आज जब विभिन्न रूपों के प्रवचनों की आंधी चल रही है, ऐसे में एक व्यक्तित्व की स्मृतियां मन को झकझोरती हैं। मानस प्रवचन की मंदाकिनी जो सन् 1965 से सन् 1998 तक सतत् प्रवाहमान रही। 33 वर्षों तक इसके उद्गाता मानस मर्मज्ञ युग तुलसी के नाम से चर्चित पंडित राम किंकरजी रहे। शीर्षस्थ साहित्य मनीषियों में सर्वश्री हरिवंशराय बच्चन, महीयसी महादेवी वर्मा, पद्मश्री डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. श्री कुबेर नाथ राय, कथा शिल्पी पद्मश्री अमृतलाल नागर तथा डॉ. नरेंद्र कोहली, पद्मविभूषण डॉ. शिव मंगलसिंह सुमन एवं राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी तो लगभग दो दशक तक उनके नियमित श्रोताओं में थे। स्वाधीनता आंदोलन के चर्चित राष्ट्रगीत ‘झण्डा ऊंचा रहे हमाराÓ के रचयिता पद्मश्री श्यामलाल गुप्ताजी ‘पार्षद’ भी जीवन पर्यन्त नित्य के श्रोताओं में रहे।
कानपुर में आज से लगभग40 वर्ष पूर्व श्रद्धेय पण्डित राम किंकरजी के मानस प्रवचन का दैनिक समाचार-पत्रों में नित्य प्रकाशन का श्रीगणेश हुआ था। समाचार-पत्रों में इसके पूर्व यदा-कदा ही प्रवचनों पर कुछ पंक्तियां प्रकाशित होती थीं। धार्मिक प्रवचनों की नित्य धारावाहिक रूप से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों में श्री हरिनारायण निगम (दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक), डॉ. कृष्णचंद्र आर्य, विजयसिंह विद्यावृत (आज के समाचार सम्पादक), पण्डित रामाश्रय द्विवेदी (विश्वमित्र के समाचार सम्पादक),पण्डित कैलाश नाथ त्रिपाठी (सम्पादक दैनिक गणेश) एवं डॉ.रमेश वर्मा जो तीन पत्रों की रिपोर्टिंग करते थे। उर्दू दैनिक सियासत जदीद, यदा-कदा लखनऊ के पत्रकार श्री वीर विक्रम बहादुर मिश्र शामिल थे। अंग्रेजी के दैनिक नार्दन इण्डिया पत्रिका ने राम कथा प्रवचन पर एक परिशिष्ट प्रकाशित कर हिन्दी पत्रों को प्रेरित किया।
‘मानस संगम’ समारोह में प्रवचन समाप्ति के बाद अंतिम दिवस के आयोजनों में सभी धर्मों तथा वर्गों के मनीषियों में विचार विभिन्नता को अपने अध्यक्षीय भाषण में युग तुलसी किंकरजी जनसमूह में प्रगट करते थे। युग तुलसी किंकरजी ने अपनी कृति ‘गीता और मानस के तुलनात्मक अध्ययन’ की भूमिका में इसकी चर्चा भी की है। पंडित जी ‘मानस संगम’ के प्रारम्भिक दौर में सर्वधर्म समभाव के अनुसार आमंत्रित विद्वानों को शंकित दृष्टि से देखते थे किंतु जब (अब दिवंगत) उत्तरप्रदेश के तत्कालीन न्याय एवं कारागार मंत्री अब्दुल रहमान नश्तर ने स्वागताध्यक्षीय भाषण में हनुमान जी की निष्काम सेवा को वर्तमान समाज की ओर संकेत करते हुए तुलसी की चौपाई के भावों को व्यक्त किया (प्रात:काल सर्वप्रथम मेरा नाम लेने वाले को खाना नहीं नसीब होगा) यानी नाम लेना है तो श्रीराम की ही लें। आज के समाजसेवियों को जो लघु कार्य करके पत्रों में जन सेवा प्रकाशन का ढोंग करते हैं ऐसे में हनुमान जी के चरित्र का प्रेरणादायी उदाहरण देने पर पंडितजी ने उनके व्यक्त भावों की प्रशंसा की। उसी संदर्भ में स्व. ज्वालाप्रसाद कुरील (सांसद) तथा डॉ. अब्राहम (क्राइस्ट चर्च डिग्री कॉलेज के प्राचार्य एवं तत्कालीन कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति) के स्वागताध्यक्षीय भाषणों को भी सराहा था।
अनेक वर्षों बाद स्वयं किंकर जी ‘मानस संगम’ समारोह में तुलसी को समर्पित सेवियों के नाम भी प्रस्तावित करते थे। उन्होंने सर्वप्रथम भोपाल में विश्व कवि तुलसी तथा राम कथा को समर्पित तुलसी मानस प्रतिष्ठान एवं मानस भारती अब चर्चित परिवर्तित नाम-तुलसी मानस भारती पत्रिका प्रकाशन के प्रेरणा स्त्रोत पं. गोरेलाल शुक्ल के नाम का संकेत दिया। श्री शुक्ल ने भी कई दिवस प्रवचन सुनने के पश्चात् ‘मानस संगम’के आयोजन में भाग लिया। फिर भी यहां उसी पवित्र संस्थान की लगन रही जो मुझे आज भी याद है जब उन्होंने मुझे पत्रिका का सदस्य ही नहीं बनाया वरन् अन्य सदस्य बनाने हेतु मुझे एक कॉपी भी दी थी।
मेरी समझ में वह तुलसी प्रेमियों को एक सूत्र में करने की उनकी मूक प्रक्रिया थी। जिससे तुलसी की भावनाओं को समाज में अधिकाधिक मान्यता प्राप्त हो।
उसी संदर्भ में एक घटना याद आ गई। जब तुलसी जयंती के आयोजन में तुलसी उपवन मोतीझील के समारोह में पूर्व प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भाग लेने आए थे। भोपाल पधारे पंडितजी ने उसी दिन सायंकाल दूरदर्शन के प्रसारण में तुलसी जयंती का कार्यक्रम देखा। दूसरे दिन मेरे ज्येष्ठ पुत्र मुकुल को एक मेरे प्रति शिकायत भरा विस्तृत पत्र भेजा, जिसमें उनका संकेत था कि ऐसे व्यक्ति को ‘मानस संगम’ में नहीं आमन्त्रित करना चाहिए। उसी वर्ष दिसम्बर में हमारे यहां प्रवचन में पधारे युग तुलसी किंकरजी ने जानकारी ली कि श्री विश्वनाथ प्रतापसिंह ‘तुलसी जयंती’ पर क्या बोले थे?
मुझसे चर्चा होने पर उदारमना किंकरजी को यह जानकर कि उनका पूरा भाषण तुलसी की ‘विनय पत्रिका’ पर था। मंच पर पहुंचते ही जिन लोगों ने उनके जिन्दाबाद के नारे लगाए थे उनको सार्वजनिक रूप से फटकारते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा कि राजनीति का जंगल छोड़कर इस ‘तुलसी उपवन’ में आया हूं। यह नारे लगाने हों तो सड़क पर जाकर लगाओ। वस्तुत: कवि हृदय के नाते ही उनको बुलाया था।
कभी-कभी ‘मानस संगम’ समारोह में पण्डितजी की अध्यक्षता में संकटपूर्ण स्थिति भी आ जाती थी। उसमें एक बार मंच पर पूरी अयोध्या उपस्थित थी। हजारों लोगों का जनसमूह। मंच के मध्य में अध्यक्ष पद पर विराजमान किंकरजी, 6 दिसम्बर अयोध्या काण्ड के समय तत्कालीन जिलाधिकारी रामशरण श्रीवास्तव, इसके पूर्व राम जन्म स्थान का ताला खुलवाने का आदेश पारित करने वाले फैजाबाद न्यायाधीश श्री के.एम. पाण्डेय (उस समय ग्वालियर उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति थे। अब दिवंगत) तथा राम जन्मभूमि ट्रिब्यूनल के मुख्य न्यायाधीश श्री के.सी. अग्रवाल (उस समय उच्च न्यायालय इलाहाबाद के मुख्य न्यायाधीश भी थे) विराजमान थे। देश-विदेश के सभी वर्गों के विद्वान मनीषियों की उपस्थिति में ‘जनसत्ता’ दिल्ली के सम्पादक श्री प्रभाष जोशी के इस उद्बोधन से कि दो अक्षरों ‘रा’ तथा ‘म’ से सत्ता तक का परिवर्तन हो सकता है- इस चर्चा ने उस वातावरण के माहौल में एक गर्मी-सी ला दी। ऐसे में अपने भावपूर्ण उद्बोधन से पण्डितजी ने उस गर्म वातावरण में शीतलता प्रदान की।
वस्तुत: महान लोग छोटी-सी बात का भी ध्यान रखते हैं। मानस प्रवचन की समाप्ति यानी मानस संगम समारोह के एक दिन पूर्व किंकरजी की एक व्यक्तित्व की झलक ही उनके उच्च कोटि की मानसिकता का दिव्य दर्शन कराती है। परमविदुषी महादेवी वर्मा आ रही थीं। (दिसम्बर सन् 1990 में) उसमें स्वयं को सर्वप्रथम माला न पहनाने का स्पष्ट संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि महादेवीजी का सारस्वत सम्मान पहले होगा। समारोह की अध्यक्षता पंडितजी को ही करनी थी। आयोजन के नियमों के विपरीत अध्यक्ष महोदय के एक दिन पूर्व दिए गए स्नेहबद्ध निर्देश का पालन करते हुए महादेवी वर्मा का सारस्वत सम्मान किया।
इसी संदर्भ में दो घटनाएं पंडितजी के प्रति याद आ गईं। गांधी युग के ओजस्वी राष्ट्र कवि पद्मश्री पं. सोहनलाल द्विवेदी को जब मंच पर काव्य पाठ हेतु आमंत्रित किया गया तो उन्होंने यह पंक्तियां पंडितजी के प्रति कहीं-
परम भागवत् भक्त शिरोमणि, स्नेही, परम उदार, राम कथा के गायक सत्-सत् गुण गरिमा आगार।
‘मानस मंथन’ दिया प्रणत को पावन आशीर्वाद, इससे श्रेष्ठ न पाया कुछ भी, मैंने पुण्य प्रसाद।
कैसे करूं आपके पावन चरण कमल का वन्दन, पर रज बने आपकी मेरे विनतभाल का चंदन।
उन्होंने कहा कि-मैं तो प्रतिवर्ष आकर कहता रहता हूं किंतु मुख्य रूप से हम पंडित जी का ही श्रवण करने आते हैं और मंच पर बैठ गए। संत साहित्य के मर्मज्ञ डॉ. भगवती प्रसाद सिंह ने, जिन्होंने लगभग 150 ग्रन्थ लिखे हैं, कहा कि मैं किंकरजी को सुनने आया हूं जो मेरा बोलने का समय निर्धारित है वह पूज्य पण्डितजी के पूज्य चरणों में अर्पित है, ऐसा कहकर वह भी बैठ गए।
‘मानस संगम’आयोजन चरमोत्कर्ष पर चल रहा था कि मुझे मंच पर ‘विश्व हिन्दी दर्शन’ के सम्पादक श्री लल्लनप्रसाद व्यास ने अपने निकट बुलाकर कहा कि वह सामने नीचे श्रोताओं की भीड़ में स्वतंत्रता के चिर-परिचित ‘झण्डागान’ के रचयिता स्वाधीनता आन्दोलन के विप्लवी सेनानी पद्मश्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ को ऊपर लाकर बिठाएं। उनके कथन पर पार्षदजी को मंच पर विराजने हेतु व्यासजी का संदेश मैंने कहा। वह अनसुना करके बैठे रहे। इसके बाद व्यासजी स्वयं मंच से उतर कर पार्षदजी के चरण स्पर्श करके उनसे हठपूर्वक मंच पर निवेदन करके ले गए। किंतु उन्होंने जो कहा वे शब्द उनके महान व्यक्तित्व का प्रतीक है। यह मंच मेरा है और मैं समारोह के पूर्व पण्डितजी के होने वाले मानस प्रवचन का नियमित श्रोता हूं। नीचे बैठकर जो सुनने में आनंद आता है वह मंच पर नहीं आता। झण्डागान के रचयिता पार्षदजी के गांव नर्वल(जनपद कानपुर) जननायक पं. जवाहरलाल नेहरू भी गए थे और उन्होंने अपने भावपूर्ण भाषण में कहा था कि स्वाधीनता संग्राम के प्रेरणादायक राष्ट्रगीत ‘झण्डा ऊंचा रहे हमारा’ के रचनाकार पार्षदजी के नाते इस गांव में आया हूं।
‘मानस संगम’ समारोह में अनेक बार पधारे साहित्य मनीषी डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की एक घटना चिरस्मरणीय है। अपार जनसमूह के बीच दिसम्बर 1983 में जब ओजस्वी वाणी के चितेरे सुमनजी ने महाप्राण निराला की रचना ‘राम की शक्ति पूजा’ के उस घटनाक्रम के अंश की व्याख्या करते हुए कहा कि युद्ध स्थल से गोधूलि बेला में लौटकर राघवेंद्र एक शिला पर बैठे थे। पवनसुत महाबली हनुमान अपने प्रभु श्री राघवेन्द्र के पैर दबा रहे हैं कि उनके हाथ में कुछ बूंदे टपक-टपक कर गिरीं। आन्जनेय ने सिर उठाकर देखा कि प्रभु श्रीराम के प्रेमाश्रु की बूंदें हैं- उस हृदयग्राही रचना के अंश सुनाते समय आयोजन के अध्यक्ष युग तुलसी किंकरजी की अश्रुधारा बह निकली। उस भावपूर्ण दृश्य को छायाकारों ने अपने कैमरे में कैद कर लिया।
कैसा अद्भुत संयोग कि उपरोक्त रचना के रचयिता महाकवि निराला भी सुमनजी की वाणी से इसे सुनने में आनन्दित होते थे। यह भी एक विचित्र संयोग ही है कि 26 दिसम्बर सन् 1993 में युग तुलसी किंकरजी के मानस प्रवचन (1942-93) की स्वर्ण जयन्ती पर ‘मानस संगम’ ने अपने 25 वर्ष पूरे किए। इस रजत जयंती में पण्डितजी को उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल वोरा द्वारा रजत-पत्र समर्पित किया गया। सोने में सुहागा की इस रजत जयन्ती समारोह के साथ युग तुलसी किंकरजी की कथा यात्रा के 50 वर्ष पूर्ण हुए। उक्त भव्य समारोह में देश-विदेश के विद्वानों तथा सभी वर्गों की विशाल उपस्थिति में राष्ट्रीय कवि दीन मुहम्मद्दीन की ये भाव पूर्ण रेखांकित पंक्तियां सराही गई:-
‘मानस संगम’ की तो रजत जयंती है, पर किंकर वचनों की स्वर्ण जयंती है।
संगम को वर्ष पचीस हुए, करते-करते मानस प्रचार। सुन-सुन किंकर की राम कथा, बदले हृदय के दुर्विचार।
पच्चीस वर्ष से संगम ने सम्पूर्ण विश्व को जोड़ा है, ऊंच-नीच के भेदभाव को ‘मानस संगम’ ने तोड़ा है।
यह ‘मानस संगम’ बयार बसंती है, मानस संगम की तो रजत जयंती है। पावन राम कथा माध्यम से संगम ने कीर्ति कमाई है, श्री बद्रीनारायण जी ने तन-मन-धन से की अगुवाई हैं।
उनकी ही सहज, सरलता ने दी संगम को ऊंचाई है, इसीलिए संगम में आता देसी-परदेसी भाई है।
यह संगम ही हिंदी की वैजन्ती है, पर किंकर वचनों की स्वर्ण जयंती है। वर्ष पचास हुए किंकर ने सब देश-विदेश लुभाए हैं, रामकथा पावन सरिता में जन-जन के मन नहलाए हैं। वे हिमगिरि से भी हैं ऊंचे गहरे भी हैं सागर से वे, धरती माता से धैर्यवान चट्टान से हैं दृढ़ता में वे।
राम कथा किंकर की हृदयतंत्री है, मानस संगम की तो रजत जयंती है। मन में कथा राम की बैठी, वाणी में वेद समाया है। शास्त्र और उपनिषद् सार सब कवि ने किंकर में पाया है।
मां वाणी के तपी पूत ने गुण गान राम का गाया है, जीये वे सौ से अधिक वर्ष यही ‘दीन’ कामना लाया है।
किंकरजी के प्रवचन की स्वर्ण जयन्ती में मानस संगम साहित्य पुरस्कार गुजरात (बड़ौदा) के श्री मुकुन्दलाल मुंशी को तथा विशिष्ट सम्मान युग तुलसी पं. राम किंकरजी उपाध्याय की प्रवचन शैली एवं मौलिक लेखन पर हरिद्वार से पधारे सर्वप्रथम शोधकर्ता डॉ. जगदीश नारायण ‘जगेश’ भोजपुरी को ताम्रपत्र (प्रशस्ति) प्रदान एवं सारस्वत सम्मान किया गया। डॉ. जगेश जी की इन पंक्तियों में युग तुलसी किंकरजी के कथा प्रसंगों को कितने विवेचनापूर्वक गागर में सागर के रूप में प्रस्तुत किया गया है:-
‘मानस के मनीषी व्याख्याता पण्डित राम किंकर उपाध्याय जी अतुलमेघा सम्पन्न व्यक्ति हैं।‘ उनके विराट व्यक्तित्व में अर्थों की अनेक गहराइयां छिपी हुई हैं। अपने प्रवचनों के बीच-बीच में वे गोस्वामी जी द्वारा प्रयुक्त प्रतीकार्थों को व्याख्यायित करते हैं उनके प्रवचनों में प्रतीकों की स्थापना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। मानस के अन्य प्रवचनकार जहां कथा प्रस्तुति, प्रसंग निर्देशन, शब्द चमत्कार और अर्थों के तोड़-मरोड़ में अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं। उपाध्याय जी वहां अर्थों की गहराई में उतरकर प्रतीकों के हीरा-मोती छांट लेते हैं…।
सन् 1962 में देश में चीनी आक्रमण के समय सायंकालीन कथा में हवाई आक्रमण की आशंका में ब्लेक आउट घोषित हो गया। सुरक्षा हेतु मुख्य मंदिर के अंदर सभामण्डप में प्रात:कालीन प्रवचन का सुझाव देते ही पंडितजी ने तुरंत स्वीकार कर लिया, जिससे प्रवचन में व्यवधान न हो। इसी प्रकार पाकिस्तानी हमले के समय भी पंडितजी ने भगवान भक्त वत्सल नारायणजी के सान्निध्य में मंदिर के अंदर सभामण्डप में राष्ट्र हेतु प्रसंग पर भक्तों को अद्भुत चेतना प्रदान की थी।
इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ दिनों बाद ही मानस प्रवचन होना था। अंतिम दिवस देश-विदेश के सभी वर्गों-वर्णों के विद्वजन, पत्रकार, कवि, राजनेता, विश्व कवि तुलसी तथा रामकथा के प्रति श्रद्धा सुमन, मानस संगम वार्षिक समारोह में अर्पित करते हैं।
युग तुलसी किंकरजी की अध्यक्षता में साहित्य एवं ललित कला पुरस्कार तथा ताम्र-पत्र प्रदान किए जाते। देश में एक वर्ग विशेष के प्रति आक्रोश तथा दंगे का माहौल (विशेष रूप से उत्तरप्रदेश में कानपुर में) चल रहा था। ‘पंजाबी रामायण’कृति के रचनाकार सरदार शमशेर सिंह (अब दिवंगत) को मानस संगम साहित्य पुरस्कार देने के निर्णय पर तत्कालीन माहौल को देखते हुए मेरे ऊपर नाम परिवर्तित करने का चतुर्मुखी दबाव पडऩे लगा। मैं परिवर्तन का विरोधी था और पंडितजी से सम्पर्क कर मैंने अपने विचारों से उन्हें अवगत कराया तब उन्होंने दृढ़तापूर्वक सरदारजी को ही सारस्वत सम्मान तथा पुरस्कार देने का समर्थन किया। वह भयवश राम काज में किसी निर्णय पर अपना मत नहीं बदलते थे।
युग तुलसी किंकरजी के मानस प्रवचन के दो दशक पूरे होने पर स्थानीय रानी घाट स्थित ‘तुलसी तत्वानुसन्धान केंद्र’ (श्रीमती शीला कोचर के बंगले में) मेरी अनुपस्थिति में मुंबई के किसी बड़े उद्योगपति की कथा का, हमारे यहां के प्रवचन की तुलना में उस अति भव्य पाण्डाल तथा आराम दायक बैठने का गुणगान हो रहा था। उस चर्चा को कुछ क्षण सुनने के बाद मानस मर्मज्ञ ने कहा कि मुंबई में जो भव्य कथा हुई वह क्षणिक आतिशबाजी छूट गई और वहां कानपुर में अनवरत अखण्ड दीप मानस प्रवचन का वर्षों से जल रहा है। किंकरजी की कथा सुनने हेतु मुझे बचपन में सर्वप्रथम साथ ले जाने का श्रेय हमारे पालन पोषणकर्ता स्व. रामभरोसे विश्वकर्मा को है। पूज्य पिताश्री 35 वर्ष की अल्पायु में दिवंगत हुए (सन् 1936 में) उसी दिन दु:ख न सहन करने से मेरी माता जी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया। मेरी 3 बहनें तथा मैं उस समय पौने दो वर्ष का ही था। अविवाहित रहकर जीवन पर्यन्त हम लोगों का माता-पिता तुल्य पालन किया इन्हीं रामभरोसे जी तथा बुआ जी ने। कानपुर के सिविल लाइन्स स्थित डॉ. कक्कड़ के बंगले के छोटे से बरामदे का चित्र अब भी मुझे ध्यान है, संभवत: 25 या 30 श्रोताओं में मैं भी था। समझता कुछ नहीं था किंतु श्री रामभरोसे विश्वकर्मा (जो केवल हस्ताक्षर मात्र करना ही जानते थे) के कारण वहां तथा इसके बाद सनातन धर्म भवन में पंडित जी की कथा सुनाने ले जाते रहे। इसके साथ वह मुझसे यदा-कदा यही कहा करते थे कि समय आने पर अपने यहां किंकरजी की कथा अवश्य कराना।
मित्रवर पं. ठाकुर प्रसाद अग्निहोत्री जो युग तुलसी किंकरजी के अति निकट रहते थे, उन्हीं द्वारा सन् 1965 में मानस प्रवचन का शुभारंभ कराया गया। उन्हीं द्वारा पंडितजी से मात्र पत्र व्यवहार से कार्यक्रम निश्चित हुआ। दुर्भाग्य से मेरे पालन- पोषणकर्ता तथा किंकरजी के प्रवचन कराने के प्रेरणा स्त्रोत मानस प्रवचन शुभारंभ के लगभग सात मास पूर्व साकेतवासी हो गए। वह एक दिन भी प्रवचन नहीं सुन पाए।
यही क्लेश मेरे हृदय में कभी-कभी कचोटता रहता है।
श्रद्वेय पंडितजी को स्टेशन से स्वागत करके लाना था। वर्ष 1965 के वे क्षण अब भी याद हैं। जब ट्रेन आई, डिब्बे के द्वारा अपने व्यक्तित्व की अलग पहचान लिए पंडितजी खड़े ही हुए कि लोगों के साथ ही मैंने भी माल्यार्पण किया। वह मुझे भीड़ में न पहचान पाए तब हमारे और पूज्य किंकरजी के सम्पर्क सूत्रधार (अब दिवंगत) पं. ठाकुर प्रसाद से पूछा कि तिवारीजी कौन हंै? भीड़ में दुबले-पतले मुझ जैसे युवक को देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हुए विद्वान मनीषी किंकर जी ने कहा कि मैं समझता था कि तिवारीजी प्रौढ़ अवस्था वाले भारी भरकम शरीर के होंगे, ये तो बिल्कुल युवक हैं। यह थी पहली अविस्मरणीय भेंट युग तुलसी से।