शिक्षा भविष्य की बुनियाद लेकिन हिल रही नींव

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राजेश जैन


हमारे बच्चे और युवा देश का भविष्य हैं और शिक्षा उन्हें दिशा देती है। दूसरी ओर स्कूल और कॉलेज में सीखने-सीखने का उद्देश्य कमजोर पड़ता नजर आ रहा  है। आज जब दुनिया आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और डेटा साइंस की क्रांति के दौर में है, तब भी हमारा शिक्षण मॉडल 20वीं सदी की जरूरतों पर टिका हुआ है। यही कारण है कि हम ‘ज्ञानवान भारत’ का सपना देखते हुए भी ‘नौकरी ढूंढते भारत’ में बदल गए हैं। आइए, शिक्षा की प्रमुख चुनौतियों को गहराई से समझते हैं और साथ ही देखते हैं कि उनसे निकलने के रास्ते क्या हो सकते हैं।

 

सरकार की प्राथमिकता में नहीं है शिक्षा

सरकारी वादे के मुताबिक शिक्षा पर जीडीपी का 6% खर्च होना चाहिए था, पर हकीकत में यह 3% के आसपास ही सिमटा है। इतना ही नहीं, शिक्षा बजट का बड़ा हिस्सा वेतन और प्रशासनिक खर्चों में चला जाता है, जबकि स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रयोगशालाओं, डिजिटल उपकरणों या शिक्षक प्रशिक्षण पर बहुत कम खर्च होता है। इससे ग्रामीण स्कूलों में बच्चों के पास न बेंच हैं, न लैब। विश्वविद्यालयों में शोध के लिए उपकरणों की कमी है। इससे निपटने के लिए शिक्षा को खर्च नहीं, निवेश माना जाए। केंद्र और राज्य दोनों को शिक्षा बजट में क्रमिक बढ़ोतरी का दीर्घकालिक रोडमैप बनाना चाहिए।

 

बच्चों को सिखा रहे बीते जमाने की बातें

देश के अधिकांश स्कूलों और विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम दशकों पुराना है। आज भी कई किताबों में वही उदाहरण हैं जो हमारे दादा-पिता के जमाने में थे।

नई तकनीक, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, पर्यावरण परिवर्तन, साइबर सुरक्षा या डिजिटल अर्थव्यवस्था जैसे विषय अब भी “अतिरिक्त पठन सामग्री” माने जाते हैं। इससे हमारे बच्चे परीक्षा पास करने लायक तो बनते हैं, पर जीवन और काम की चुनौतियों के लिए तैयार नहीं हो पाते। इससे पार पाने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर हर 3–5 साल में पाठ्यक्रम की समीक्षा अनिवार्य की जानी चाहिए। पाठ्यक्रम अपडेट करने की प्रक्रिया में उद्योग जगत, शिक्षाविद और तकनीकी विशेषज्ञों को शामिल किया जाए। आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और पर्यावरण अध्ययन जैसे विषय कक्षा 6 से ही लागू किए जाएं।

 

अमीर और गरीब बच्चों के लिए अलग-अलग शिक्षा    

आज शिक्षा भी वर्गों में बंट गई है। एक तरफ स्मार्ट क्लासरूम, रोबोटिक्स और इंटरनेशनल बोर्ड हैं, तो दूसरी तरफ ब्लैकबोर्ड तक नहीं। यह असमानता ही सामाजिक असमानता में बदलती है। इससे निपटने के लिए सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता सुधार पर फोकस किया जाए। सीएसआर फंड और ‘एडॉप्ट-ए-स्कूल’ अभियान को मजबूत बनाया जाए। डिजिटल डिवाइड खत्म करने के लिए हर गांव में कॉमन डिजिटल लर्निंग सेंटर बनाने की जरूरत है।

 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव

हमारे स्कूलों में विज्ञान तो पढ़ाया जाता है, लेकिन वैज्ञानिक सोच नहीं सिखाई जाती। नतीजतन, समाज में अंधविश्वास, भ्रांतियां और छद्मविज्ञान की जड़ें गहरी हो रही हैं। आज भी लोग इलाज की बजाय ताबीज़ ढूंढते हैं, और सोशल मीडिया पर फैलने वाले अफवाहों को बिना जांचे मान लेते हैं। इससे निपटने के लिए हर स्तर पर साइंटिफिक टेम्परामेंट को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। बच्चों में तर्कशीलता, प्रश्न पूछने और प्रमाण खोजने की आदत डाली जाए। साइंस फेस्टिवल, इनोवेशन फेयर और क्विज़ जैसे कार्यक्रमों को सामाजिक स्तर पर बढ़ावा देने की जरूरत है।

 

रटने की परंपरा से रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच की कमी

हमारा सिलेबस और परीक्षा दोनों ही सही जवाब खोजने पर केंद्रित हैं, सही सवाल पूछने पर नहीं। शिक्षा व्यवस्था अंक-केंद्रित है। इससे बच्चे 100 में 100 लाने के लिए रटते हैं। सोचने की प्रक्रिया कुंद हो रही है। ऐसे में जब वास्तविक जीवन में समस्या आती है, तो वे हल निकालने में असहाय दिखते हैं। यही कारण है कि देश में इनोवेशन और पेटेंट की दर कम है। इससे निपटने के लिए शिक्षण पद्धति को इंक्वायरी-बेस्ड और एक्टिव लर्निंग मॉडल पर आधारित करना होगा।

फिनलैंड और सिंगापुर जैसे देशों से सीख लेकर प्रोजेक्ट-बेस्ड शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए। स्कूलों में थिंकिंग लैब्स शुरू की जा सकती हैं, जहां बच्चे वास्तविक समस्याओं के समाधान खोजें। कला, संगीत, डिजाइन और इनोवेशन को मुख्यधारा में लाया जाए। परीक्षाओं में रट्टा-आधारित सवालों की जगह ओपन-एंडेड प्रश्न शामिल हों। ‘इनोवेशन फेलोशिप’ जैसी योजनाओं से बच्चों को प्रयोग करने की आज़ादी मिले।

 

शिक्षकों का सम्मान और प्रशिक्षण की कमी

भारत में शिक्षक ‘गुरु’ कहलाते हैं, लेकिन व्यवहार में उनका सम्मान घटता जा रहा है। प्रशासनिक दबाव, रिज़ल्ट का बोझ और सीमित संसाधन उन्हें थका चुके हैं। कई जगहों पर शिक्षक खुद नई तकनीक से अनजान हैं। ऐसे में हर शिक्षक को साल में कम से कम दो बार अपस्किलिंग ट्रेनिंग देने की जरूरत है।

नेशनल टीचर फेलोशिप प्रोग्राम जैसी पहल से उन्हें रिसर्च और ट्रेनिंग का अवसर दिया जाए। मीडिया और समाज को भी शिक्षक के योगदान को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।

 

डिग्री है, दिशा नहीं

आज लाखों युवाओं के पास डिग्रियां हैं, लेकिन रोजगार नहीं। क्योंकि कॉलेजों में पढ़ाई अर्थव्यवस्था की जरूरतों से मेल नहीं खाती। दुनिया डेटा साइंस, एआई और साइबर सिक्योरिटी की बात कर रही है, जबकि हमारे कॉलेज अब भी एमएस वर्ड और एक्सेल सिखाने में लगे हैं। जरूरत है कि सेवा और उद्योग जगत के साथ कोर्स को-डेवलपमेंट की व्यवस्था बने। इंटरर्नशिप और अप्रेंटिसशिप को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए। हर विश्वविद्यालय में स्किल-डेवलपमेंट सेल स्थापित किया जाए।

 

टेक्नोलॉजी का सीमित और असंतुलित इस्तेमाल

कोविड महामारी के दौरान ऑनलाइन शिक्षा ने यह साबित किया कि तकनीक शिक्षा को लोकतांत्रिक बना सकती है। लेकिन समस्या यह है कि यह पहुंच केवल शहरों तक सीमित रह गई। गांवों में नेटवर्क, बिजली और उपकरणों की कमी से बच्चे शिक्षा से दूर हो गए। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर बड़ा निवेश करना होगा। राज्यवार डिजिटल एजुकेशन मिशन चलाकर इंटरनेट को हर पंचायत तक पहुंचाना जरूरी है। साथ ही, शिक्षकों को ई-लर्निंग टूल्स की ट्रेनिंग दी जाए।

 

नीति और ज़मीन के बीच दूरी — कागज़ी सुधारों की हकीकत

नई शिक्षा नीति-2020 ने एक शानदार विज़न पेश किया— बहुभाषिकता, लचीलापन, स्किल-आधारित शिक्षा और शिक्षक सशक्तिकरण। लेकिन कई राज्यों ने इसे अब तक नहीं अपनाया और जहां अपनाया, वहां संसाधन और प्रशिक्षित शिक्षक नहीं थे। इससे निपटने के लिए नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन की प्रगति हर राज्य में स्वतंत्र एजेंसी से मॉनिटर कराई जाए। स्थानीय भाषाओं और क्षेत्रीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए लचीलापन दिया जाए। सबसे अहम-शिक्षकों को नीति का भागीदार बनाया जाए, केवल लागू करने वाला नहीं।

 

शिक्षा का उद्देश्य फिर से परिभाषित करने का समय

भारत अगर 21वीं सदी की महाशक्ति बनना चाहता है, तो उसकी असली ताकत न परमाणु हथियार हैं, न विदेशी निवेश। शिक्षा की गुणवत्ता ही हमारी ताकत है। हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल नौकरी का जरिया नहीं, बल्कि सोचने, समझने और बदलने की क्षमता देने की प्रक्रिया है। सिलेबस से लेकर सोच तक, स्कूल की दीवारों से लेकर सरकारी नीतियों तक, हर जगह नई दृष्टि की जरूरत है। जैसा कि डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था-शिक्षा दुनिया को बदलने का सबसे प्रभावशाली हथियार है लेकिन तभी, जब वह यह सिखाए कि कैसे सोचना है, न कि क्या सोचना है। भारत को अब रटने से सोचने की ओर, अंक से रचनात्मकता के अंकुरण की ओर और शिक्षा से सशक्तिकरण की ओर बढ़ना है ।

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