सोशल मीडिया : जुड़ने की चाह में टूटता इंसान

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उमेश कुमार साहू

 

आज सोशल मीडिया मात्र एक संचार माध्यम नहीं रहा. यह हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है लेकिन इसकी यह सर्वव्यापकता अब वरदान से अधिक अभिशाप बनती जा रही है। यह एक ऐसी कल्पना की दुनिया है जहाँ हर चीज़ चमकती है मगर असलियत धीरे-धीरे खो रही है। इस वर्चुअल संसार की चकाचौंध में लाखों युवा अपनी पहचान, आत्म-सम्मान और मानसिक स्थिरता खोते जा रहे हैं।

मानसिक स्वास्थ्य पर प्रहार

विज्ञान और स्वास्थ्य अनुसंधानों ने स्पष्ट किया है कि किशोरों में सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग अवसाद (depression)चिंता (anxiety) और आत्म-हानि की प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ है। हाल के वैश्विक अध्ययनों में पाया गया है कि जो किशोर दिन में कई घंटे सोशल मीडिया पर बिताते हैं, उनमें मानसिक पीड़ा और आत्मघाती विचारों की संभावना कई गुना अधिक है। यह केवल आंकड़ों का खेल नहीं, यह हमारे समाज की नई मानसिक महामारी है।

तुलना का जहर 

सोशल मीडिया ने “तुलना” को जीवन का नया पैमाना बना दिया है। पहले तुलना पड़ोसी से होती थी, अब दुनिया भर के लोगों से होती है। हर तस्वीर, हर रील, हर पोस्ट एक चुनौती बन चुकी है – “क्या मैं भी इतना सुंदर, सफल या खुश हूँ?” यह तुलना युवाओं के मन में असंतोष, ईर्ष्या और आत्म-अविश्वास भर रही है। बाहरी मान्यता के बिना वे स्वयं को अपूर्ण समझने लगे हैं। यही मानसिक टूटन अंततः तनाव, अवसाद और आत्महत्या जैसी त्रासदियों का कारण बनती है।

हिंसा और विकृति का प्रसार

सोशल मीडिया केवल दिखावे का मंच नहीं रहा, यह अब हिंसक व्यवहार का प्रेरक भी बन गया है। छोटे-छोटे झगड़े “स्टोरी” और “पोस्ट” से भड़कते हैं, वीडियो और टिप्पणियाँ दुश्मनी को हवा देती हैं। युवाओं में हथियारों की फोटो और खतरनाक ट्रेंड्स का प्रचलन बढ़ रहा है। अश्लीलता, गाली-गलौच और घृणा-भाषा (hate speech) खुलेआम फैल रही है। यह सब मिलकर एक ऐसे वातावरण को जन्म दे रहा है, जहाँ संवेदनशीलता मर रही है और आक्रोश पल रहा है।

डिजिटल लत का जाल

एक सर्वे के अनुसार 13–17 वर्ष के 95% किशोर किसी न किसी सोशल प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग करते हैं, और लगभग एक-तिहाई “लगातार ऑनलाइन” रहते हैं। यह निर्भरता धीरे-धीरे उन्हें नींद, अध्ययन, रिश्तों और आत्म-चिंतन से दूर कर रही है। वे स्क्रीन पर दूसरों का जीवन जीते हैं, पर अपना जीवन भूल जाते हैं। यह डिजिटल डोपामिन की लत है, जो मन को तात्कालिक सुख देती है, लेकिन दीर्घकालिक असंतोष और रिक्तता छोड़ जाती है।

समाधान की राह 

अब भी संभल सकते हैं हम

  • डिजिटल साक्षरता (Digital Literacy): बच्चों और युवाओं को सिखाना होगा कि क्या वास्तविक है और क्या छलावा।
  • समय सीमा और पारिवारिक निगरानी: सोशल मीडिया उपयोग के लिए समय तय करना और घर में संवाद बढ़ाना आवश्यक है।
  • मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा: स्कूलों में परामर्श (काउंसलिंग) और आत्म-जागरूकता पर ज़ोर दिया जाए।
  • नीतिगत नियंत्रण: सरकार और तकनीकी कंपनियों को हिंसक व अश्लील सामग्री पर कठोर कार्रवाई करनी चाहिए।
  • एल्गोरिदम की पारदर्शिता: कंपनियों को यह बताना होगा कि वे किस प्रकार का कंटेंट बढ़ावा दे रही हैं और क्यों।

यदि हम आज नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ियाँ इस डिजिटल दलदल में और गहराई तक डूब जाएँगी।

तकनीक हमारी सेवक बने, स्वामी नहीं

सोशल मीडिया स्वयं बुरा नहीं है, पर उसका असमझा उपयोग विनाशकारी बन चुका है। यह हम पर निर्भर है कि हम इसे साधन बनाएं या स्वामी बनने दें। समाज को जागरूक होकर, विवेकपूर्ण उपयोग और मानवता को केंद्र में रखकर ही इस डिजिटल अंधकार से निकलना होगा वरना आने वाली पीढ़ियाँ चमकीली स्क्रीन के पीछे अंधेरे भविष्य की कैद में रह जाएँगी।

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