राम के आदर्श व्यक्त करती है गायत्री रामायण

वाल्मीकि रामायण में 24 हजार श्लोक हैं। एक-एक अक्षर की व्याख्या के रूप में एक-एक हजार श्लोक रचे हैं अथवा यों कहा जा सकता है कि एक-एक हजार श्लोकों के ऊपर गायत्री के एक-एक अक्षर का सम्पुट दिया है। ‘ऊँ भूर्भुव: स्व. तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात।‘ अर्थात् उस प्राण स्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।


24 अक्षरों के आरम्भ वाले 24 श्लोकों को ‘गायत्री रामायण’ कहा जाता है। इन श्लोकों के गर्भ में संकेत रूप में छिपे हुए मर्मो को समझकर उसे हृदयंगम करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण के अध्ययन का लाभ प्राप्त कर सकता है। रामायण गायत्री के 24 अक्षरों से आरंभ होने वाले कुछ श्लोकों की विवेचना प्रस्तुत है-


‘तप: स्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्। नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम्॥‘
अर्थ- तप और स्वाध्याय करने वाले सर्व प्रधान और मुनियों में श्रेष्ठ नारद जी से तपस्वी वाल्मीकि ने पूछा-


इस श्लोक में दो बातों पर प्रकाश डाला गया है। नारद जी को दो पदवी दी गई है और उन पदवियों का कारण भी बताया है। नारद जी को सर्व प्रधान विद्वान और मुनियों में श्रेष्ठ कहा है। सर्व प्रधान विद्वान उन्हें क्यों कहा गया है? क्या नारद जी ने व्यास की तरह अठारह पुराण लिखे थे? या उन्होंने कोई ऐसी विशेषता दिखाई थी जो अन्य विद्वानों में नहीं होती? यदि ऐसा नहीं है तो उन्हें सर्वश्रेष्ठ विद्वान क्यों कहा गया? या फिर वाल्मीकि जी झूठे थे, ने नारद जी की अयुक्तिपूर्ण प्रशंसा की?


इसी श्लोक में वह कारण भी स्पष्टï कर दिया है, जिसके कारण उन्हें सर्वश्रेष्ठ विद्वान बताया गया है। वह कारण है- शास्त्र का चिन्तन। पोथी पढऩे वाले ‘पढ़ाकू’ तो एक से एक बढिय़ा पड़े हैं, जिनकी जिन्दगियां पोथी पढऩे में बीत गईं। हजारों-लाखों पुस्तकें जिन्होंने पढ़ डालीं, क्या ऐसे लोगों को सर्वश्रेष्ठ विद्वान कह दिया जावे? नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पोथी पढऩे का व्यसन किसी की जानकारी को तो बढ़ा सकता है, पर उससे कोई आत्मिक काम नहीं हो सकता। व्यक्ति भले ही शास्त्र को थोड़ा पढ़ता हो पर उसका चिन्तन करता रहे। शास्त्र के अर्थ पर, आदेश पर, मर्म पर, महत्व पर गम्भीरता से मनन करना, अपनी आत्मा का अध्ययन करना, आत्मसात कर लेना यही स्वाध्याय का तथ्य हैं जो इस प्रकार शास्त्र-सेवन करता है, वही विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए नारदजी को विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ कहा। दूसरी पदवी उन्हें मुनियों में श्रेष्ठ की दी गई है, ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर भी साथ ही मौजूद है, वह है- तप। मनन करने वालों को मुनि कहते हैं। ऐसे अनेक हैं, जो सत तत्व का मनन करते है पर इतने मात्र से काम नहीं चलता। नारद जी ने आदर्श के लिए घोर प्रयत्न करने की लगन थी और उस प्रयत्न के लिए बड़े से बड़ा कष्टï सहन कर भ्रमण करते फिरते थे, लोक सेवा के लिए उन्होंने सारा जीवन ही उत्सर्ग कर रखा था।


इस श्लोक में नारद जी को माध्यम बनाकर तप और स्वाध्याय की सर्वश्रेष्ठता का वर्णन किया गया है। गायत्री रामायण का पहला श्लोक हमें तपस्वी और स्वाध्यायशील होने का सदुपदेश देता है।


स हत्वा राक्षसान् सर्वान् यज्ञध्नान् रघुनन्दन:।
ऋषिभि: पूजितस्तत्र यथेन्द्रो विजये पुरा॥


अर्थ- यज्ञ नष्टï करने वाले समस्त राक्षसों को रामचन्द्र जी ने मारा। ऋषियों ने उनकी इसी प्रकार पूजा की, जिस प्रकार पहले असुर विजय करने पर इन्द्र की हुई थी। इस दूसरे श्लोक में तीन तथ्य हैं (1) यज्ञ नष्ट करने वालों को राक्षस मानना, (2) राक्षसों को मारना, (3) राक्षसों को मारने के लिए विवेकशीलों द्वारा प्रोत्साहित किया जाना।


भले कामों में जो लोग बाधा अटकाते हैं, जनता की सुख-शान्ति में विघ्न उपस्थित करते हैं, पुण्य की प्रथा को रोक पाप की प्रणाली चलाते हैं। ऐसे लोक-कण्टक मनुष्य राक्षस हैं, जनता के शत्रु है। ऐसे लोगों के प्रति घृणा के भाव जाग्रत रखना आवश्यक है, अन्यथा वे हमारी उपेक्षा, लापरवाही की मनोवृत्ति देखकर निर्भय हो जाएंगे और दूने उत्साह से अपना काम करेंगे। इसलिए समाज विरोधी देशद्रोही, लोक-कण्टक लोगों पर हमारी तीव्र दृष्टि रहनी आवश्यक है। उनकी करतूतों से सावधान रहें और दूसरों को सावधान करते रहें जिससे वे राक्षसी वृत्तियां निर्भय होकर बढऩे से ठिठकें। ऐसे लोगों के लिए दूसरा उपाय है उनका दमन। जहां व्यक्तिगत रूप से निपट लेने की अनिवार्य आवश्यकता है तथा असाधारण अवसरों पर राज्य द्वारा ऐसे लोगों को दण्ड दिलवाना चाहिए। विदेशी शासन चले जाने पर अब सरकार ही जनता का प्रतिनिधित्व करती है। सरकार द्वारा उन्हें कुचलाना चाहिए। ऋषियों ने राक्षसों को स्वयं नहीं मारा था। विश्वामित्र जी, राम और लक्ष्मण राज पुत्रों को लाये थे और उन्हें धनुष विद्या सिखाकर राक्षसों को मरवाया था। चाहते तो विश्वामित्र भी राक्षसों को मार सकते थे पर प्रजा द्वारा प्रजा को दण्ड दिया जाना उचित न समझकर उन्होंने इसके लिए राज्याश्रय को प्राप्त किया।  हमें भी दुष्टों के दमन के लिए अपनी राज्य-शक्ति का ही प्रयोग करना चाहिए। तीसरी बात यह है कि ऋषियों द्वारा राज्य शक्ति का समर्थन। दुष्टों से लडऩे वाली शक्तियों के साथ हमारी पूरी सहानुभूति होनी चाहिए। यह हो सकता है कि हमें किसी से किसी कारणवश विरोध हो, कोई असंतोष या द्वेष हो पर जब राक्षसत्व के दमन का अवसर आए तो उस विरोधी का भी पूरा-पूरा समर्थन और सहयोग करके असुरत्व को परास्त करना चाहिए। सैद्धान्तिक या व्यक्तिगत विरोध का ऐसे अवसरों पर जरा भी ध्यान नहीं करना चाहिए। वीर-पूजा की प्रथा प्राचीन है। इन्द्र आदि की भी पूजा उनके असुर-विजय के कारण होती रही है। विघ्नों से, कण्टकों से और असुरता के साथ जो लड़ते हैं, वे हमारी प्रशंसा, प्रोत्साहन एवं सहयोग के अधिकारी हैं।


‘विश्वामित्र: सरामस्तु श्रुत्वा जनक-भाषितम्।
वत्स राम धनु: पश्य इति राघवमब्रवीत्॥‘


अर्थ- राम के साथ विश्वामित्र ने जनक की बातें सुनीं और रामचन्द्र से कहा। वत्स! धनुष को देखो। इस कठिन काम को अनेक लोग पूरा नहीं कर सके, इसलिए यह मुझसे भी पूरा नहीं होगा, इस प्रकार के डर से अनेक सुयोग्य व्यक्ति अपनी प्रतिभा को कुण्ठित कर लेते है, और हीनता की ग्रंथि से प्रभावित हो जाते हैं। ऐसा होना उचित नहीं है। कई बार ऐसा देखा गया है कि जो कार्य बड़े लोगों के लिए कठिन था, वह छोटों ने पूरा कर दिखाया। जनक का धनुष ‘भूप सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरहिन टारा, के अनुसार बड़ा भारी कार्य था। विश्वामित्र जानते थे कि वह झिझक राम को भी आ सकती है और डर जाएं, तो आधा काम विफल हो सकता है। इसलिए उन्होंने उत्साह प्रदान करते हुए कहा- ‘वत्स राम! इस धनुष को देखो।‘ जो कठिनाइयां हमारे सामने आती हैं, उनकी कल्पना बड़ी डरावनी होती है। ऐसा मालूम होता है कि वह विपत्ति न जाने हमारा क्या कर डालेगी परन्तु जब मनुष्य साहस बांधकर उसका मुकाबला करने खड़ा हो जाता है तो विघ्न ऐसे सरल हो जाते हैं जैसे कि राम के लिए धनुष सरल हो गया था।  कठिनाईयों को देखकर हमें झिझकना, डरना या घबराना नहीं चाहिए वरन् दृढ़तापूर्वक उनको हल करने के लिए अग्रसर होना चाहिए। यही उक्त श्लोक का तात्पर्य है।


निरीक्ष्य स मुहूर्त तु ददर्श भरतो गुरूम्।
उटजे राममासीन जटामण्डलधारिणम्॥


अर्थ- भरत ने उसी क्षण जटाधारी राम को उस कुटीर में बैठा देखा।
ईश्वर का ऐश्वर्य बड़े वैभवशाली भवनों, खजानों और भण्डारों में मौजूद है। वैभव वाला ईश्वर प्रत्येक वैभववान पदार्थ में हमें झिलमिलाता हुआ दिखाई पड़ता है परन्तु यदि ईश्वर के सतोगुणी स्वरूप का, ब्रह्म का, जटाधारी त्याग मूर्ति राम का दर्शन करना हो तो वह कुटीर में ही मिलेगा।


कुटिया सादगी, अपरिग्रह एवं त्यागवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है। जहां यह गुण हैं, वहां जटाधारी राम, सतशक्तियों से आच्छादित ब्रह्म के दर्शन हो सकते हैं। यहां दर्शन उन्हें होंगे जो भरत के समान निर्मल एवं सरल अन्त:करण वाले हैं। इस श्लोक में ईश्वर की श्रेष्ठ झांकी किस प्रकार हो सकती है, इस गुत्थी को सुलझाते हुए कुटिया जटाधारी राम और भरत इन तीनों तत्वों का उल्लेख किया है। विवेकवान व्यक्ति अपने दृष्टिïकोण को भरत-सा अपने अन्त:करण को सरलतामयी कुटिया-सा बना ले, तब उसे जटाधारी राम के दर्शन होंगे। मुकुटधारी राम तो अन्यत्र भी देखे जा सकते हैं, उनकी झांकी तो अयोध्या के महलों में भी होती थी पर जटाधारी राम का घर तो कुटिया ही है।


‘यदि बुद्धि: कृता द्रष्टुमगस्त्यं तं महामनिम।
अद्यैव गमने बुद्धिं रोचयस्व महामते॥‘


अर्थ- हे महामति! यदि तुमको अगस्त्य के दर्शन की इच्छा है तो आज ही जाने की सोचो।
अगस्त्य कहते हैं कल्याण को। जो महामति कल्याण के दर्शन करना चाहता है, आत्म साक्षात्कार करना चाहता है अर्थात्ï किसी भी प्रकार की भौतिक मानसिक सफलता चाहता है तो उसे चाहिये कि उद्देश्य की पूर्ति के लिए आज से ही प्रयत्न करे। कल के लिये टालते रहने से कोई बात पूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि कल कभी आता नहीं। वर्तमान, सबसे मूल्यवान समय है जो बीत चुका वह वापस नहीं आ सकता, उसके लिये चिन्ता, शोक करने से कुछ लाभ नहीं। जीवन की बहुमूल्य पूंजी वे घडिय़ां हैं जिन्हें वर्तमान कहते हैं। समय का सदुपयोग यही है कि वर्तमान की एक-एक घड़ी का सदुपयोग किया जाय। जो करना अभीष्टï है, उसके लिये विलम्ब न लगाकर समय को बर्बाद न करके वर्तमान में ही उसके लिए प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिये, यही इस श्लोक का आशय है।


‘गच्छ शीघ्रमितो वीर सुग्रीवं तं महाबलम्।
वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाउद्य राघव।‘


अर्थ- हे राघव! तुम यहां से शीघ्र महाबली सुग्रीव के पास जाओ और आज ही उसे अपना मित्र बनाओ। बलवान को अपना मित्र बनाने में देर न करने की शिक्षा यहां दी गई है। लोक व्यवहार के लिये बल का, बलवान का सहारा एक बड़ी चीज है। उससे बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का हल होता है और उन्नति के अनेक द्वार खुल जाते हैं उसकी समीपता से (मैत्री से) अपनी बल वृद्धि होना स्वाभाविक है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही बात है, जीवात्मा अपने से बलवान दैवीय शक्तियों से मैत्री स्थापित करके दैवी लाभों को प्राप्त करता है, जिसे जिस क्षेत्र में लाभान्वित होना हो, उसे उसी क्षेत्र में अपने से बलवान शक्तियों के साथ शीघ्र ही मैत्री स्थापित करनी चाहिये।


‘यस्य विक्रमामसाद्य राक्षसा निधंन गता:।
तं मन्ये राघवं वीरं नारायणमनामयम्॥‘


अर्थ- जिसके पराक्रम से राक्षसों की मृत्यु हुई उस अनामय वीर राम को धन्य है। उस वीर पुरुष का पराक्रम धन्य है, जो स्वयं निष्पाप रहता है और कषाय कल्मषों को मार भगाता है। स्वार्थ के लिये बहुत लोग पराक्रम दिखाते हैं। पराक्रम करने के लोभ से अहंकारग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा तो साधारण व्यक्तियों में भी देखा जाता है, पर धन्य वे हैं जो अपने पराक्रम का उपयोग केवल असुरत्व विनाश के लिये करते हैं और उस पराक्रम का तनिक भी दुरुपयोग न करके अपने को जरा भी पाप-पंक में गिरने नहीं देते। पराक्रम और वीरता की यही श्रेष्ठता है।


‘यामेव रात्रिं शत्रुघ्न: पर्णशाला समाविशत्।
तामेव रात्रिं सीतापि प्रासूत दारकद्वयम्॥‘


अर्थ- जिस रात्रि में शत्रुघ्न, वाल्मीकि आश्रम की पर्णशाला में गये उसी रात्रि में सीता ने दो पुत्रों को उत्पन्न किया। जिस दिन शत्रु का नाश करने वाला प्रेम लोभ के महलों को छोड़कर ऋषि भावना की प्रतीक त्यागरूपी पर्णशाला में पहुंचाता है, उसी में आत्मा रूपी सीता दो पुत्र उत्पन्न करती है (1) लव अर्थात्ï ज्ञान, (2) कुश अर्थात्ï कर्म। नि:स्वार्थ, निर्मल प्रेम जब संसार भर में शत्रुता का भाव हटा देता है, सबको अपना समझकर सबके लिये सद्भाव धारण कर देता है तो उसका स्वाभाविक फलितार्थ यह होता है कि वह व्यक्ति भोग और संग्रह की वासनायें त्यागकर संयम और त्याग की नीति अपना लेता है। यही शत्रुघ्न का वाल्मीकि जी की पर्णशाला में पहुंचने का आशय है। ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर आत्मा में सद्ज्ञान का प्रकाश होता है और वह सत्कार्य में प्रवृत्त रहती है। यही सीता का दो पुत्र प्रसव करना है। यही आत्मोन्नति की दो परम सिद्धावस्थाएं हैं।  गायत्री रामायण के पिछले 2, 3 श्लोकों में धर्म, नीति, समाज, स्वास्थ्य आध्यात्म आदि के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, रास्ता दिखाया गया है। इस अंतिम श्लोक में यह बता दिया गया है कि उन पर आचरण करने से अन्तिम स्थिति में क्या परिणाम उपस्थित होता है? अन्त में सीता के दो पुत्र उत्पन्न होते हैं, आत्मा की गोदी, सद्ज्ञान और सत्कर्म रूपी दो पुत्रों से भर जाती है। इन पुत्रों को पाकर सीता सब कष्टो को भूल गई थी।  आत्मा तपश्चर्या के सारे कायक्लेशों का विस्मरण करके इन दो दिव्य-पुत्रों के आनन्द से आच्छादित हो जाती है, फिर उन पुत्रों के आनन्द का ठिकाना नहीं रहता। सद्ज्ञान और सत्कर्म जिसे प्राप्त होते हैं, उसके दोनों हाथों में लड्डू हैं। उसके आनन्द की सीमा कौन निर्धारित कर सकता है। यह परमानन्द ही गायत्री की सिद्धि है। इन श्लोकों में महर्षि वाल्मीकि ने अपने अनुभव और ज्ञान का निचोड़ कर दिया है। उपर्युक्त पंक्तियों में उस रहस्य की ओर अंगुली-निर्देश मात्र हुआ है। विज्ञ विचारक इन 24 सूत्रों में छिपे रहस्यों पर स्वतंत्र चिन्तन करेंगे तो उन्हें बड़े-बड़े अद्भुत ज्ञान-रत्न इनमें छिपे हुए मिलेंगे।