अभियोजक अदालत का अधिकारी, वह केवल दोषसिद्धि सुनिश्चित करने के लिए कार्य नहीं कर सकता: न्यायालय

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नयी दिल्ली, दो दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि अभियोजक अदालत का एक अधिकारी है, जिसका कर्तव्य न्याय के हित में कार्य करना है, न कि केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि सुनिश्चित कराना।

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने हत्या के एक मामले में तीन व्यक्तियों की दोषसिद्धि को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की।

याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 313 का पालन न करने का आरोप लगाया है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का उक्त प्रावधान अदालत को प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त से पूछताछ करने का अधिकार देता है।

पीठ ने कहा, ‘‘हमारे लिए यह देखना भी उतना ही परेशान करने वाला है कि अभियुक्तों को दोषसिद्धि दिलाने की चाहत में अभियोजकों ने इस धारा के तहत अभियुक्तों से पूछताछ करने में अदालत की सहायता करने के अपने कर्तव्य को भी दरकिनार कर दिया।’’

न्यायालय ने कहा,‘‘अभियोजक अदालत का एक अधिकारी है और न्याय के हित में कार्य करना उसका पवित्र कर्तव्य है। वह बचाव पक्ष के वकील के रूप में कार्य नहीं कर सकता, बल्कि राज्य के लिए कार्य करता है, जिसका एकमात्र उद्देश्य अभियुक्त को दंड दिलाना है।’’

शीर्ष अदालत तीन आरोपियों द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें पटना उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी गई थी। पटना उच्च न्यायालय ने हत्या के एक मामले में उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा था।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निष्पक्ष सुनवाई की एक अनिवार्य शर्त यह है कि आरोपी व्यक्तियों को उनके खिलाफ अभियोजन पक्ष के मामले और दावों को खारिज करने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए।

पीठ ने कहा, ‘‘यह पर्याप्त अवसर कई रूप ले सकता है, चाहे वह वकील के माध्यम से पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो या मामले में अपना पक्ष रखने के लिए गवाहों को बुलाने का अवसर हो या अपने खिलाफ लगे प्रत्येक आरोप का स्वयं अपने शब्दों में जवाब देने का अवसर हो। अंतिम अवसर सीआरपीसी की धारा 313 के तहत होता है।’’

उच्चतम न्यायालय ने आरोपियों के बयानों पर गौर करने के बाद कहा कि इससे खेदजनक स्थिति का पता चलता है। यह कानून के मूल सिद्धांतों का पालन करने में न्यायालय की ओर से घोर विफलता है।

पीठ ने कहा, ‘‘तीनों व्यक्तियों द्वारा दिए गए बयान एक-दूसरे के हू ब हू हैं। हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि इस तरह के बयान विद्वान सुनवाई न्यायाधीश के सामने कैसे टिक सकते हैं।’’

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