ये हाईटेक बच्चे

0
UN0120467.JPG

एक जमाना था, जब छात्र मां की दी हुई खाने की पोटली लेकर कोसों दूर साइकिल पर या पैदल पढऩे के लिए जाते थे। लड़कियों में पढ़ाई का इतना क्रेज नहीं था। सिर्फ शहर की इनी-गिनी लड़कियां ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे पढ़ाई का स्तर बढ़ता गया। अस्सी के दशक में एक ऐसा समय आया कि लड़के व लड़कियां पढ़ाई के स्तर को बराबरी से छूने लगे।
आज हाईटेक जमाना आ गया है। शिक्षा की ओर बढ़ते-बढ़ते लड़कियां व लड़के दोनों बहुत कुछ चाहने लगे हैं। वे डॉक्टर, इंजीनियर, फिलॉस्फर, साइंटिस्ट, प्रोफेसर और भी बहुत कुछ बनने का इरादा रखतेे हंै। कम्प्यूटर का आना इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है और बच्चों के सामने इतनी सारी राहों को देखकर, माता-पिता भी उनको चलने का मौका देने लगे हैं।
आजकल प्राइमरी शिक्षा भी इतनी महंगी हो गई है कि अच्छे-अच्छे अभिभावकों की कमर तोड़ रही है तो फिर उत्तरोत्तर उच्च शिक्षा कितनी महंगी हो गई है, इसका अनुमान ही काफी है। माता-पिता घर-आंगन बेचकर, खेत-खलिहान बेचकर, बहुत कुछ गिरवी रखकर बच्चों को पढ़ाना ज्यादा प्राथमिक समझने लगे हैं। उनके पास दूसरा विकल्प भी नहीं है। वे समझने लगे हैं कि बच्चों का जीवन संवार-सुधार दिया जाए।
आजकल स्कूल-कॉलेज जाकर पढऩा, लाइब्ररी में समय बिताना, प्राथमिक नहीं रहा, प्राथमिक रहा तो उच्चतर शिक्षा के अर्जन में सभी सुख-सुविधाओं को पाना। आजकल ऐसा कोई बच्चा नहीं है, जो कोचिंग का मतलब न जानता हो। स्कूल से कोचिंग, कोचिंग से स्कूल यही प्राथमिक दिनचर्या बन गई है। घर में जितनी देर बच्चे रहते हंै या तो टीवी देखकर समय बिताते हैं या कम्प्यूटर पर। फेसबुक पलटते रहते हैं या किसी वेबसाइट को पकड़ते हैं।
माता-पिता उसकी भी व्यवस्था कर देते हैं। ज्यादा किराया देकर बड़ा मकान किराये पर ले लेते हैं, दोनों मिलकर पसीना बहाते हैं, फिर भी आमदनी कम पड़ जाती है। अनुचित कमाई भी अब अपराधबोध नहीं लगती। जरूरत बन जाती है।
यहां तक तो ठीक है, माता-पिता बच्चों के लिए सब कुछ करते हंै, कंगाल होने से लेकर कानून हाथों में लेने तक सब कुछ करते हंै, मगर अब सवाल यह उठता है कि बच्चे माता-पिता को लेकर कहां तक विचार करते हैं? कहां तक उनके साथ न्याय करते हैं। यह सबसे प्रभावी प्रश्न है।
माता-पिता को सही मायने में समझने वाले छात्रों की संख्या सिर्फ पांच प्रतिशत है। प्राय: छात्र, छात्र जीवन में ही शेखी बघारने लगते हैं।
आजकल छात्रों का हाईटेक क्रेेज पांचवीं-छठी कक्षा से देखा जा सकता है। स्कूल जाते हैं तो सिर्फ यूनीफार्म पहनकर, बाकी समय फैशन करना उनके लिए बहुत जरूरी हो जाता है। अब वे फुटपाथ पर रुकना नहीं चाहते, सीधे शहर की सबसे नामी-गिरामी दुकानों में पहुंचते हैं और सबसे महंगा डे्रस पसंद करते हैं। ब्यूटीपार्लरों के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वालों में सिर्फ लड़कियां ही नहीं, लड़के भी हंै। घंटों बारी का इंतजार करते हैं। फैशियल, फाउण्डेशन, कॉस्मेटिक आदि का शौक आसमान पर पहुंच चुका है।
कॉलज में आ गए तो मानो एक अच्छी जिंदगी पा गए। आधा सफल हो चुके हैं। थोड़ी-सी सफलता बाकी है और उनकी सफलता के रास्ते में माता-पिता को ही कुर्बानियां देनी पड़ रही हैं।
कॉलेज में पहली मांग है महंगे-महंगे कपड़े। ऊंची दुकानों में दो-ढाई हजार रुपए से नीचे कोई डे्रस मिलती नहीं। और एक-दो जोड़ी कपड़ों से काम नहीं चलता। एक ही डे्रस का बार-बार पहनना उनकी शान के विरुद्ध है। वैसे ही महंगे-महंगे कॉस्मेटिक। इतना होता है तो  फिर छात्रों को बाइक चाहिए और छात्राओं को स्कूटर।
हर रोज छोटी-मोटी पार्टियों की गेदरिंग्स अटेंड करना बहुत जरूरी है। एक छोटा-सा जन्मदिन भी छात्र बड़े होटलों में मनाते हैं। कम से कम एक ऐसे रेस्तरां में जहां दो-तीन हजार रुपए आसानी से चले जाएंगे। पार्टी है तो गिफ्ट की चिकल्लस भी आ पड़ती है।  कम से कम पांच सौ रुपए तो लगाने ही पड़ेंगे अन्यथा अपने ही सहपाठियों के बीच इज्जत चली जाएगी। बड़ी पार्टियों का कहना ही क्या है? देर रात तक पार्टी में रहना भी उन्हें अच्छा लगता है। पेयर बनाकर घूमना फैशन का और एक रंग है। कॉलेज में ही अंगुली पकड़ ली, कॉलेज से निकलने के बाद नौकरी लग गई तो हाथ थाम लिया, नहीं तो कोई सवाल नहीं उठता। लाइफ को एंज्वाय तो किया है।
आज छात्र-छात्राओं के लगभग 75 फीसदी माता-पिता ऋण तलेे दबे हैं। उनमें से 30 प्रतिशत पूरी तरह डूबने की कगार पर हैं। वे बेसब्री से राह देखते हैं कि बच्चे जल्द से जल्द कुछ बन जाएं, जब बन जाएं तो बात बने और इस हाईटेक जमाने में प्रतिभाओं से टक्कर लेना भी कोई आसान बात नहीं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *