देश में वर्तमान समय में बहुत सुखद परिवर्तन हो रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के प्रमुख संकल्पों में से एक ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ भी लागू हो चुका है। इस क़ानून के माध्यम से कभी भारत का हिस्सा रहे पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश में केवल धार्मिक आधार पर पीड़ित और प्रताड़ित गैर मुस्लिम नागरिकों को एक सुरक्षित और एवं भय मुक्त वातावरण दिया जा सकेगा ताकि वे अपना जीवन मूलभूत सुविधाओं के साथ अपने धर्म का आचरण करते हुए जी सकें। यह कानून ऐसे शरणार्थियों को नागरिकता देने वाला कानून है जिनकी जड़ें भारत में हैं। नागरिकता संशोधन कानून के लागू हो जाने से पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश तीनों मुस्लिम बहुल देशों से परेशान होकर लौटे वहाँ के अल्पसंख्यक नागरिकों के लिए भारत की नागरिकता के रूप में
एक बड़ी राहत मिल गई है। हालाँकि दूसरा पक्ष यह भी है कि इस एक्ट को लेकर भ्रम फैलाए जाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि इस विधेयक के आने के बाद भारत के मुसलमानों की नागरिकता पर बुरा असर पड़ेगा। यहाँ यह ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता है कि देश के गृहमंत्री स्वयं संसद में इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि नागरिकता संशोधन कानून केवल पूर्व में भारत का ही अंग रहे तीनों पड़ोसी देशों से आने वाले गैर मुस्लिम नागरिकों पर ही लागू होगा। ऐसे में दशकों से प्रतीक्षारत पड़ोसी देशों से आए वहाँ के अल्पसंख्यक समुदाय के शरणार्थियों की भारत की नागरिकता की मांग पूरी होने का उदारता से स्वागत किया जाना चाहिए।
नागरिक संशोधन विधेयक दरअसल 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश कर चुके तीनों पड़ोसी देशों के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के किसी व्यक्ति और जिसे केंद्र सरकार ने पासपोर्ट भारत में प्रवेश अधिनियम, 1920 अथवा विदेशियों विषयक अधिनियम 1946 या उसके अधीन बनाए नियमों से छूट दी है, को इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। वैध यात्रा दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश कर गए ऐसे प्रवासियों को अभी तक अवैध प्रवासी माना जाता रहा हैं। सीएए में यह प्रस्ताव है कि उक्त प्रवासियों को भारतीय नागरिकता के लिए पात्र माना जाए।
नागरिकता संशोधन कानून वास्तव में दशकों से पीड़ित शरणार्थियों को सम्मानजनक जीवन देने के साथ ही साथ उनके पुनर्वास और नागरिकता की कानूनी बाधाओं को दूर करने के लिए है। इसके माध्यम से ऐसे शरणार्थियों की सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक पहचान की रक्षा का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके साथ ही आर्थिक, व्यवसायिक, मुक्त परिवहन और भारत में उनके संपत्ति खरीदने जैसे अधिकार सुनिश्चित होंगे। इसके बावजूद नागरिकता संशोधन विधेयक के संबंध में तमाम प्रकार की भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं। इसे मुस्लिम विरोधी कानून बताया जा रहा है जबकि सत्य यह है कि इस कानून से मुसलमानों का कोई अधिकार नहीं जाता क्योंकि यह नागरिकता देने का कानून है, लेने का नहीं। इसीलिए भारतीय नागरिकों विशेष रूप से मुस्लिमों को किसी भ्रामक प्रचार में नहीं आना चाहिए। इस कानून में भारत के मुसलमानों की नागरिकता को लेकर कोई नया क़ानून अथवा संशोधन नहीं है। स्पष्ट रूप से यह कानून केवल उन शरणार्थियों के लिए है जिन्हें वर्षों से धार्मिक आधार पर उत्पीड़न सहना पड़ा और जिनकी जड़ें भारत में होने से उनके पास दुनिया में इस देश के अलावा अन्य कोई जगह नहीं है। इसलिए भारत का संविधान हमें यह अधिकार देता है कि मानवतावादी दृष्टिकोण से धार्मिक शरणार्थियों को मूलभूत अधिकार मिलें और ऐसे शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान की जा सके।
इस क़ानून और ऐसे शरणार्थियों के विषय को देखने के लिए हमारे पास एक इतिहास दृष्टि एवं वर्तमान में इन तीनों पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों की स्थिति को समझना आवश्यक है। असल में भारत सरकार को इस बिल को लाने की आवश्यकता ही न पड़ती अगर भारत का विभाजन और वह भी धर्म के आधार पर न हुआ होता। ‘नेहरू-लियाकत समझौते’ के तहत दोनों पक्षों ने स्वीकृति दी थी कि अल्पसंख्यक समाज के लोगों को बहुसंख्यकों की तरह सम्मान और सुविधाएँ दी जाएँगी। उनके व्यवसाय, अभिव्यक्ति और उपासना करने की आजादी भी सुनिश्चित की जाएगी। भारत ने तो अपना यह वादा बखूबी निभाया लेकिन पाकिस्तान और उससे विभाजित बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर खूब अमानवीय अत्याचार किए गए। इस्लामिक आधार पर गठित होकर चल रहे इन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यक नागरिकों के अधिकारों का हनन हो रहा था। अमानवीय अत्याचारों की लंबी श्रृंखला उनके केवल अल्पसंख्यक होने के कारण चली आ रही थी। इन देशों में महिलाओं की स्थिति तो और भी बहुत ज्यादा खराब रही है। बच्चियों और महिलाओं को उठाकर उनके साथ सामूहिक बलात्कार, हत्या तो कभी जबरन निकाह के द्वारा धर्म परिवर्तन कराया जाना वहाँ आम बात है। इन देशों में हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी सभी के धर्म स्थलों पर हमले होते रहे हैं। ऐसे में या तो लोग मजबूर होकर धर्म परिवर्तन कर लेते थे या अपनी जान गंवा बैठते हैं।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हर निर्णय का विरोध करने वाली ताक़तें इस कानून का पुरजोर विरोध करने के लिए अपनी टूल किट के साथ मैदान में उतर गई हैं। आंदोलन करने वाले लोगों की सक्रियता बढ़ने लगी है। भारत में हो रहे किसी भी अच्छे परिवर्तन का विरोध करना ही इनका एजेंडा है।
देश में अवश्य एक अच्छा वातावरण तैयार हुआ है। देश के मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी अब इन बातों और भ्रम फैलाने वालों की हक़ीक़त समझने लगे हैं। इसीलिए सीएए का नोटिफिकेशन लागू होने पर मुस्लिम धर्मगुरु एवं आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने कहा कि हमारी लीगल टीम सीएए नोटिफिकेशन को पढ़ेगी और फिर हम किसी नतीजे पर पहुंचेंगे। इसके साथ ही मुस्लिम धर्मगुरु महली ने कहा इस कानून से किसी की नागरिकता पर खतरा नहीं है, लोग अफवाहों और गलतफहमी से बचें। साथ ही उन्होंने विरोध और सियासत करने वालों से अपील की कि इस मुद्दे पर राजनीति न की जाए। आज बुद्धिजीवी भारतीय मुसलमान भी भारत के सौहार्द, शांति, सद्भाव और विकास की नीति से हर एक भारतीय के रूप में गर्वित हो रहा है। भावनात्मक रूप से मुसलमान को उद्वेलित करके अपनी सियासत चलाने वालों को मुफ्ती ख़ालिद रशीद से सीख लेकर अपने देश के विकास में सहयोगी रहना चाहिए।
भारत की नीति सदैव से ही बहुजन हिताय की रही है। हम विश्व बंधुत्व के दृष्टिकोण से जीवन जीने वाले समाज हैं। कोरोनाकाल में इसीलिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने बिना कोई भेदभाव किए छोटे-बड़े जरूरतमंद देशों को कोविड वैक्सीन एवं अन्य सहायता मुक्तहस्त से उपलब्ध कराई थी। आज विश्व बदल चुका है। पूरा विश्व भारत की वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को स्वीकार करने के साथ सराह भी रहा है। यही कारण है कि विश्व के लगभग सभी छोटे बड़े इस्लामी देशों से भारत की अटूट मित्रता है। भारत के मुस्लिम नागरिक भी देश में स्वतंत्रता के साथ सुखी जीवन जी रहे हैं। ऐसे में नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर किसी भी प्रकार के भ्रम में आए बिना देश के प्रत्येक नागरिक को इसका खुले हृदय से स्वागत करना चाहिए।
डॉ वंदना गाँधी
लेखिका शिक्षाविद, समाजशास्त्री एवं कथाकार हैं