शिव और अशिव का संयुक्त रूप है यह सारा जगत। इसके प्रतिनिधि के रूप में आदिकाल से माने जाते रहे हैं, अनादि देवता रूद्र, जिन्हें शिव, शंकर, महादेव, भव, शर्व आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। जहां शिव का विनाशकारी प्रलंयकर रूप उनकी संहार शक्ति का द्योतक है, वहीं मंगलकारी कल्याणकारी के रूप में हम उन्हें शिव के रूप में पाते हैं। सर्वप्रथम ऋग्वेद में रुद्र, शिव के रूप में भी दृष्टिगोचर होते हैं। यजुर्वेद के शत-रुद्रीय अध्याय में शिव के भयंकर एवं मंगलकारी दोनों रुपों का वर्णन है। अथर्ववेद में शिव महेश्वर के रूप में वर्णित है। तैत्तरीय आरण्यक में सारे जगत् को रुद्र रूप कहा गया है। क्यों न हो सारा जगत रुद्र रूप, आज भी सबसे अधिक मन्दिर सारे संसार में शिव के ही पाये जाते हैं। सिन्ध के मोहनजोदड़ों, पंजाब के हड़प्पा, बीकानेर (राजस्थान) जिले का काली बंगा, गुजरात में साबरमती नदी के किनारे लायलपुर आदि स्थलों पर खुदाई करने से एक ही नमूने के जीवन के ढंग के अवशेष मिले हैं, यह वैदिक काल की अथवा इसके पूर्व की सभ्यता के चिन्ह है। एक मुद्रा पर पद्मासनबद्ध मनुष्य की आकृति अंकित है, उसके सिर पर सींग हैं और आसपास पशु हैं। यह आकृति शिव का आदिरूप प्रतीत होता है। शिव के उपासकों का एक प्राचीन मत भी पाशुपत के रूप में शिवपुराण, लिंगपुराण, वामनपुराण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में उल्लेखित हैं, जिसके अनुयायी वर्तमान में गोस्वामी ब्राह्मणों के रूप में शिवोपासना में परम्परा से संलग्न हैं। गोस्वामी संज्ञा के पीछे (गोपति) आदि शब्द जान पड़ते हैं। वेदों में इन्द्र का एक नाम गोपति आया है। गो को पशु एवं पति को स्वामी भी कहते हैं। इस प्रकार शिव को गोस्वामी संज्ञा होने के कारण गोस्वामी ब्राह्मण अपना उद्भव रुद्र, शिव, मनु आदि से मानने में गौरव अनुभव करते हैं। पाशुपत लोग जीव को पशु और शिव को पशुपति कहते हैं। रामानुजाचार्य के समय पाशुपत के अतिरिक्त कापाल, कालमुख आदि शैव सम्प्रदायों के प्रभेद भी पढऩे को मिलते हैं। आजकल शैवों के प्रमुख 5 भेदों का महत्व उल्लेखनीय प्रतीत होता है- सामान्य शैव- ये लोग भस्म धारण करते हैं। भू-प्रतिष्ठित शिवलिंग की अर्चना करते हैं। शिव कथा श्रवण तथा अष्ट विद्या भक्ति पर विश्वास करते हैं। भस्म धारण करना ब्राह्मणों के 5 स्नानों में प्रमुख माना जाता रहा है। (देखिए पद्मपुराणांक कल्याण पृष्ठ 176) महर्षियों ने 5 स्नान बताए हैं- (1) आग्नेय (सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाना), (2) वारुण (जल से स्नान), (3) बाह्य (ऋचाओं द्वारा अभिषिक्त होना), (4) वायव्य (हवा द्वारा गोधूलि देह पर पडऩा) और (5) दिव्य (धूपयुक्त वर्षा की बूंदे मिलना)।
गोस्वामीगण भस्म धारण कर ब्राह्मण धर्म का ही पालन करते हैं। भगवा वस्त्र धारण करने की परम्परा भी गोस्वामियों के ब्राह्मणत्व द्विजत्व का द्योतक है। डॉ. मुनीश्वरानंद गिरि ने महाभारत एवं वाल्मीकि रामायण आदि का प्रमाण देते हुए लिखा है कि काषाय वस्त्र बाबा जी ब्रह्मचारी सन्यासी के लिए ही है, ऐसा नहीं है। द्विज मात्र गृहस्थाश्रम में भी धारण करते थे। ऋषि-मुनि तथा उनकी स्त्रियां भी इसे धारण करती थी।
महर्षि अगस्त्य की पत्नी के कषाय वस्त्र धारण का प्रमाण मिलता है। लोपामुद्रा राजकन्या थी, उसने ऋषि से विवाह होने पर ऋषि वेश बनाने के लिए काषाय वस्त्र धारण किया था।
मिश्र शैव- ये शंकराचार्य के अनुयायी विष्णु, उमा, गणपति, सूर्य, शिव पंचोपासना तथा पीठस्थ लिंग की पूजा करते हैं तथा आदिकालीन गोस्वामियों की दश उपाधि यथा गिरी, पुरी आदि धारणा करते हैं। अनेक मठधारी महन्त गृहस्थ हो जाने के कारण गृहस्थ गोस्वामियों से अधिकांश घुल मिल गए हैं। अत: लोक मानस में तथा स्वयं गृहस्थ गोस्वामियों में भी धारणा पुष्ट हो गई है कि गोस्वामी समाज ब्राह्मणों का गुरु तो है किन्तु ब्राह्मणेतर है। जान पड़ता है यह भ्रान्त धारणा विरक्त महन्तों के प्रभाव एवं शिक्षा के अभाव के कारण मूल से न जुड़ पाने के कारण पनपी है, जबकि ऊँ नमो नारायणाय मंत्र भी दशनामी सन्यासियों की तरह दशनामी गोस्वामी ब्राह्मणों का भी सम्बोधन मंत्र है। पुराणों के अनुशीलन से सिद्ध होता है कि यह मंत्र भी ब्राह्मणों का, ऋषियों का परम मन्त्र रहा है।
कल्याण गोरखपुर के अनुसार- जो श्रेष्ठ मानव ऊँ नमों नारायणाय इस अष्टाक्षर मंत्र का जप करते हैं उनका दर्शन कर ब्राह्मण- घाती भी शुद्ध हो जाता है तथा वे स्वयं भी भगवान विष्णु की भांति तेजस्वी प्रतीत होते हैं। हरिकथा के अनुसार श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्री रामानुजाचार्य के गुरु श्री नाम्बि ने उन्हें ऊँ नमों नारायणाय मन्त्र दिया जिसे उन्होंने गुप्त न रखकर सबको बता दिया। स्नान का महत्व बताते हुए भी पद्मपुराण कहता है कि मन की शुद्धि के लिए सबसे पहले स्नान का विधान है। घर में रखे हुए अथवा ताजा जल से स्नान करना चाहिए। मन्त्र वेत्ता विद्वान पुरुष मूल मन्त्र (ऊँ नमो नारायणाय) से तीर्थ की कल्पना करें।
वीर शैव- यह अपने आपको वीर, नन्दी, भृंगी, वृषभ और स्कन्ध इन पांच गुणों के गोत्र बताते हैं। ये आजीवन शरीर पर लिंग धारण करते हैं। अत: लिंगायत भी कहे जाते हैं।
वसब शैव- यी वीर शैव की सुधारवादी शाखा है।
कापालिक शैव- ये मनुष्य की खोपड़ी लिए रहते हैं। मद्य-मांस आदि का सेवन करते हैं। ये वाममार्गीय कहलाते हैं। आदिकाल से हम वनवासी, आजीवक, मस्करी, पाशुपत, वीर शैव, कापालिक आदि अनेक रूपों में भगवान शिव का पूजन-अर्चन करने वाले शैवों को पाते हैं। शैव ही नहीं, वैष्णव जगत में भी भगवान शिव की वैष्णावानां यथा शंभु: (भागवत) के रूप में स्थान प्राप्त है। वैष्णवों के चार सम्प्रदायों में एक सम्प्रदाय के संस्थापक शिव ही माने गये हैं। पुराणों में, हरि हरयो: भेदों नासिक कहकर शिव और विष्णु की एकरूपता दिखलाई है। मानस में भी गोस्वामी जी ने राम और शिव का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए शैवों तथा वैष्णवों में सामंजस्य स्थापित किया है।