बिहार की राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जहाँ दूसरे राज्यों में सत्ता-विरोधी लहरें पाँच साल में तैयार हो जाती हैं, वहीं नीतीश कुमार बीस साल बाद भी भरोसे का प्रतीक बने हुए हैं। बिहार की राजनीति इस वक़्त एक बार फिर उस मोड़ पर है, जहाँ चुनावी मुकाबला दलों या गठबंधनों से ज़्यादा, दो पीढ़ियों के भरोसे की लड़ाई बन गया है। 2025 का विधानसभा चुनाव अब पूरी तरह नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी यादव के बीच सिमट चुका है। दो दशक के शासन के बाद भी जनता में उनके प्रति विश्वास और सम्मान का जो स्तर दिखाई देता है, वह भारतीय राजनीति में विरल है। नीतीश अब भी जनता के भरोसे का चेहरा हैं जबकि युवा तेजस्वी इस भरोसे को चुनौती देने की कोशिश में हैं।
जहाँ भी एनडीए को बढ़त दिखती है, वहाँ एक साझा कारक है — नीतीश कुमार का चेहरा और उनकी प्रशासनिक विश्वसनीयता। वहीं, महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर युवाओं और बदलाव की राजनीति पर दांव लगाया है। तेजस्वी बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, पलायन, शिक्षा- स्वास्थ्य की बदहाली स्थिति और विकास के असमान वितरण जैसे मुद्दों को सामने रखकर मैदान में हैं, लेकिन जनता का एक बड़ा तबका अभी भी नीतीश की स्थिरता की राजनीति के साथ खड़ा दिखता है।
नीतीश फैक्टर क्यों टिकाऊ है
नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीति को अराजकता से स्थिरता की दिशा में मोड़ा। सड़क, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और बिजली के क्षेत्र में निरंतर काम ने उनके प्रति जनता का विश्वास मज़बूत किया। महिलाओं के खाते में 10 हज़ार रुपये, मुफ़्त बिजली और सामाजिक वृद्धावस्था पेंशन योजनाओं ने वोटरों के मन में उनका स्थान और पक्का किया है लेकिन जनता केवल योजनाओं से नहीं, उनकी ईमानदार छवि और प्रशासनिक संतुलन से जुड़ी है। यही कारण है कि बीस साल बाद भी एंटी-इनकंबेंसी का कोई व्यापक असर नहीं दिखता।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि “बिहार में नीतीश अब व्यक्ति नहीं, एक राजनीतिक संस्था हैं। जनता उन्हें स्थिर शासन और ईमानदार नेतृत्व के प्रतीक के रूप में देखती है। 2025 का चुनाव गठबंधन या पार्टी का नहीं, भरोसे का चुनाव है।” इसी बात की पुष्टि हालिया सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे (सितंबर 2025) भी करता है — 61% जनता ने नीतीश सरकार से संतुष्टि जताई जबकि 58% ने कहा कि वे उन्हें फिर मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। वहीं ग्रामीण महिलाओं में नीतीश कुमार क़ो 64% समर्थन हैं।
विपक्ष की स्थिति और तेजस्वी की चुनौती
महागठबंधन ने इस बार पूरी रणनीति तेजस्वी यादव के नेतृत्व में केंद्रित की है। आरजेडी, कांग्रेस, विकासशील इंसान पार्टी, और वाम दलों का गठबंधन इस बार मज़बूत तो है पर असमंजस में भी है। तेजस्वी युवाओं, शिक्षकों और प्रवासी वर्ग के बीच संवाद बढ़ा रहे हैं। उनके “नौकरी और नई उम्मीद” वाले नारों को शहरी इलाक़ों में कुछ समर्थन मिला है। युवाओं के बीच बेरोज़गारी को लेकर नाराज़गी दिखती है। सीमांचल और भोजपुर इलाक़ों में विपक्ष की पकड़ भी मज़बूत है, हालाँकि, ग्राउंड लेवल पर यह समर्थन अभी भावनात्मक से ज़्यादा वैचारिक नहीं दिखता। कई इलाक़ों में मतदाता कहते हैं — “तेजस्वी यादव युवा हैं पर राज्य को चलाने के लिए अनुभव चाहिए”। सत्ता पक्ष लगातार लालू–राबड़ी शासनकाल को “जंगल राज” बताकर जनता के बीच उस दौर की याद ताज़ा करने की कोशिश कर रहा है। इसी वजह से मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के मन में अब भी उस समय की छवि बनी हुई है जिसके चलते तेजस्वी यादव पर पूर्ण भरोसा बन नहीं पा रहा है। यही असमंजस महागठबंधन की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
नीतीश की छवि: सत्ता नहीं, सेवा
बीस साल के लंबे राजनीतिक सफ़र में शायद यह पहली बार है जब जनता किसी मुख्यमंत्री को “थका हुआ” नहीं बल्कि “स्थिर” मान रही है। नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताक़त यही रही है कि उन्होंने सत्ता को सेवा के रूप में देखा, न कि लाभ के रूप में। यही कारण है कि बिहार में एंटी-इनकंबेंसी नहीं बल्कि “री-इनकंबेंसी” की चर्चा है।
बिहार का यह चुनाव अब केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं बल्कि स्थिरता बनाम संभावना की लड़ाई बन गया है। नीतीश कुमार जहाँ भरोसे, अनुभव और प्रशासनिक निरंतरता के प्रतीक हैं, वहीं तेजस्वी यादव युवाओं की उम्मीद और नई पीढ़ी की आवाज़ के प्रतिनिधि के रूप में उभर रहे हैं। तेजस्वी का युवाओं के बीच बढ़ता आकर्षण और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर उनका आक्रामक रुख़ इस स्थिर समीकरण को चुनौती भी दे सकता है।
डॉ. संतोष झा
असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीतिक विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय)
