भारत–रूस संबंध: इतिहास की विरासत या भविष्य की आवश्यकता?

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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप स्थिर नहीं होता बल्कि यह समय, परिस्थितियों और शक्ति सन्तुलन के अनुसार निरन्तर बदलता रहता है। प्रत्येक राष्ट्र-राज्य अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते हुए, बाहरी दबावों से मुक्त रहकर और बिना किसी हिचकिचाहट के अपने विदेश संबंधों को आकार देता है। कोरोना महामारी के बाद वैश्विक व्यवस्था में तीव्र परिवर्तन देखने को मिले हैं। आर्थिक अस्थिरता, आपूर्ति-श्रृंखला में बाधाएँ और भू-राजनीतिक तनावों ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को और जटिल बना दिया है। बीते एक वर्ष में डोनाल्ड ट्रम्प की आक्रामक नीतियों और बयानों ने वैश्विक मंच पर असमंजस और तनाव को और बढ़ाया है जिसका प्रभाव भारत की विदेश नीति पर भी पड़ा है। इन परिस्थितियों में अमेरिका के निरन्तर दबाव के बावजूद भारत ने अपने पारंपरिक मित्र रूस के साथ संबंधों को बनाए रखने और उन्हें मजबूत करने का प्रयास किया है, विशेषकर रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद। भारत ने इस संघर्ष में संतुलित रुख अपनाते हुए रणनीतिक स्वायत्तता की नीति को प्राथमिकता दी है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा इसी निरन्तरता और परिपक्व  कूटनीति का प्रतीक है। यह यात्रा ऐसे समय हुई है जब रूस, यूक्रेन युद्ध के कारण काफी हद तक वैश्विक अलगाव का सामना कर रहा है। ऐसे में भारत द्वारा पुतिन का स्वागत करना न केवल द्विपक्षीय विश्वास को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि भारत अपने दीर्घकालिक हितों और ऐतिहासिक साझेदारी को तात्कालिक दबावों के आगे नहीं झुकने देता।

ऐतिहासिक तौर पर भारत का रूस के साथ रिश्ता शीत युद्ध के दौर में ही आरम्भ हो गया था। भारत के  लिए रूस सदैव से विश्वसनीय रहा है। पुतिन की हालिया यात्रा भारत–रूस संबंधों की मजबूती और निरन्तरता का महत्त्वपूर्ण संकेत है, विशेषकर ऐसे समय में जब यूक्रेन-युद्ध, कठोर पश्चिमी प्रतिबन्धों और बदलते वैश्विक शक्ति-सन्तुलन ने रूस की अंतरराष्ट्रीय स्थिति को कमजोर किया है। इन परिस्थितियों ने भारत की सन्तुलनकारी विदेश नीति को भी जटिल बना दिया है क्योंकि रूस लम्बे समय से भारत का प्रमुख रक्षा सहयोगी और ऊर्जा आपूर्तिकर्ता रहा है जबकि अमेरिका और यूरोपीय देश भारत के महत्त्वपूर्ण आर्थिक और रणनीतिक साझेदार हैं। ऐसे में पुतिन की भारत यात्रा यह संदेश देती है कि परिस्थितियों में बदलाव के बावजूद दोनों देशों का सम्बन्ध स्थिर, विश्वसनीय और दीर्घकालिक हितों पर आधारित है। यह यात्रा न केवल द्विपक्षीय सहयोग की पुनर्पुष्टि करती है, बल्कि भारत की सामरिक स्वायत्तता, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थन और स्वतंत्र विदेश नीति को भी मजबूत करती है।

 

यह यात्रा वस्तुतः भारत और रूस के नेताओं के बीच 23 वें द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन के  रूप में हुई थी। इस सम्मेलन में संयुक्त बयान में भारत और रूस ने वैकल्पिक व भरोसेमंद परिवहन मार्गों को मजबूत करने पर सहमति जताई। अंतरराष्ट्रीय उत्तर–दक्षिण परिवहन गलियारा, चेन्नई–व्लादिवोस्तोक समुद्री मार्ग और उत्तरी समुद्री मार्ग के विकास पर जोर दिया गया। साथ ही ध्रुवीय क्षेत्रों में जहाज संचालन के लिए विशेषज्ञ प्रशिक्षण समझौते का स्वागत किया गया। चेन्नई–व्लादिवोस्तोक समुद्री कॉरिडोर नवंबर 2024 से ही  सक्रिय है जो स्वेज  नहर के अस्थिर मार्ग का विकल्प बनकर उभरा है। यह कॉरिडोर एक सीधा “ऊर्जा पुल” तैयार करता है जिससे परिवहन समय में भारी कमी आती है जिससे यात्रा समय 40 दिनों से घटकर 24 दिन हो गया और दूरी मात्र 5600 नॉटिकल मील रह गई है। जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय उत्तर–दक्षिण परिवहन गलियाराऔर उत्तरी समुद्री मार्ग का प्रश्न है तो यह भारत को मध्य एशिया, रूस और यूरोप से जोड़ने के वैकल्पिक रास्ते उपलब्ध कराते हैं। इससे बेलारूस, आर्मेनिया, अज़रबैजान, कज़ाख़स्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और मोल्दोवा के साथ व्यापार बढ़ाने में मदद मिलेगी। यह यात्रा केवल तेल, परमाणु ऊर्जा, श्रमिक प्रवासन या रक्षा सौदों तक सीमित नहीं रही बल्कि बातचीत का एक अहम पक्ष भारत–रूस व्यापार में बढ़ता असंतुलन भी था जिसे कम करने के लिए रूसी बाजारों को भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के लिए खोलने तथा 2030 तक आर्थिक सहयोग के रणनीतिक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया गया।

 

पुतिन की यह यात्रा भारत और रूस दोनों के नजरिए से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है क्योंकि इसके दूरगामी भू-राजनीतिक निहितार्थ हैं। रूस के लिए यह दौरा इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग नहीं पड़ा है। यद्यपि पश्चिमी देशों ने रूस को अलग-थलग करने का भरपूर प्रयास किया है, फिर भी वे रणनीतिक तौर पर पूरी तरह सफल नहीं हो सके। ग्लोबल साउथ  विशेष तौर पर भारत, चीन और अफ्रीका के अनेक देशों में रूस के प्रति एक विशेष किस्म का आग्रह है। इसके पीछे कारण यह है कि रूस ने लंबे समय तक इन देशों के साथ सहयोग किया है और अब ये देश भी उसके साथ खड़े दिखाई देते हैं। भारत के नजरिए से भी यह यात्रा उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी रूस के दृष्टि से। इसके विपरीत विगत एक दशक में भारत ने अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करने के  गंभीर प्रयास किए हैं। इस दौर में भारत ने पर्याप्त राजनीतिक व कूटनीतिक निवेश किया है परन्तु डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में परिस्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। ट्रम्प के अड़ियलपन की वजह से भारत रणनीतिक तौर पर बैकफुट पर चल गया है।

 

विश्लेषणात्मक तौर पर देखा जाए तो विदित होता है कि अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों में भारत को निर्देश देता रहा है बजाय अपने बराबरी में बैठने के। यह उसके लिए कोई नई बात नही है, क्योंकि इसी तरह का बर्ताव वह यूरोप के अपने  जैसे पुराने सहयोगियों के साथ भी करता रहा है। कदाचित यही कारण है जिसकी वजह से भारत स्वयं को अमेरिका के साथ असहज पा रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति के दुष्प्रचार ने भी भारत को अमेरिका से दूर किया है। अमेरिका की परेशानी ब्रिक्स भी है।  वह नही चाहता कि इस तरह का कोई मंच हो जिससे आने वाले समय में उसकी प्रतिस्पर्धा बढ़े। सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य से भारत इस मंच का हिस्सा है और यही भारत के प्रति अमेरिकी चिंता की असली वजह है। अमेरिका के टैरिफ वार के  चलते भारत का रूस से जुड़ाव समय की माँग है। ऊर्जा के क्षेत्र में रूस का महत्व भारत के लिए निर्णायक बना हुआ है। रियायती रूसी तेल ने पिछले चार वर्षों में भारत की ऊर्जा सुरक्षा को सुदृढ़ किया है और औद्योगिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि को समर्थन दिया है। इसी कारण भारत बाहरी दबावों के बावजूद अपने राष्ट्रीय हितों और रणनीतिक संतुलन से समझौता करने के पक्ष में नहीं दिखता।

 

समग्र रूप से यह यात्रा भारत–रूस संबंधों को भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्परिभाषित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। बदलते वैश्विक शक्ति-संतुलन और बढ़ती भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं के बीच यह स्पष्ट होता है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों, रणनीतिक स्वायत्तता और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थन से पीछे नहीं हटेगा। ऊर्जा, व्यापार, परिवहन गलियारों और आर्थिक सहयोग पर केंद्रित पहलें आने वाले वर्षों में द्विपक्षीय संबंधों को अधिक व्यावहारिक और संस्थागत आधार प्रदान करेंगी। आगे चलकर भारत–रूस साझेदारी केवल ऐतिहासिक मित्रता तक सीमित न रहकरनई वैश्विक वास्तविकताओं के अनुरूप स्थिरता, संतुलन और सहयोग का एक प्रभावी मॉडल बन सकती है।

 

डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

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