महाभारत के युद्ध ने द्रौपदी की उम्र को 80 वर्ष जैसा कर दिया था शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। उसकी आंखें मानो किसी गड्डे में धंस गई थीं, उनके नीचे के काले घेरों ने उसके रक्ताभ कपोलों को भी अपनी सीमा में ले लिया था। श्याम वर्ण और अधिक काला हो गया था।
युद्ध से पूर्व प्रतिशोध की ज्वाला ने जलाया था और युद्ध के उपरांत पश्चाताप की आग तपा रही थी। ना कुछ समझने की क्षमता बची थी और न ही सोचने की। कुरुक्षेत्र में चारों तरफ लाशों के ढेर थे। जिनके दाहसंस्कार के लिए न लोग उपलब्ध थे और न ही साधन।
शहर में चारों तरफ विधवाओं का बाहुल्य था। पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ते थे। अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे। महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को ताक रही थी। तभी कृष्ण कक्ष में प्रवेश करते हैं। महारानी द्रौपदी की जय हो। द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है। कृष्ण उसके सिर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं। थोड़ी देर में उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बैठा देते हैं।
‘द्रौपदी- यह क्या हो गया। ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था।‘
‘कृष्ण- नियति बहुत क्रूर होती है। पांचाली, वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है। तुम प्रतिशोध लेना चाहती थीं और तुम सफल हुर्ईं द्रौपदी। तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ। सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गए। तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए।‘
‘द्रौपदी- तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए।‘
‘कृष्ण- नहीं द्रौपदी, मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूं। हमारे कर्मों के परिणाम को हम दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं तो हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता।‘
‘द्रौपदी- तो क्या इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूं भगवान?’
‘कृष्ण- नहीं द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो। लेकिन तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी भी दूरदर्शिता रखतीं तो स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पातीं।‘
‘द्रौपदी- मैं क्या कर सकती थी भगवान?’
‘कृष्ण- जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करतीं और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देतीं तो शायद परिणाम कुछ और होते। इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया, तब तुम उसे स्वीकार नहीं करतीं तो भी परिणाम कुछ ओर होते और उसके बाद तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया, वह नहीं करतीं तो तुम्हारा चीरहरण नहीं होता।
तब भी शायद परिस्थितियां कुछ और होतीं।‘
‘हमारे शब्द भी हमारे कर्म होते हैं द्रौपदी और हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तौलना बहुत जरूरी होता है। अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ स्वयं को ही नहीं अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं।‘
‘अब तुम हस्तिनापुर की महारानी हो और इस समय हस्तिनापुर बहुत कष्ट में है। तुम्हें महाराज युधिष्ठिर की निराशा को समाप्त करके उन्हें गतिशील करना होगा। हस्तिनापुर के पुनरुद्धार का कार्य तीव्र गति से करना होगा। उठो और अपने कर्म में लग जाओ। यही प्रकृति का संकेत है।‘
‘हमें कुछ कहते वक्त अपने शब्दों का चयन होशियारी और समझदारी से करना चाहिए।‘ साथ ही इस बात का अनुमान भी हमें होना चाहिए कि उसका परिणाम क्या निकलेगा।
अगर हम यह अनुमान लगाने में सक्षम होंगे तो हम आसानी से विचार कर सकते हैं कि हमें क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए।
बोलने की कला और व्यवहार कुशलता के बगैर प्रतिभा हमेशा हमारे काम नहीं आ सकती। शब्दों से हमारा नजरिया झलकता है। शब्द दिलों को जोड़ सकते हैं, तो हमारी भावनाओं को चोट भी पहुंचा सकते हैं और रिश्तों में दरार भी पैदा कर सकते हैं।
सोचकर बोले, न कि बोल के सोचें। समझदारी और बेवकूफी में यही बड़ा फर्क है, जिसके अंतर को हमेशा ध्यान में रखना जरूरी है।