आज हम इक्कीसवीं सदी में आ गए हैं, पच्चीस साल बिता चुके हैं फिर भी हमारे समाज में बहुत हद तक विधवाओं को अपमान झेलना पड़ रहा है।
समाज कहता है – ये औरत बेचारी विधवा हो गई है । इसकी मांग उजड़ गई है । उसकी हल्दी , कुमकुम, चूड़ी, बिछिया, मावर, श्रृंगार-कुछ भी शेष नहीं बचा। जिंदगी ही उसकी बेकार हो गई है। जीने का कोई मतलब शेष नहीं रहा। बस ईश्वर ने ये बच्चे थे दिए हैं, उनके नाम पर जीने का थोड़ा बहुत हक बन जाता , अन्यथा जिंदगी दूभर हो जाती। उस घर से महालक्ष्मी ने कदम उठा लिए हैं । भगवान की जैसी मर्जी।
यही नहीं आज के दिन भी सुबह उठकर या घर से निकलते समय विधवाओं का चेहरा देखना अपशकुन माना जाता है । कुछ जगह गांवों में आज भी सुबह उठकर या घर से निकलते समय विधवा दादी, नानी , मां इत्यादि का चेहरा नहीं देखा जाता है । देख लिया तो सारा दिन मन के अंदर भारीपन बना रहता है । यह एक विकृत मनोवैज्ञानिक सोच है ।
आज भी अनेक ऐसी जगह हैं, जहां विधवाएं मात्र सफेद वस्त्रों से आच्छादित रहती हैं । तुषारावृता विधि लेखा बनकर जीती हैं। विधवा अगर जवान हो,तो हमारे समाज के कुछ जलील लोग किसी के साथ भी उसका नाम जोड़ देते हैं । मुफ्त की बदनामी और एक।
मगर हमारे समाज की ही एक तेज तर्रार औरत को समाज से कुछ सवाल तो पूछने ही चाहिए- क्या औरत का जन्म लेना ही पाप है ? क्या जिंदगी भर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उसे पति को सामने खड़ा करके ही अपना परिचय देना होगा ? दांपत्य का बहुत ज्यादा महत्व है, मगर क्या पति के चले जाने पर एक औरत का सर उठाकर जीने का अधिकार समाप्त हो जाता है। विधुर व्यक्ति के साथ ऐसा बर्ताव क्यों नहीं होता? क्या औरत को प्रकृति ने औरत बनाया, वह इसी की सजा भुगत रही है ? विधवा में कितना दम है किसे पता ! उसे आंखों के आंसू पोंछने होते हैं । सीने पर पत्थर रखना पड़ता है। बच्चों के बारे में सोचना पड़ता है। उससे देवी नाम छीन लिया जाता है, मगर वह यथार्थ में देवी ही होती है । देवी का जीता-जागता स्वरूप ही होती है। वह अपने अंदर गुरु समान रूप को प्रकट करती है। नौकरी या व्यवसाय कर बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था करती है। खुद भी कुछ हुनर सीख लेती है । पढ़ाई-लिखाई कर लेती है । अच्छे ओहदे पर आसीन हो जाती है । बच्चों को भी डाक्टर , इंजीनियर , वकील , प्रोफेसर, टीचर-या उनके मनपसंद क्षेत्र तक उन्हें पहुंचाती है। उनकी जीत को अपनी जीत समझती है। वह लक्ष्य तक पहुंचने के लिए शक्ति स्वरूपा दुर्गा का रूप धारण करती है। रास्ते में आने वाली बाधाओं को खंडित करती है । विद्या स्वरूपा सरस्वती का रूप धारण कर अपने लिए व बच्चों के लिए शिक्षा, दीक्षा , कला , कौशल सब कुछ हासिल करती है । माता लक्ष्मी का रूप धारण कर अपने सद्कर्मों व सद्गुणों से खुद के लिए व बच्चों के लिए आर्थिक संसाधन जोड़ती है। किसी सिरे से वह देवत्व से दूर नहीं रहती , रखी नहीं जा सकती, रखा जाना अन्याय भी है । और यही कुछ सकारात्मक बिंदु हैं जो मानवता के हृदय को सुकून देते है ठंडक पहुंचाते है।
दुनिया में आना-जाना बना रहता है। यह कोई जरूरी नहीं कि वैधव्य की शंका से शादी ही न करें, आत्महत्या कर ले। कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है , शंकाएं हैं तो सिर्फ हमारे मन में । हमें अपनी शंकाएं मिटानी होंगी और गलत सोच को विराम देना होगा , सभी माताओं और बहनों को बराबर का सम्मान देकर आगे बढ़ाना होगा ।
