर संभव प्रयास किए। परिवार का, रूढ़िवादी समाज तिरस्कार झेला। उनकी अपनी जाति ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उनका कुसूर मात्र इतना था कि उन्होंने नारी शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए थे। उन्होंने अपने प्रयास से फातिमा शेख को तैयार किया। विधवा पुनर्विवाह के लिए प्रयास करके कानून बनवाया। उनके पश्चात बाबासाहब डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर (जो कि संविधान सभा की प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष थे) ने समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया। जिसके अंतर्गत किसी भी नागरिक से जाति, धर्म व लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। ये सब प्रयासों महिलाओं के उत्थान में सहायक बने। हालांकि समानता अभी भी महिलाओं की पहुंच से बहुत दूर है। लेकिन हम निराशावादी नहीं हैं। कामना करते हैं कि समता मूलक समाज का निर्माण अवश्य होगा। महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा-वर्ग व अल्पसंख्यकों तक भी समानता का प्रवाह पहुंचेगा।