परिस्थिति के अनुसार ढलना

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इन्सान के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह स्वयं को हर परिस्थिति के अनुसार ढाल लेता है। उसके हालात कैसे भी क्यों न हों वह डटकर उनका सामना करता है। पीठ दिखाकर भाग जाना उसकी प्रकृति में नहीं होता है। कुछ अपवाद यहाँ अवश्य मिल सकते हैं।


मनुष्य मौसम की तरह ही पल-पल बदलता रहता है। कभी वह क्रोधित होता है तो कभी प्यार करता है। इसी तरह कभी वह अकेला रहना चाहता है तो कभी सबके साथ मिलकर, नाच-गाकर सदा मस्त रहना चाहता है। ईर्ष्या, राग, द्वेष, घृणा, प्रेम, क्रूरता, वात्सल्य, करुणा आदि भाव उसे नया-नया रूप देते रहते हैं। यही कारण है कि कभी हमें ऐसा लगने लगता है कि इस व्यक्ति विशेष से बढ़कर हमारा अपना कोई और नहीं है परन्तु कभी वही हमें अजनबी-सा प्रतीत होने लगता है।


मानव स्वभाव का यह नित्यप्रति परिवर्तन उसकी तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जीवन के हालात उसके मानस को झकझोरते रहते हैं। इसीलिए कभी-कभी वह एक सामान्य-सा इन्सान प्रतीत होता है। यही समय होता है जब वह हमारा अपना होता है। उस समय वह धरातल पर रहता हुआ दूसरों के दुख-दर्द को समझने वाला होता है। उस समय घर-परिवारी जनों और भाई-बन्धुओं के साथ उसके मधुर सम्बन्ध होते हैं। सभी मिल-जुलकर अपने जीवन को प्रसन्नतापूर्वक चलाते हैं।


इसके विपरीत कभी असामान्य स्थितियों के चलते वही व्यक्ति हमें अपनी पहुँच से बहुत दूर दिखाई देता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं होता कि वह हमसे रूठा हुआ है या बहुत घमण्डी हो गया है। हो सकता वह अपने घर, परिवार अथवा कार्यक्षेत्रा की किसी परेशानी में उलझा हुआ हो। इसके अतिरिक्त उसे कोई शरीरिक या मानसिक पीड़ा भी हो सकती है। इनमें से कोई भी कारण उसके अनमनेपन का हो सकता है। शायद तभी वह इस प्रकार का विचित्रा व्यवहार कर रहा हो।


मनुष्य के जीवन में समयानुसार सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि स्थितियाँ आती रहती हैं। यही सब उसके स्वभाव या मूड परिवर्तन का कारण बन जाते हैं। उसके नित्य आचरण में इन सबका प्रभाव दिखाई देना स्वाभाविक ही होता है।


जब वह प्रसन्न होता है और अपने जीवन से सन्तुष्ट होता है, तब उसका व्यवहार संतुलित होता है। उस समय वह सारे अपनों की खुशियों के लिए जीता है। सबको साथ लेकर चलने की बातें करने लगता है। घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों में सामञ्जस्य बनाते हुॅए उनके साथ समय व्यतीत करता है। सब लोग उसकी तारीफ करते नहीं थकते।


परन्तु जब वह स्वयं कष्ट में होता है तब वह अपने जीवन से उदासीन हो जाता है। ऐसे निरुत्साहित व्यक्ति को सबसे अलग-थलग एकान्त में रहना रुचिकर लगता है। कोई भी आवाज उसे चिड़चिड़ा बना देती है। जब उसके मन में अवसाद हो जाता है तब संसार के हर किसी व्यक्ति से अथवा हर क्रिया कलाप से उसका मोहभंग हो जाता है और उसे सबसे घृणा होने लगती है।


वह स्वयं को दुनिया का सबसे अधिक दुर्भाग्यहीन व्यक्ति मानने लगता है। वह सोचता है कि वह इस पृथ्वी पर भार है। उसकी जरूरत न अपनों को है और न किसी को है। इस तरह वह मायूसी में घिरता चला जाता है और अवसाद का शिकार हो जाता है।


इसी तरह अपने अस्थिर स्वभाव के कारण मनुष्य का स्थान सबके हृदयों में बदलता रहता है। अपने ऊपर नियन्त्राण रखते हुए अन्तस के भावों को प्रकट नहीं होने देना चाहिए। यत्न यही करना चाहिए कि हमारे कारण किसी दूसरे को किसी तरह की परेशानी न हो।