तुलसी हमारे ग्रंथों में वर्णित एक अनोखा और अद्भुत पौधा है। इसमें लगभग सभी रोगों को दूर करने की विलक्षण शक्ति होती है। तुलसी शब्द का अर्थ ही तीनों प्रकार के अर्थात्- दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का संहार करने वाला है। तुलसी का पौधा भारत के अतिरिक्त ईरान, बर्मा, लंका, अफ्रीका, अरब, ब्राजील, यूरोप, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया तथा मलाया आदि देशों में भी पाया जाता है।
तुलसी का पौधा साधारणत: एक से तीन फुट ऊंचा होता है। कभी-कभी काफी मोटाई के साथ इसकी ऊंचाई छह फीट तक देखी गई है। तुलसी के इस प्रकार के मोटे पौधे प्राय: तुलसी की माला बनाने के काम में आते हैं। तुलसी की पत्ती गोलाई लिए लंबी होती है। जिसकी शाखाओं के सिरों पर बालें निकलती हैं। जिन्हें तुलसी के फूलों की मंजरी कहते हैं। तुलसी की मंजरियों में ही तुलसी के बीज होते हैं तुलसी के फूल साल भर खिलते रहते हैं। तुलसी का पौधा साधारणत: मार्च से जून तक लगाया जाता है। सितंबर और अक्टूबर में इसमें पुष्प लगने आरंभ होते हैं और जाड़े के दिनों में इसके बीज पकते हैं। तुलसी के नाम हैं- बृंदा, बहुमंजरी, वैष्णवी, सुरसा, ग्राम्या, सुलभा, देवदुंदुभी, सुगंधा, गंधहारिणी, अमृता, पत्रपुष्पा, श्यामा, रामा, गौरी, सुरबसल्लरी, विष्णुवल्लभा, सुरभि, शुलहानी। यह दो प्रकार की होती है एक सफेद और दूसरी काली।
कुछ लोगों के ख्याल से सफेद तुलसी की अपेक्षा काली तुलसी में अधिक गुण पाए जाते हैं। लेकिन भावप्रकाश के अनुसार काली व सफेद दोनों प्रकार की तुलसी के गुण समान होते हैं- शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्तिता। तुलसी की देशविभेद से कितनी ही जातियां होती हैं। जिसमें बबुई तुलसी, रामतुलसी, वन तुलसी मुख्य हैं। तुलसी में स्वास्थ्यवर्धक गंध होती है। जहां तुलसी के पौधे अधिकता से होते हैं वहां की वायु तुलसी की इस गंध की वजह से शुद्ध और साफ रहती है। इसी कारण भारत के हिन्दू घर में कम से कम तुलसी का एक पौधा रोपना जरूरी समझते थे। जो एक धार्मिक परंपरा बन गई है।
जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वह घर तीर्थ के समान पवित्र होता है तथा उस घर में (रोग रूपी) यमदूत नहीं आते। कारण, तुलसी की पत्तियों के संपर्क से वायु शुद्ध होती है और जब मनुष्य ऐसी शुद्ध हवा में सांस लेता है तो शरीर के प्रत्येक कोष पर बड़ा ही कल्याणकारी प्रभाव पड़ता है। जिसके फलस्वरूप शरीर का रक्त शुद्ध हो जाता है, फेफड़े निरोग बनते हैं तथा शरीर के सभी स्थूल व सूक्ष्म अवयव स्वस्थ और शक्तिशाली बनकर रोग को पास फटकने नहीं देते। यही कारण है कि प्राचीन भारत में रोगियों को तुलसी के जंगल या बगीचे में रखने की प्रथा थी। क्योंकि तुलसी की सुगंध वाली वायु से दसों दिशाएं और चारों भूतग्राम अर्थात आकाश, वायु, जल और पृथ्वी शुद्ध हो जाते हैं यथा- तुलसी गंधमादाय यत्र गच्छति मारुत। दिशो दश पुनात्याशु भूतग्रामांश्चतुर्विधान्।।
तुलसी के निकट बैठकर प्राणायाम करने से तुलसी की रोगनाशक सुगंधित वायु शरीर में प्रविष्ट होकर रोग के समस्त कीटाणुओं को नाश कर देती है, जिससे शरीर बलवान, वीर्यवान और मन प्रसन्न बनता है। सौंदर्य, तेज तथा ओज की वृद्धि होती है। यह बात प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है कि तुलसी की गंधयुक्त वायु में मच्छरों का प्रवेश नहीं होता। इसीलिए इसमें मलेरिया के कीटाणु नाश को प्राप्त हो जाते हैं। मच्छर ही नहीं, सभी प्रकार के दुखदायी जीवजंतु जैसे भुनगा, खटमल, झींगुर यहां तक कि सर्प भी तुलसी की गंध से भाग जाते हैं। इसीलिए तुलसी का एक नाम अपेतराक्षसी भी मशहूर है। जिसका अर्थ है राक्षसरूपी रोग के कीटाणुओं को मार भगाने वाला। कपड़े-लत्तों के बाक्स में तुलसी की कुछ पत्तियां रख छोडऩे से कपड़ों में कीड़े आदि नहीं लगते और न ही चूहे काटते हैं।
तुलसी की कुछ पत्तियां साधारण जल में डाल देने से वह सारा का सारा जल तुलसी की पत्तियों की गंध से सुवासित होकर तुलसीदल के समान गुणकारी हो जाता है। यदि किसी जगह का पानी दूषित हो, जिससे स्वास्थ्य हानि पहुंचने की संभावना हो, उस पानी को दोषमुक्त करने के लिए उसमें तुलसी के पत्ते छोड़ देने चाहिए। ऐसा करने से वह पानी कभी नुकसान नहीं करेगा। इसके अतिरिक्त तुलसी के कुछ पत्तों को कुछ देर तक जल में रखकर उन्हें एक घूंट उसी जल के साथ रोज सुबह स्नानादि से निबट कर सेवन करने से कई रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है। इससे बल और तेज बढ़ता है और मेधा-स्मरणशक्ति तेज होती है। संभवत: प्राचीन ऋषियों ने इसी कारण विष्णुपूजन के बाद तुलसीदल सहित चरणामृत पान करने की परिपाटी निकाली थी जो आज भी प्रचलित है। वायु और जल की तरह तुलसी की स्वास्थ्यवर्धक गंध से प्रभावित होकर तुलसी के नीचे एवं आसपास की मिट्टी भी विशुद्ध और तुलसी के समान गुणकारी हो जाती है।