न्यायिक व्यवस्था साल में पांच महीने छुट्टी पर होती है, फिर पांच करोड़ मुकदमों के लंबित होने की बात करती है। सवाल यह है कि किसकी वजह से अदालतों में पांच करोड़ मुकदमे फैसले का इंतजार कर रहे हैं। कोई सरकारी विभाग होता तो हमारे जज महोदय उसके अधिकारियों को आदेश जारी कर देते कि सारा काम एक साल के अंदर निपटाओ अन्यथा तुम्हारे खिलाफ कार्यवाही की जाएगी । पांच करोड़ मुकदमों के लंबित होने की जिम्मेदारी न्यायिक व्यवस्था लेने को तैयार नहीं है। अजीब बात है कि सुप्रीम कोर्ट सबको अपना काम न करने पर फटकार लगाता रहता है लेकिन खुद अपना काम नहीं कर पा रहा है। सच तो यह है कि आज सुप्रीम कोर्ट वो काम भी कर रहा है जो उसके दायरे में नहीं आते लेकिन वो काम नहीं कर रहा है जिसके लिए उसे संविधान ने बनाया है । सवाल यही है कि अगर न्यायपालिका अपना काम नहीं कर पा रही है तो क्या इसके लिए विधायिका और कार्यपालिका को दोषी ठहरा दिया जाए क्योंकि न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहराने की शक्ति किसी के पास नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई कई बार ये बयान दे चुके हैं कि देश संविधान से चलेगा । सवाल यह है कि उन्हें ऐसा बोलने की जरूरत क्यों पड़ रही है। क्या देश संविधान से नहीं चल रहा है। अगर सरकार संविधान के खिलाफ जाती है तो कितने ही लोग याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाते हैं । आज सरकार के हर फैसले और कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा रही है। अजीब बात है कि जिस मामले पर सुप्रीम कोर्ट फैसला दे देता है, वही मामला फिर दोबारा उसके पास पहुंच जाता है। इससे भी अजीब बात यह है कि जिस सुप्रीम कोर्ट के पास 80000 मुकदमे लंबित पड़े हैं, वो दोबारा फिर उस मामले की सुनवाई शुरू कर देता है। एसआईआर पर एक बार सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर चुका है लेकिन एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई करने वाला है।
दूसरी बात यह है कि कानून बनाना विधायिका का काम है तो हर कानून की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट क्यों करता है । किसी भी कानून की समीक्षा तभी की जानी चाहिए, जब वो संविधान के खिलाफ हो या उसका निर्माण उचित संवैधानिक प्रक्रिया के बिना किया गया हो। संविधान से देश चलने की बात कहने वाले सुप्रीम कोर्ट को बताना चाहिए कि कानून बनाने या उसे बदलने का अधिकार उसे किसने दिया है। उसे बताना चाहिए कि संविधान में कॉलेजियम सिस्टम कहां पर है जिसमें जज ही जज को चुन रहे हैं। ऐसा क्यों है कि गरीब आदमी न्याय पाने के लिए अदालत जाने से डरता है।
थोड़े-थोड़े अंतराल पर सुप्रीम कोर्ट सरकार को निर्देश देता रहता है कि वो कैसे काम करे या न करे । अब प्रधानमंत्री मोदी ने सुप्रीम कोर्ट और पूरी न्याय व्यवस्था को आईना दिखाने की कोशिश की है। शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में पीएम मोदी ने ‘कानूनी सहायता तंत्र की मजबूती’ से सम्बन्धित राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन किया । उन्होंने इस अवसर पर उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों, न्यायाधीशों और कानूनी सेवा प्राधिकरणों के प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया । उन्होंने कहा कि जब न्याय सभी के लिए सुलभ होता है, समय पर मिलता है, और हर व्यक्ति तक पहुंचता है, चाहे उसकी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो. तभी यह सही मायने में सामाजिक न्याय की नींव बनता है । उन्होंने कहा कि कानून की भाषा इतनी आसान होनी चाहिए कि आम लोग उसे समझ सकें ।
ऐसे ही एक अवसर पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु जी ने एक सम्मेलन में सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायाधीशों की मौजूदगी में कहा था कि इस देश में अमीर आदमी कत्ल करके भी आजाद घूमता है लेकिन गरीब आदमी एक थप्पड़ मारने के जुर्म में सालों तक जेल में सड़ता रहता है । उन्होंने कहा था कि मुकदमा लड़ने में गरीब आदमी के बर्तन तक बिक जाते हैं, इसलिए वो अदालत जाने से डरता है । उन्होंने न्यायाधीशों की ओर इशारा करते हुए कहा था कि आप लोग कुछ करिये । मोदी जी ने भी उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के समक्ष वही सब कहा है लेकिन थोड़ा अलग तरीके से कहा है । मोदी जी ने कहा है कि सरकार ने गरीबों और वंचितों को न्याय दिलाने के लिए लीगल एंड डिफेंस सिस्टम शुरू किया है जिससे उन्हें मुफ्त कानूनी सहायता मिल रही है । अगर न्याय हर व्यक्ति तक पहुंचेगा, तभी सच्चा सामाजिक न्याय हो सकता है । यह राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण का कार्यक्रम था जिसकी स्थापना 1995 में की गई थी । उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इसके प्रमुख होते हैं । हर राज्य में भी राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण बनाया गया है । यह लोक अदालतों का आयोजन करता है ।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 39(ए) कहता है कि हर व्यक्ति को समान अवसर के साथ न्याय मिलना चाहिए और कोई भी व्यक्ति आर्थिक कमजोरी या अन्य कारणों से न्याय पाने से वंचित न रहे । अनुच्छेद 14 और 22(1) भी यह कहते हैं कि सभी नागरिक कानून के सामने समान हों और सबको न्याय पाने का समान अवसर मिले । इस कार्यक्रम में मौजूद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस विक्रमनाथ ने कहा कि भारत की जेलों में 70 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं जिन्हें कोर्ट ने अभी तक दोषी नहीं ठहराया है । उन्होंने कहा कि यह स्थिति बहुत गंभीर है और इसके लिए कानूनी सहायता और विचाराधीन कैदियों की हिरासत की प्रक्रिया में तुरंत सुधार की जरूरत है । इसके अलावा एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था, “कई लोग इसलिए जेल में हैं क्योंकि व्यवस्था से उन्हें न्याय नहीं मिला । कुछ कैदी उस अपराध की अधिकतम सजा से भी ज्यादा समय तक जेल में काट चुके हैं जबकि उनका मुकदमा अभी तक पूरा नहीं हुआ है । कुछ लोग इसलिए जेल में हैं, क्योंकि वे जमानत नहीं ले पाए । कई लोगों की समय पर सुनवाई होती तो वे आजाद हो सकते थे, लेकिन वे अब भी जेल में बंद हैं ।”
एक तरह से देखा जाए तो जो बात पहले राष्ट्रपति महोदया ने कही थी, वही बात अब मोदी जी ने कही है । यही बात जस्टिस विक्रम नाथ जी बोल रहे हैं । उनकी यह बात बहुत गंभीर है कि 70 प्रतिशत कैदी बिना आरोपों के साबित हुए जेल में बंद हैं । उनका यह कहना कि कई लोग इसलिए जेल में बंद हैं क्योंकि उन्हें न्याय नहीं मिला है । अब न्याय देने का काम तो न्यायपालिका का है और एक न्यायाधीश ही यह बोल रहे हैं कि न्याय नहीं मिल रहा है । उनका यह कथन न्यायपालिका की सबसे बड़ी असफलता की ओर इशारा करता है कि कई कैदी उस अपराध की अधिकतम सजा से भी ज्यादा जेल में बिता चुके हैं । सवाल यह है कि अगर किसी अपराध में पांच साल की सजा है और आरोपी पांच साल से ज्यादा समय से जेल में बंद है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है । अगर वो सच में दोषी है तो उसकी सजा पूरी हो चुकी है । सजा पूरी होने के बावजूद जेल में बंद होना क्या अन्याय नहीं है । इसके अलावा सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो व्यक्ति पांच साल से जेल में बंद है, लेकिन बाद में वो निर्दोष साबित हो जाता है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा ।
इस कार्यक्रम में सीजेआई गवई जी ने कहा कि न्याय कुछ लोगों का विशेषाधिकार नहीं बल्कि हर नागरिक का अधिकार है । उन्होंने कहा कि सफलता का असली पैमाना आंकड़े नहीं बल्कि आम आदमी का भरोसा है । जहां तक भरोसे की बात है, न्यायाधीशों को चुनाव नहीं लड़ना पड़ता, इसलिए वो नहीं जान सकते कि जनता का उसमें कितना भरोसा है । देश की जनता क्या सोच रही है, इसे समझना है तो सोशल मीडिया को देखना चाहिए, जहां लोग अपने दिल की बात रखते हैं। न्यायिक व्यवस्था के बारे में जनता की क्या राय है, ये सुप्रीम कोर्ट को जानना चाहिए, उन्हें पता चल जाएगा कि देश की जनता सबसे ज्यादा निराश न्यायपालिका से ही है। उसे विधायिका और कार्यपालिका से बहुत उम्मीदें हैं लेकिन न्यायपालिका से वो उम्मीद छोड़ चुकी है । आम आदमी के लिए न्यायपालिका आखिरी दरवाजा है, इसलिए कुछ भरोसा कायम है । वास्तविकता यह है कि न्याय पाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है । मोदी जी ने कहा है कि न्याय सभी को मिलना चाहिए और समय पर मिलना चाहिए । जब पांच करोड़ मुकदमे फैसले का इंतजार कर रहे हैं तो समय पर न्याय कैसे मिलेगा ।
कई न्यायाधीश यह कह चुके हैं कि देर से न्याय मिलना, अन्याय के समान है । जिन लोगों के मामले बीस साल से भी ज्यादा समय से अदालतों में फैसले का इंतजार कर रहे हैं, उन्हें न्याय मिल भी गया तो उनके किस काम आएगा । पीएम चाहते हैं कि न्याय सबके लिए सुलभ हो लेकिन महंगी न्याय व्यवस्था सबके लिए सुलभ कैसे हो सकती है । कानून की नजर में सब बराबर हैं लेकिन यह सिर्फ कहने की बात है. वास्तविकता हम सब जानते हैं । एक व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में तारीख पाने के लिए सालों तक इंतजार करता है तो दूसरा एक ही दिन में सुनवाई करवा लेता है । कोई अपने अपराध की अधिकतम सजा पाने के बाद भी जेल में बंद है, तो दूसरा गंभीर अपराध करके भी जमानत पर आजाद घूम रहा है । कुछ लोगों के लिए रात को भी अदालत बैठ जाती है तो कुछ लोग जेलों में सड़ते हैं लेकिन उन्हें तारीख नहीं मिलती । न्यायपालिका को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है कि क्या वो न्याय दे पा रही है और जनता में उससे न्याय की उम्मीद बची है । न्यायपालिका को दूसरों को नसीहत देना बंद करके खुद में सुधार करने की ज्यादा जरूरत है ।
राजेश कुमार पासी
