जल है तो कल है।

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संस्कृत हमारी देव भाषा होने के साथ-साथ हमारे ज्ञान का विपुल भंडार है। संस्कृत का समृद्ध साहित्य विश्व विख्यात है। हमारे देवी-देवता, पूजा-पाठ, शुभ-अशुभ, हर्ष-शोक, प्रकृति-पर्यावरण आदि सभी का ज्ञान-विज्ञान संस्कृत में लिखे हमारे वेदों, शास्त्रों, उपनिष्दों, पुराणों आदि में है। जब हम प्रकृति की बात करते हैं और उसमें भी जल की बात करते हैं तो जल के बारे में भी हमारे शास्त्रों में जो लिखा है, उसकी बात को भी जानना जरूरी हो जाता है। ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:, पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्वं शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ यह शांति मंत्र यजुर्वेद से लिया गया है,  इसका अर्थ है, ओम् स्वर्ग में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी में शांति हो, जल में शांति हो, औषधियों में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवताओं में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, शांति हो, शांति हो, शांति हो, हे शांति, मुझमें भी शांति आ जाए। जब तक सभी शांत नहीं होंगे, हमें कैसे सिद्धी प्राप्त हो सकती है। हम वैश्विक शांति के प्रतीक है। हम सभी के सुख में अपना सुख चाहने वाले हैं। हमारे मंत्रों में बड़ी शक्ति है।

महाभारत के शान्ति पर्व लिखा गया है कि, अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च। अर्थात जल से सभी जीव जीवित रहते हैं और उत्पन्न होते हैं। विचार करें तो जल सभी की उत्पत्ति में सहायक है। जल के बिना कुछ संभव नहीं है। रहीम ने कहा भी है कि, रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।। जल विकास का स्रोत है। आदित्यहृदयम् से लिया गया है कि, जलं जलेन सृजति जलं पाति जलेन यः। अर्थात जल स्वयं जल से बनता है और जल को ही बचाता है। बादल, बर्फ, नदी, सागर सभी अपने आप अपनी प्रक्रिया करते रहते हैं। इनके कार्य क्षेत्र में हमारा कोई योगदान नहीं है।  आदित्यहृदयम् में सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं, जो वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में वर्णित हैं। यह मंत्र अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान श्रीराम को सूर्य की स्तुति करने की सलाह देते हुए कहा गया था, जब वे रावण के साथ युद्ध के लिए रणभूमि में खड़े थे।

श्रीरामचरितमानस में भी जल को लेकर बहुत से उदाहरण दिए गए हैं। जल और सदगुणों की बात का उदाहरण इस प्रकार है, समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुण सज्जन पहिं आवा॥ अर्थात् जिस प्रकार जल एकत्र होकर तालाब को भरता है, वैसे ही सद्गुण सज्जन के पास आते हैं और उसे भर देते हैं। विचार करें तो मनुष्य शरीर की बनावट में भी जल का महत्वपूर्ण स्थान है। गोस्वामी जी रामचरितमानस में लिखते हैं कि, क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व रचि अधम शरीरा।। यह चौपाई शरीर के पाँच तत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु को दर्शाती है।

 मानस में जल को लेकर अलग-अलग उदाहरणों के साथ चौपाइयाँ लिखी गई हैं। जल और मोक्ष का उदाहरण देते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं कि, सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥ अर्थात जैसे नदी का जल समुद्र में मिलकर स्थिर हो जाता है, वैसे ही जीव भगवान को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है। जल को लेकर गोस्वामी जी ने कितने ही सुंदर उदाहरणों का प्रयोग मानस में किया है। वास्तव में देखा और समझा जाए तो जल का कोई रंग-रूप-आकार नहीं है। जहाँ जिस स्थिति में रखें, वैसा ही हो जाता है। मनुष्य को भी जल के समान ही रहना चाहिए, निर्मल, पावन, पुनीत, पारदर्शी आदि। सही मायनों में जल ही निर्मलता का प्रतीक है। जल नहीं तो कल नहीं, जल नहीं तो कोई चल नहीं सकता है, प्रकृति रूक जायेगी। हमें जल संरक्षण की ओर ध्यान देना होगा, जल को बचाना होगा।

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