वीर योद्धा पेरूम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय, जो जीवन में नहीं हारे एक भी युद्ध
Focus News 20 December 2025 0
भारत के उपराष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन ने 14 दिसंबर 2025 को पेरूम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय के नाम पर डाक टिकट जारी किया है। इस समाचार के बाद लोगों में यह उत्सुकता जगी, कि आखि़र कौन हैं पेरूम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय ? इतिहास केवल वही नहीं होता जो हमें पढ़ाया गया हो बल्कि वह भी होता है जिसे समय और सत्ता की राजनीति ने चुपचाप हाशिये पर धकेल दिया हो। दरअसल स्वतंत्रता के पश्चात ही जिस तरह का इतिहास विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में दिया गया, उसे देखते हुए इस प्रकार के प्रश्नों का उठना गलत नहीं है। दुर्भाग्य यह है कि भारत के दक्षिणी हिस्से में, जहाँ इन्होंने शासन किया, वहाँ भी इनके बारे में पाठ्यक्रमों में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह इतिहासबोध अक्सर कुछ चुनिंदा राजवंशों और विचारधाराओं तक सीमित रहा, जिसमें दक्षिण भारत के अनेक स्वाभिमानी शासकों की स्मृतियाँ धुंधला दी गईं।
नवंबर 2025 में पेरूम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय के ऊपर आयोजित एक कार्यक्रम में तमिलनाडु की डीएमके सरकार के एक मंत्री ने केंद्र सरकार से पेरूम्बिडुगु मुथारैयार के ऊपर डाक टिकट जारी करने की अपील की थी। उस अपील के ठीक 1 महीने के अंदर केंद्र सरकार ने पेरूम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय के ऊपर डाक टिकट जारी कर दिया।
जानकारी के अनुसार सम्राट पेरूम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय के नाम में ‘पेरुम्बिडुगु’ उनकी उपाधि है और ‘मुथरैयार’ उनके वंश का नाम है। इनका वास्तविक नाम सुवरन मारन है। सुवरन मारन का जन्म सातवीं शताब्दी में हुआ था और ऐसा माना जाता है कि उन्होंने सातवीं और आठवीं शताब्दी ईस्वी के बीच वर्तमान तमिलनाडु के तंजावुर, त्रिची और पुदुकोट्टई क्षेत्र पर शासन किया। उनके द्वारा निर्मित और संरक्षित मंदिरों में मिले अभिलेख उन्हें एक ऐसे राजा के रूप में महिमामंडित करते हैं जिसने अपने जीवन में 12 युद्ध लड़े और कभी पराजय का मुँह नहीं देखा।
तंजावुर ज़िले के सेंदलै गाँव में स्थित मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर के चार स्तंभों पर जो अभिलेख खुदे हुए हैं, वह उनके बारे में तथा उनके मुथारैयार वंश के बारे में जानकारी देते हैं। इन सभी अभिलेखों में प्राचीन तमिल लिपि में अत्यंत सुंदर और सुव्यवस्थित लेखन मिलता है। ये अभिलेख सुवरन मारन उर्फ़ पेरुम्बिडुगु मुथरैयन की वंशावली, उनके चरित्र और उनकी मेइकीर्ति (यशोगाथा) का विवरण देते हैं। ‘मेइकीर्ति’ से आशय उन उपाधियों और नामों से है, जो किसी राजा को उसके स्वभाव, वीरता, साहस और युद्ध-पराक्रम के आधार पर दिए जाते थे। अभिलेखों में उन्हें कई उपाधियाँ प्रदान की गई हैं। इतिहास के प्राचीन स्रोतों में सुवरन मारन का उल्लेख एक ऐसे शासक के रूप में मिलता है जिन्हें शत्रुभयंकर के नाम से भी जाना जाता था।
जानकारों के अनुसार यह उपाधि केवल उनकी सैन्य शक्ति का संकेत नहीं देती, बल्कि उस राजनीतिक-बौद्धिक वातावरण की भी ओर इशारा करती है जिसे उन्होंने अपने शासनकाल में विकसित किया। सुवरन मारन के दरबार को विद्वानों और विचारधाराओं के संवाद का केंद्र माना जाता है। अभिलेखों के अनुसार पेरुम्बिदुगु मुथरैयार ने कोडुंबालूर, मनालूर, थिंगालूर, कंथालूर, अज़ुंथियूर, करै, मरंगूर, पुग़ज़ी, अन्नालवायिल, सेम्पोन मारी, वेंकोडल और कन्ननूर, इन बारह स्थानों पर युद्ध लड़े। इनमें से कई स्थान आज भी अपने पुराने नामों से जाने जाते हैं। उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि सुवरन मारन शैव परंपरा के संरक्षक थे और शैव विद्वानों को संरक्षण प्रदान करते थे किंतु उनकी बौद्धिक उदारता केवल एक पंथ तक सीमित नहीं थी। उनके दरबार में विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के बीच संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा विद्यमान थी।
इतिहासकार डी. जी. महाजन के अनुसार, आचार्य विमलचंद्र श्रवणबेलगोला (तत्कालीन मैसूर राज्य) की जैन परंपरा से संबंधित थे और उन्होंने सुवरन मारन के दरबार में शैव तथा अन्य विद्वानों के साथ वैचारिक वाद-विवाद किया। अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि आचार्य पचिलवेल नम्बन, आचार्य अनिरुद्ध, कोट्टात्रु इलम पेरुमनार और कुववन कंजन जैसे कवि उनके दरबार की शोभा थे। इन चारों कवियों ने उनकी वीरता और पराक्रम का गान किया जो मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर के चारों स्तंभों पर उत्कीर्ण है।
कांचीपुरम के वैकुंठ पेरुमाल मंदिर में भी एक अभिलेख है जिसमें उल्लेख है कि नंदीवर्मन द्वितीय के राज्याभिषेक के समय एक मुथरैयार राजा का औपचारिक स्वागत किया गया था। माना जाता है कि यह शासक पेरुम्बिदुगु मुथरैयार द्वितीय ही थे। डेनिस हडसन की किताब ‘बॉडी ऑफ गॉड- एन एंपरर्स पैलेस फॉर कृष्णा इन एट्थ-सेंचुरी काँचीपुरम’ में भी इनके बारे में विस्तार से बताया गया है।
मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर के अभिलेख में उनके द्वारा किये गए युद्धों का भी विस्तार से वर्णन करते हैं। एक अभिलेख में बताया गया है कि उनका ध्वज ‘वेल’ अर्थात् भाला था और अज़िंथियूर में उन्होंने जो युद्ध लड़ा था, उसके बाद वहाँ की धरती रक्त से लाल हो गई थी। यहाँ तक कहा जाता है कि सुवरन मारन ने उस रक्त-सिक्त भूमि को हाथियों से जुतवाया था।
जानकारों द्वारा बताया जा रहा है कि प्रशासनिक स्तर पर भी सुवरन मारन ने तमिलनाडु के अनेक क्षेत्रों में जलाशयों, नहरों और पुलों का निर्माण कराया। चूँकि उस दौर में सिंचाई के लिए पानी का एकमात्र स्रोत केवल वर्षा जल हुआ करता था, इसलिए सुवरन मारन का यह प्रयास उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता है। ऐसी अनेक रोचक जानकारियाँ सुवरन मारन के बारे में तथा मुथरैयार वंश के बारे में अलग-अलग स्रोतों में बिखरी पड़ी हैं। अब जब केंद्र सरकार ने उनके नाम से डाक टिकट जारी कर दिया है, तो यह उम्मीद की जा सकती है कि सुवरन मारन को पाठ्यक्रम में शामिल कर बच्चों को भी उनके बारे में बताया जाएगा, ताकि आने वाली पीढ़ियों को स्वयंबोध हो सके। उन्हें यह पता चले कि भारत का इतिहास केवल कुछ प्रसिद्ध नामों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें ऐसे अनगिनत ’’सुवरन मारन’’ भी हैं जिनकी स्मृति एवं पुरूषार्थ को पुनर्जागृति करना समय की माँग है।
रामस्वरूप रावतसरे
