श्रीनगर, कश्मीर में दूरदराज इलाकों के हर उम्र के सैकड़ों पुरुष मुसलमानों को रमजान में रोज़ा शुरू करने से पहले ‘सेहरी’ के लिए जगाने के वास्ते ड्रम बजाने की सदियों पुरानी परंपरा को निभाते आ रहे हैं।
‘सेहरख्वां’ के नाम से पहचाने जाने वाले ये पुरुष कई वजहों से यह काम करते हैं जिनमें गरीबी सबसे आम वजह है।
ये सेहरख्वां देर रात ढाई बजे उठ जाते हैं और सबेरे-सबेरे तीन बजे से साढ़े चार बजे तक ड्रम बजाकर लोगों को उठाते हैं।
शहर के बर्बरशाह इलाके में अनुभवी सेहरख्वां अब्दुल रहमान खटाना ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘महिलाएं थोड़ा जल्दी उठ जाती हैं क्योंकि उन्हें पुरुषों के लिए खाना पकाना होता है या भोजन गरम करना होता है तो लोगों को नींद से जागने और सेहरी खत्म होने के बीच पर्याप्त समय होता है। आम तौर पर सेहरी का समय सुबह 5:20 मिनट के आसपास खत्म होता है।’’
बारामूला जिले में उरी के रहने वाले रफीक अहमद खान पूरे साल निर्माण मजदूर के तौर पर काम करते हैं लेकिन रमजान के दौरान सेहरख्वां के तौर पर ड्रम बजाते हैं।
खान ने कहा, ‘‘मैं सात वर्ष से यह काम कर रहा हूं। इसमें कोई वेतन नहीं होता लेकिन लोग खासकर रमजान के दौरान बहुत उदार होते हैं। मैं साल के बाकी महीने के बजाय इस महीने ज्यादा कमाई कर लेता हूं।’’
कुपवाड़ा निवासी जहूरुद्दीन शाह रमजान के दौरान सेहरख्वां का काम करने के लिए हर साल श्रीनगर आते हैं।
शाह ने कहा, ‘‘मुझे इसके लिए अच्छा पैसा मिलता है। सबसे अच्छी बात है कि मैं अपने लिए सेहरी नहीं पकाता हूं क्योंकि लोग मुझे मुफ्त में भोजन दे देते हैं।’’
पांच दशक से ड्रम बजाने का काम कर रहे 70 वर्षीय गुलाम रसूल पयार ने कहा, ‘‘हर किसी को जिंदा रहने के लिए पैसों की जरूरत होती है लेकिन मैं पैसों के लिए यह नहीं कर रहा हूं। मैं मोक्ष के लिए यह करता हूं।’’
मोबाइल फोन और अलार्म घड़ियों ने शुरू में सेहरख्वां की प्रासंगिकता को कम कर दिया लेकिन खत्म नहीं किया।
गुलबर्ग कॉलोनी निवासी 61 वर्षीय मंजूर अहमद डार ने कहा, ‘‘कोई भी व्यक्ति अलार्म घड़ी या मोबाइल फोन बंद कर सकता है क्योंकि रात की नींद से उठना आसान नहीं होता। लेकिन सेहरख्वां आपको यह विकल्प नहीं देते हैं। वह इतनी देर तक ड्रम बजाते हैं कि आप एक बार उठकर दोबारा सो नहीं सकते।’’
रमजान के दौरान ड्रम बजाकर लोगों को उठाने की परंपरा सदियों पुरानी है और भारत, पाकिस्तान, तुर्किये, मोरक्को तथा फलस्तीन जैसे कई देशों में आज भी इसका वजूद है।