गत दिनों विपक्षी दलों के ‘इण्डी’ गठजोड़ के मुख्य घटक दल द्रविड़ मुन्नेत्र कडग़म (डीएमके) के सांसद श्री ए. राजा ने विवादित बयान दिया कि ‘हमें अच्छी तरह समझ लेना चहिए कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। एक राष्ट्र का अर्थ है एक भाषा, एक परम्परा और एक संस्कृति। भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि उप-महाद्वीप है।’ उन्होंने तमिलनाडू, मलयालम, उडिय़ा की भाषाई, खानपान व पहनावे की विविधता को विभिन्नता व अलगाव बता कर भारत को कई नेशन् का संघ बताया।
ए. राजा ने जो कहा, उसे वैचारिक भटकाव कहना अतिशयोक्ति न होगा। अक्सर अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग इस तरह की गलती कर जाते हैं जो राष्ट्र और अंग्रेजी में उसके आधे-अधूरे अनुवाद नेशन के बीच अन्तर नहीं समझ पाते।
भारतीय दृष्टिकोण में संस्कृत साहित्य अनुसार, राष्ट्र शब्द की व्युत्पत्ति ‘रज’ धातु से हुई है, ‘राजते दिप्यते प्रकाशते शोभते इति राष्ट्रम्’ अर्थात जो स्वयं दैदीप्यमान होने वाला है वह राष्ट्र कहलाता है। पश्चिम ने इस शब्द का अनुवाद ‘नेशन’ के रूप में किया है जो लैटिन भाषा के शब्द ‘नेशियो’ से आया है। नेशियो का अर्थ पैदा होना या जन्म लेना है, इस प्रकार ‘नेशन’ उस मानव समूह को कहते हैं जो जाति, भाषा, धर्म और परम्परा के रूप में एक हो। अंग्रेजी में ‘नेशन’ शब्द के जो अर्थ हैं वह राष्ट्र की तुलना में संकीर्ण व सीमित अर्थों वाले हैं अर्थात अंग्रेजी में राष्ट्र शब्द का समूचित अनुवाद उपलब्ध नहीं। यहीं से पैदा होती है वैचारिक असमंजस की स्थिति जिससे बड़े-बड़े विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं व विभाजनकारी शक्तियां इस भ्रम का प्रयोग देश को तोडऩे के काम में करती हैं।
डीएमके सांसद को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत शब्द कहते ही हमारे सामने एक भौगोलिक चित्र के साथ-साथ हजारों वर्षों की सांस्कृतिक धरोहर की अनुभूति आ जाती है। विष्णुपुराण में भी भारत के भौगोलिक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है –
उत्तरंयत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:।।
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो भूमि स्थित है, उसे भारत भूमि कहते हैं और इस पवित्र भूमि पर निवास करने वालों को भारतीय कहा जाता है। भारत को एक राष्ट्र के रूप में मात्र इसलिए नहीं जाना जाता कि वह एक भू-भाग है, बल्कि इसलिए भी जाना जाता है कि भारत विश्व की सबसे पुरानी एवं जीवित संस्कृतियों में से एक है जिसमें विविधताओं के साथ-साथ यहां की संस्कृति में एकात्मभाव देखने को मिलता है। यह एक स्थापित सत्य है कि भारत में विभिन्न क्षेत्र, मत सम्प्रदाय, असंख्य भाषाएं, बोलियां, वेश-भूषा, जातियां, रीति-रिवाज, आदि पाए जाते हैं, उसके बावजूद भी पुरातनकाल से ही हमारी संपूर्ण रचना एकात्मता पर आधारित है। यह विविधता हमारी वैचारिक सहिष्णुता व विशाल भू-गौलिक स्थिति के कारण है, इनमें कहीं कोई टकराव नहीं।
भारत को राष्ट्रीयताओं का समूह बताने वाला चिंतन विदेशी और नास्तिक वामपन्थी विचारधारा का प्रतिबिम्ब है, जिसमें वह भारत को अपने उद्भवकाल से भाषाई-सांस्कृतिक आधार पर बहुराष्ट्रीय राज्यों का समूह मानता आया है, साथ ही यहां की आधारभूत हिन्दू परम्पराओं और उसकी समस्त ब्रह्म्राण्ड को जोडऩे वाली संस्कृति से घृणा करता है। इसी दर्शन से तमिलनाडू की राजनीति भी अभिशप्त है जो अर्य-द्रविड़ रूपी अलगाववादी सिद्धान्त से प्रभावित है। निर्विवाद रूप से भारत विविधताओं से भरा और बहुलतावाद से ओतप्रोत राष्ट्र है जिसे इसकी प्रेरणा अनादिकाल से यहां की सनातन संस्कृति और कालजयी परम्परा से मिल रही है। गांधी जी ने 1909 में अपनी पुस्तक ‘हिन्द-स्वराज्य’ में एक स्थान पर लिखा है, ‘दो अंग्रेज जितने एक नहीं, उतने हम भारतीय एक थे और एक हैं। विदेशियों के दाखिल होने से राष्ट्र खत्म नहीं हो जाते।’
भारत सहस्राब्दियों से सांस्कृतिक रूप से एक राष्ट्र रहा है। इसकी संस्कृति में ऊपरी तौर पर जो विविधता दिखाई देती है वह एक विशाल राष्ट्र की भू-गौलिक परिस्थितियों के चलते है। हमारे उत्तर में हिमअच्छादित पर्वत हैं तो उसकी तलहटी पर गंगा-जमना के उपजाऊ मैदान, पश्चिम में विशाल रेगिस्तान है तो पूर्व में अलांघ्य वन और दक्षिण में पठार। 500-600 वर्षों से पहले तक राज्यों को एक-दूसरे से सम्पर्क और तारतम्य स्थापित करने में भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। तब पर्याप्त यातायात और संचार व्यवस्था नहीं होने पर केन्द्रीय रूप से राज्यों को नियन्त्रित करना दुस्साध्य था, इसलिए राज्यों का बनना-बिगडऩा स्वाभाविक था। किन्तु सबके लिए भारत भावनात्मक रूप से और लोकमानस के चिन्तन में सदैव एक राष्ट्र ही रहा। चाणक्य अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में कहते हैं कि हमारे जनपद चाहे विभिन्न हों परन्तु हमारा राष्ट्र एक और माँ भारती सबकी एक ही है।
कुछ पश्चिमी व वामपंथी चिंतक भारत की तुलना यूएसएसआर (रूस का पुराना नाम) से करते हैं और यह बताने का प्रयास करते हैं कि इसी तरह भारत कई राष्ट्रीयताओं का समूह है। केवल इतना ही नहीं, ये लोग इसी आधार पर भारत का विभाजन भी चाहते हैं। कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडू, देश के पूर्वी राज्यों में चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों को विदेशों से समर्थन और मध्य भारत में नक्सली आतंक को वामपन्थी शक्तियों का सहयोग मिलना इसी बात का प्रमाण है कि विखण्डनकारी शक्तियां गलत विमर्श स्थापित कर भारत की एकता-अखण्डता को छिन्न-भिन्न करना चाहती हैं। देशवासियों, विशेषकर राजनेताओं को इस प्रकार की राष्ट्रविच्छेदक शक्तियों से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि जो राजनेता उनकी हां में हां मिला कर इस तरह का दुष्प्रचार करता है उसके अधिकतर समर्थक उसी का अन्धानुकरण करते हैं। राष्ट्र के रूप में भारत प्राचीनकाल से एक था, आज भी एक है और सृष्टि के अंत तक एक ही रहेगा।
राकेश सैन