एक दिन राजा दशरथ अपने महल में मुनि वशिष्ठ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बैठे अपने पुत्रों के विवाह के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे। उसी समय द्वारपाल ने प्रवेश किया और महाराज को महर्षि विश्वामित्रा के आने की सूचना दी। द्वारपाल के मुंह से ऋषि विश्वामित्रा के आने की सूचना पाते ही महाराज दशरथ पुरोहित को साथ लेकर उनका स्वागत करने के लिये राजद्वार पर आये।
उन्होंने बड़े विनीत भाव से महर्षि विश्वामित्रा के चरणों में झुककर प्रमाण किया और उन्हें आदर सत्कार के साथ महल में ले गये। उन्होंने महल में आकर विधि के अनुसार उनका पूजन और अभिवादन किया। उसके पश्चात् महाराज दशरथ ने हाथ जोड़कर कहा-‘हे मुनिराज, मैं आपके दर्शन पाकर धन्य हो गया हूं। आपका शुभ आगमन किस कारण हुआ है, कृपा करके मुझे बताइये। यदि मेरे लिये कोई आदेश है तो उसका पालन मैं अवश्य करूंगा।
राजा दशरथ की बात सुनकर विश्वामित्रा जी ने कहा-‘हे राजन जब भी कोई शुभ अवसर पाकर मैं देवताओं और पितृगणों के लिये हवन पूजन करना शुरू करता हूं तब मारीच, सुबाहु और उनके दूसरे साथी असुरगण आकर मेरे द्वारा किये जा रहे शुभ काम में विघ्न डाल देते हैं। इसलिये मैं आपके बड़े पुत्रा राम और उसके भाई लक्ष्मण को अपनी सहायता के लिये साथ लेकर जाना चाहता हूं। इन दोनों के द्वारा ही उन दोनों का वध हो सकता है। राजन् इन दोनों को मेरे साथ भेजने से आपका भी कल्याण होगा।
विश्वामित्रा की बात सुनकर कुछ देर के लिये महाराज दशरथ गहरी सोच में पड़ गये। उन्हें राम अपने प्राणों से भी बढ़कर प्यारे थे। लम्बे समय के लिये राम को अपनी आंखों से ओझल करना उनके लिये बड़ा कठिन और असह्य था। एक बार उनके मन में आया कि राम को विश्वामित्रा जी के साथ भेजने से मना कर दें लेकिन ऐसा करने का साहस वे नहीं जुटा सके क्योंकि उन्हें ऋषि के श्राप का भय था।
व्याकुल होकर उन्होंने अपनी समस्या महर्षि वशिष्ठ को बताई। तब गुरू वशिष्ठ ने राजा दशरथ को श्री राम के रहस्यमय स्वरूप यानी भगवान का अवतार होने की असलियत बताई। उन्होंने उनके पृथ्वी पर जन्म लेने का प्रयोजन भी बताया। राजा दशरथ को वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उनका मोह दूर हो गया। राजा दशरथ ने अपने पुत्रों राम और लक्ष्मण को बुलाकर विश्वामित्रा को सौंप दिया।
महर्षि विश्वामित्रा दोनों राजकुमारों को अपने साथ लेकर चल पड़े। नगर पार कर लेने के पश्चात् महर्षि ने राम को बला और अतिबला नाम की दो ऐसी वस्तुएं प्रदान की जिनको धारण कर लेने पर न तो भूख लगती थी और न ही प्यास। शरीर में किसी प्रकार की कमजोरी भी महसूस नहीं होती थी।
गंगा पार करके महर्षि दोनों राजकुमारों के साथ ताड़का वन में आये। वहां रूककर उन्होंने राम से कहा-‘राम, यहां ताड़का नाम की एक राक्षसी रहती हैं। वह यहां के निवासियों को बहुत परेशान करती है। उन्हें तरह-तरह के कष्ट और हानि पहुंचाती रहती है। लोग उसके आतंक से परेशान हैं। इसलिये तुम निस्संकोच होकर उसे मार डालो।
‘जैसी आज्ञा गुरूदेव।‘ कहकर श्री राम ने अपने धनुष बाण पर प्रत्यंचा चढ़ाकर घोर टंकार किया। उसे सुनकर क्रोध से तिलमिलाती हुई ताड़का बाहर आई और राम की ओर दौड़ पड़ी। राम ने एक बाण साध कर उसकी ओर चलाया। बाण लगते ही वह पीड़ा से चिल्लाई और यमलोक पहुंच गई। ताड़का एक शाप के कारण पिशाचता को प्राप्त हुई थी। श्री राम के द्वारा उसे मुक्ति मिली और वह स्वर्गलोक चली गई। ताड़का वध से प्रसन्न होकर मुनिवर विश्वामित्रा ने श्री राम को अपने आलिंगन में लिया, साथ ही साथ उन्हें अनेक रहस्य और मंत्रा बताये तथा अस्त्रा-शस्त्रा प्रदान किये।
इसके बाद मुनिवर राम और लक्ष्मण के साथ सिद्ध और चारणों से सेवित सिद्धाश्रम में आए। वहां श्री राम ने मुनि श्रेष्ठ विश्वामित्रा को अभय होकर यज्ञ आदि करने को कहा। अतः वे ऋषि मंडली समेत यज्ञ दीक्षा में लग गये। जब मारीच और सुबाहु ने यह सब देखा तो अपने स्वभाव के अनुसार वे वहां रक्त और अस्थियों की बारिश करते हुए विध्न डालने आ पहुंचे। श्री राम ने एक ही बाण से मारीच को आकाश में घुमाते हुए सौ योजन दूर समुद्र में फेंक दिया और दूसरे अग्निबाण से सुबाहु को भस्म कर दिया। दूसरे निशाचरों को लक्ष्मण ने काल के घाट उतार दिया।
इस तरह उस वन को राक्षसों से खाली करके राम लक्ष्मण ने ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया ।