
भारतीय संस्कृति की धरती पर अनेक पर्व-त्योहार अपनी-अपनी महक बिखेरते हैं। कोई दीपावली की जगमग में जीवन को आलोकित करता है तो कोई होली के रंगों में भाईचारे की अनुभूति कराता है परंतु इन सबके बीच एक ऐसा पर्व भी है जो न शोर करता है, न आडंबर दिखाता है; फिर भी अपनी पवित्रता, सादगी और अनुशासन से हर हृदय को झकझोर देता है — वह पर्व है छठ। यह पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि लोकजीवन की आत्मा है। इसमें सूर्य की उपासना है, प्रकृति का आदर है, और परिवार के सुख-शांति का प्रतीक।
छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से होती है और षष्ठी तिथि को इसका चरम होता है। इस दौरान जब संध्या उतरती है तो नदियों और तालाबों के किनारे दीपों की पंक्तियाँ झिलमिलाती हैं। घाटों पर व्रती महिलाएँ आँचल फैलाए सूर्य देव को अर्घ्य देती हैं। यह दृश्य किसी चित्रकार की कूची से निकले सौंदर्य से भी अधिक दिव्य लगता है।
यह पर्व दिखावे का नहीं, समर्पण का है। इसमें ना कोई बैंड-बाजा है, ना ही मंहगे पकवानों की महक — बस शुद्धता, संयम और विश्वास का सुगंधित वातावरण है। यही कारण है कि छठ को “लोक आस्था का महापर्व” कहा जाता है।
छठ पर्व में दो शक्तियों की पूजा की जाती है — सूर्य देव और छठी मैया।
सूर्य देव को ऊर्जा और जीवन का स्रोत माना गया है। वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जिन्हें हम प्रतिदिन देख सकते हैं। जब व्रती घाट पर खड़े होकर जल में डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देती हैं, तो वह दृश्य केवल पूजा का नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव के मिलन का क्षण होता है।
छठी मैया को लोक परंपरा में सूर्य की बहन कहा गया है। मातृत्व और करुणा की प्रतीक यह देवी संतान की रक्षा करती हैं, परिवार को समृद्धि देती हैं और जीवन में स्थिरता लाती हैं। बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में जब कोई नवजात शिशु जन्म लेता है, तो महिलाएँ कहती हैं — “छठी मैया कृपा करें, बालक दीर्घायु हो।”
यही आस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस पर्व को जीवित रखे हुए है।
छठ व्रत की सबसे बड़ी विशेषता उसका कठोर नियम है। यह केवल पूजा नहीं, बल्कि तपस्या है।
चार दिनों तक व्रती संपूर्ण शुद्धता का पालन करते हैं —
पहले दिन ‘नहाय-खाय’ में व्रती स्नान करके एक समय शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं।
दूसरे दिन ‘खरना’ होता है, जिसमें गुड़ और चावल की खीर बनाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
तीसरे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और चौथे दिन उगते सूर्य को।
इन चार दिनों में व्रती न तो मांस-मदिरा का सेवन करते हैं, न किसी प्रकार का दिखावा। भोजन मिट्टी के चूल्हे पर बनता है, प्रसाद बाँस की सूप और दौरी में सजता है, और पूजन में प्रयोग होने वाली हर वस्तु पर्यावरण से जुड़ी होती है। यह दिखाता है कि लोकजीवन में पवित्रता केवल भक्ति नहीं, बल्कि जीवनशैली भी है।
छठ पर्व का सबसे सुंदर पक्ष यह है कि यह हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ बनना सिखाता है।
सूर्य केवल देवता नहीं, बल्कि पृथ्वी पर जीवन के आधार हैं। उनकी किरणें अन्न उगाती हैं, जल को वाष्पित करती हैं, और हमारे शरीर में ऊर्जा भरती हैं। छठ पर्व इसी जीवनदायी शक्ति के प्रति आभार का प्रतीक है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य को जल अर्पण का बड़ा महत्व है। जब व्यक्ति जल में खड़ा होकर सूर्य को निहारता है, तो सूर्य की किरणें जल की परावर्तित सतह से होकर शरीर में प्रवेश करती हैं। इससे शरीर में ऊर्जा का संचार होता है, रक्त-संचार ठीक रहता है और मन में एकाग्रता बढ़ती है। यह योग और विज्ञान का अनूठा संगम है।
छठ केवल स्त्रियों का व्रत नहीं, यह पूरे परिवार का पर्व है। पुरुष, बच्चे, वृद्ध — सभी इसमें समान भागीदार होते हैं। पूरे समाज में एकता का ऐसा वातावरण बनता है कि जाति, धर्म और वर्ग की सीमाएँ मिट जाती हैं।
घाटों पर हर कोई एक-दूसरे की मदद करता है; कोई प्रसाद बाँटता है, तो कोई दीया सजाता है।
यह वह क्षण होता है जब “मैं” की भावना समाप्त होकर “हम” की भावना जन्म लेती है।
इस पर्व की तैयारी भी पूरे परिवार और मोहल्ले को जोड़ती है। घरों में सूप-दौरी बनती है, नई मिट्टी की चूल्हियाँ तैयार की जाती हैं, और बच्चे घाट तक फल-फूल पहुँचाने में सहायता करते हैं। इस तरह छठ समाज को एकजुट करने वाला अदृश्य सूत्र बन जाता है।
छठ पर्व लोकसंगीत का भी पर्व है। घाटों पर जब महिलाएँ सुर में गाती हैं —
“उग हो सूरज देव भइली अरघ के बेर…”
तो वातावरण भक्तिमय हो उठता है।
छठ के गीत केवल भक्ति नहीं, बल्कि लोकभावना का जीता-जागता दस्तावेज़ हैं।
इन गीतों में माँ की ममता है, बहन का समर्पण है, पत्नी की प्रार्थना है और बेटी की श्रद्धा है।
लोककला के इस रूप ने छठ को केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि लोकसंस्कृति का उत्सव बना दिया है। इसमें गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू है, पारंपरिक वेशभूषा की सादगी है, और लोकसंस्कृति की आत्मा है।
कार्तिक के दिन जब सूर्यास्त की बेला आती है, तब नदियों और तालाबों के किनारे श्रद्धा का सागर उमड़ पड़ता है। महिलाएँ पीले या लाल वस्त्रों में सजी, सिर पर सूप उठाए, दोनों हाथ जोड़ सूर्य देव को नमन करती हैं।
सामने दीपों की लौ, पीछे गीतों की गूंज, और ऊपर सूर्य की सुनहरी किरणें — यह दृश्य किसी स्वर्ग से कम नहीं लगता।
रातभर घाटों पर लोकगीत, भजन, और कीर्तन गूंजते रहते हैं। जब भोर होती है और पूरब की ओर से लालिमा फैलती है, तब उगते सूर्य को अर्घ्य देने का क्षण आता है।
वह क्षण केवल पूजा का नहीं, बल्कि जीवन में नई शुरुआत का प्रतीक होता है।
हर व्रती के हृदय में यह विश्वास जागता है कि जैसे सूर्य अंधकार मिटाकर प्रकाश लाता है, वैसे ही जीवन के सारे दुख मिट जाएँगे।
छठ पर्व का मूल भाव है — आत्मशक्ति पर विश्वास।
व्रती चार दिनों तक कठिन उपवास रखते हैं, नींद, भूख और थकान पर विजय प्राप्त करते हैं।
यह तपस्या उन्हें मानसिक दृढ़ता, आत्मसंयम और आत्मविश्वास देती है।
छठ हमें यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति वही है जो आत्मनियंत्रण से होकर गुजरती है।
पहले छठ केवल बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित था, लेकिन अब यह पूरे भारत और विदेशों तक फैल चुका है। दिल्ली, मुंबई, सूरत, कोलकाता, दुबई, लंदन और न्यूयॉर्क तक जहाँ भी बिहारवासी हैं, वहाँ छठ के घाट सजाए जाते हैं।
यह विस्तार केवल प्रवासी समाज की पहचान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की वैश्विक स्वीकार्यता का प्रतीक है।
छठ पर्व विज्ञान, संस्कृति और भक्ति का त्रिवेणी संगम है।
इसमें सूर्य की किरणों से स्वास्थ्य लाभ का वैज्ञानिक तत्व है,
लोकगीतों और परंपराओं में संस्कृति का सौंदर्य है,
और आत्मनियंत्रण के माध्यम से आध्यात्मिकता की साधना है।
इसलिए यह पर्व केवल पूजा का नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक कला है —
जहाँ भक्ति में अनुशासन है, श्रद्धा में विज्ञान है और संस्कृति में पर्यावरण का सम्मान है।
छठ पर्व भारतीय संस्कृति का वह उज्ज्वल दीपक है जो हर वर्ष हमें यह याद दिलाता है कि श्रद्धा में शक्ति है, संयम में सौंदर्य है और सादगी में भव्यता है।
यह पर्व हमें सिखाता है कि प्रकृति की पूजा केवल मंत्रों से नहीं, बल्कि मन की पवित्रता से होती है।
सूर्य देव को अर्घ्य देने वाला हर व्यक्ति यह संदेश देता है कि “प्रकाश ही जीवन है।”
छठ पर्व इस बात का सजीव प्रमाण है कि जब आस्था सच्ची होती है, तो वह धर्म, विज्ञान और समाज — तीनों को जोड़ देती है।
यह पर्व हमें सिखाता है कि जीवन का सच्चा अर्थ दिखावे में नहीं, बल्कि आत्मसंयम और प्रेम में है।
छठ केवल एक पर्व नहीं, यह विश्वास की वह दीया है जो हर वर्ष हमारे भीतर के अंधकार को मिटाकर नए उजाले का स्वागत करती है।
