मूल्य, मर्यादा और सहभागिता ही वास्तविक लोकतंत्र का आधार

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लोकतंत्र का आधार ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन।Ó यह विचार अपने आप में सरल, स्पष्ट और सार्वभौमिक है, किंतु जब इसे सामाजिक संरचना, जातीय विविधता और जनसंख्या के बदलते स्वरूप के सन्दर्भ में देखा जाए, तब इसकी जटिलता और चुनौतीपूर्ण स्वरूप सामने आता है।
भारत जैसे विशाल, विविध और बहुलतावादी देश में यह प्रश्न और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है । क्या लोकतंत्र तब भी उतना ही प्रभावी और निष्पक्ष रह पाता है जब उसकी जनसांख्यिकीय (डेमोग्राफिक) संरचना लगातार बदलती रहे? क्या इंटेंशनली डेमोग्राफी बदलना और किसी खास राजनीतिक पार्टी के समर्थक बसा कर चुनाव जीत जाना लोकतंत्र है?
 डेमोग्राफी का सीधा सम्बन्ध जनसंख्या की जातीय, धार्मिक, भाषाई, और सांस्कृतिक बनावट से है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रतिनिधित्व का सिद्धांत महत्वपूर्ण होता है। हर समूह, हर वर्ग को उसका उचित स्थान और आवाज़ मिले।
परंतु जब डेमोग्राफिक समीकरण किसी विशेष समूह की अत्यधिक वृद्धि या अन्य समूहों के हाशिए पर जाने की दिशा में बदलते हैं, तब यह संतुलन टूटने लगता है। इस असंतुलन का सीधा प्रभाव लोकतांत्रिक संस्थाओं की निष्पक्षता, नीति निर्माण और सामाजिक न्याय पर पड़ता है।  वर्तमान समय में अनेक देशों में यह संकट उभरकर सामने आया है कि डेमोग्राफिक परिवर्तन , चाहे वह प्रवास (द्वद्बद्दह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ) के कारण हो या प्रजनन दर के अंतर से  राजनीतिक परिदृश्य को  प्रभावित करता है। भारत में भी यह मुद्दा संवेदनशील और गंभीर होता जा रहा है। यदि एक विशेष धार्मिक या जातीय समूह की जनसंख्या अत्यधिक बढ़ती है, और अन्य समूह सांस्कृतिक, आर्थिक या शैक्षिक पिछड़ाव के कारण पिछड़ते हैं, तो यह न केवल सामाजिक विषमता को जन्म देता है, बल्कि लोकतंत्र के भीतर बहुमतवाद (द्वड्डद्भशह्म्द्बह्लड्डह्म्द्बड्डठ्ठद्बह्यद्व) की विकृत छाया भी फैलने लगती है।
 लोकतंत्र बहुमत से चलता है, यह बात सही है, परंतु एक परिपक्व लोकतंत्र वह होता है जहाँ बहुमत की ताकत का दुरुपयोग न हो, और अल्पसंख्यकों की आवाज़ भी समान रूप से सुनी जाए। इसके लिए डेमोग्राफिक संतुलन आवश्यक है। यह संतुलन केवल संख्यात्मक ही नहीं होता, बल्कि अवसरों, संसाधनों और प्रतिनिधित्व में भी होता है। यदि किसी विशेष क्षेत्र में कोई एक समुदाय जनसंख्या में इतना अधिक बढ़ जाए कि वह अन्य सभी समुदायों की राजनीतिक आवाज़ को दबा दे, तो वहाँ लोकतंत्र केवल एक ‘सांख्यिकीय खेलÓ बनकर रह जाता है, उसके नैतिक और न्यायपूर्ण मूल्य बिखरने लगते हैं।
 भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों, केरल, पश्चिम बंगाल, असम, और दिल्ली जैसे क्षेत्रों में यह चिंता समय-समय पर उठती रही है कि जनसांख्यिकीय बदलावों के कारण मूल निवासी या परंपरागत समुदायों का प्रभाव कम होता जा रहा है। जब जनसंख्या असंतुलन,  की दिशा में बढ़ती है, तो उससे सामाजिक तनाव, सांस्कृतिक संघर्ष और राजनीतिक ध्रुवीकरण जन्म लेता है। इस प्रक्रिया में लोकतंत्र का मूल उद्देश्य  समावेशिता, सहभागिता और न्याय  कमजोर पड़ जाता है।
 यह कहना आवश्यक है कि डेमोग्राफिक नियंत्रण का अर्थ किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाना नहीं होना चाहिए। बल्कि यह प्रयास होना चाहिए कि सभी समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और आर्थिक विकास के समान अवसर मिलें ताकि संपूर्ण समाज संतुलित और स्थिर गति से आगे बढ़े। जब सभी वर्गो में प्रजनन दर, जीवन स्तर और संसाधनों तक पहुँच में संतुलन होता है, तभी लोकतंत्र सशक्त और वास्तविक बनता है।
दूसरी ओर, यदि किसी समुदाय की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि होती है परंतु वह शिक्षा, आर्थिक सहभागिता और समरसता की दिशा में पीछे रहता है, तो इससे केवल उसका ही नहीं, पूरे राष्ट्र का सामाजिक और राजनीतिक ताना-बाना प्रभावित होता है। अत: जनसांख्यिकीय संतुलन केवल सांख्यिकीय चुनौती नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की स्थिरता और सामाजिक समरसता का आधार है।  इसके अतिरिक्त, ‘वोट बैंक की राजनीतिÓ भी डेमोग्राफिक असंतुलन को भुनाने का कुटिल प्रयास करती है। यदि किसी समुदाय की जनसंख्या राजनीतिक दलों के लिए बहुमूल्य मतदाता संख्या में परिवर्तित हो जाती है, तो नीति निर्धारण उस समुदाय की तुष्टिकरण की दिशा में झुक जाता है, जिससे नीति का उद्देश्य ‘सार्वजनिक कल्याणÓ से हटकर ‘राजनीतिक लाभÓ हो जाता है। इससे लोकतंत्र की आत्मा पर गहरी चोट पहुँचती है।  इसलिए, वास्तविक लोकतंत्र की संकल्पना केवल चुनावों, मतदाता सूची या संसदीय व्यवस्था तक सीमित नहीं होनी चाहिए। यह एक सामाजिक अनुबंध है, जिसमें हर नागरिक, हर समुदाय और हर संस्था का संतुलित सहभाग आवश्यक है। यह तभी सम्भव है जब डेमोग्राफी एक स्थिर और संतुलित स्थिति में रहे । न कोई समुदाय अत्यधिक प्रभुत्व में हो, न कोई पूरी तरह उपेक्षित समावेशी भाव प्रधान हो।
 भारत की विविधता इसकी शक्ति है, लेकिन यह शक्ति तभी टिकाऊ बन सकती है जब जनसंख्या के सभी घटक बराबरी के सहभागी बनें। इसके लिए जनसांख्यिकीय संतुलन, समरसता, और समान अवसरों की व्यवस्था को प्राथमिकता देनी होगी।
 वास्तविक लोकतंत्र का उदय तब होगा जब संख्या के खेल से परे जाकर, मूल्यों, मर्यादा और सहभागिता की राजनीति को अपनाया जाएगा।  यह तभी सम्भव है जब सायास डेमोग्राफी बदले बिना,  लोकतांत्रिक प्रदर्शन हो।
विवेक रंजन श्रीवास्तव 

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