
डॉ घनश्याम बादल
आज दीपावली धूम धड़ाके, रोशनी एवं पटाखों का सबसे बड़ा उत्सव बनकर सामने है व्यापार, बाज़ार एवं सरकार तथा धार्मिकसंस्थान सब दीपावली को अपने तरीके से परिभाषित करते रहे हैं लेकिन जैसा कि नाम से स्पष्ट है दीपावली दीपों का पर्व है और इसका वर्णन पुराणों में भी दीपपर्व के रूप में मिलता है न कि पटाखापर्व के रूप में ।
दीवाली शब्द संस्कृत के दो शब्दों ‘दीवा’ और ‘अवली’ यानि पंक्ति से मिलकर बना है जिसका एक अर्थ है कि पंक्ति में रखे हुए दीपक।
रोशनी और दीपक
स्कन्द पुराण में दीपक को रोशनी का प्रतिनिधि माना गया है। इतिहास की मानें तो सातवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने दिवाली के पर्व को ‘दीपप्रतिपादुत्सव:’ बताया है ।
श्रीराम, लक्ष्मी और दीवाली
जनश्रुतियों के अनुसार चौदह वर्ष के वनवास के बाद जब श्रीराम 14 वर्ष के वनवास पश्चात रावण का वध करके लक्ष्मण व सीता सहित अयोध्यआ लौटे तो उनके स्वागत में अयोध्या नगर को दीयों से जगमगाया गया था तभी से हिंदू धर्म में यह पर्व मनाया जाने लगा । एक मिथक यह भी है कि आज के दिन धन की देवी लक्ष्मी उल्लू पर सवार होकर पृथ्वी लोक पर आती है और धन संपदा का वितरण करती है।
मिठाई, सफ़ाई और सजावट
दीप जलाने के अलावा दीपावली से पहले साफ-सफाई व घर तथा व्यापारिक संस्थानों की सजावट करना, नए कपड़े पहनना, पकवान व मिठाई खाना, बांटना व बनाना, मां लक्ष्मी की पूजा करना आदि समय के साथ परंपरा रूप में जुड़ते चले गए।
दिवाली से जुड़ी ऐसी ही एक और परंपरा बन गई है, पटाखे जलाना । उच्चतम न्यायालय व कई राज्य सरकारों द्वारा वायु प्रदूषण रोकने के लिए पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद पटाखे जलाना आज भी दिवाली समारोह का एक अभिन्न हिस्सा है ।
कब व कहां से आए पटाखे ?
इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि कब पटाखे जलाना दिवाली का हिस्सा बन गया मगर इतिहासकारों के अनुसार आतिशबाजी का उपयोग 1400 ईस्वी के बाद शुरू हुआ। युद्ध में इस्तेमाल होने वाले बारूद के आविष्कार और धमाकों ने लोगों को भयभीत भी किया और मोहित भी शायद इसी से दीपावली पर भी बारूद या पोटाश के बने हुए पटाखे चलाए जाने लगे मगर दिवाली के दौरान पटाखों का उपयोग 18वीं शताब्दी से पहले शुरू नहीं हुआ था तब मराठा शासकों ने आम जनता के लिए आतिश बाजी का आयोजन किया था।
आज़ादी के बाद भारतीय उद्योगों ने पटाखों का निर्माण शुरू किया और वे जल्दी ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो गए।
पटाखे मतलब प्रदूषण
किंतु आज देश महानगरों एवं शहरों तथा कस्बों तक में पटाखों के कारण विशेष तौर पर दिवाली के अवसर पर हवा में प्रदूषण का स्तर बहुत खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है और इसकी वजह से लोगों को सांस तक लेने में तकलीफ़ होती है । दीपावली के कई दिन बाद तक हवा की गुणवत्ता खराब रहती है। दिल्ली एवं गुड़गांव जैसे महानगरों में तो से ए आई क्यू 500 का आंकड़ा भी पार कर जाता है। जो आंखों, त्वचा, हृदय एवं सांस के रोगियों के लिए बहुत ही ख़तरनाक है।
दिवाली पर पटाखे जलाना खुशी मनाने का एक सबब बन गया है। हालांकि पर्यावरण प्रदूषण को देखते हुए हर साल पटाखे न फोड़ने की अपील सरकार व विभिन्न पर्यावरण तथा सामाजिक संगठनों द्वारा की जाती है । वहीं कुछ लोग दिवाली पर पटाखे फोड़ना शुभ मानते हैं ।
सामने आया न्यायालय
एक जनहित याचिका के जवाब में अभी-अभी उच्चतम न्यायालय व कई राज्यों द्वारा पटाखों के उत्पादन, भंडारण और बिक्री को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए गए हैं दिल्ली में तो उच्चतम न्यायालय ने केवल ग्रीन पटाखे और वह भी सीमित समय तथा सीमित मात्रा में जलाने की ही छूट दी है लेकिन देखना यह है कि इन आदेशों का पालन कहां तक हो पाता है।
जहां पर्यावरणविद् पटाखों के जलाने पर रोक लगाने की बातें करते हैं वहीं परंपरावादी हिंदू इस बात पर आपत्ति भी करते हैं कि दीपावली पर ही इस प्रकार के बंधन क्यों ? जबकि ईद क्रिसमस, उत्सव, शादी विवाह व खुशियों के अवसर पर भी पटाखे खूब चलाए जाते हैं । उनका प्रश्न है कि क्या तब प्रदूषण नहीं होता ? यदि देखें तो उनकी बात ग़लत भी नहीं है लेकिन कटु सत्य यह भी है कि पटाखों का दिवाली से धार्मिक दृष्टि से कोई संबंध नहीं है. यह तो बाद में उसमें जुड़ी हुई एक कुरीति की तरह ही है जो आज दीपावली के हर्ष को लील रही है ।
दीप जलाएं, पटाखे नहीं
बेहतर हो कि सरकार केवल दीपावली पर ही नहीं अपितु अन्य अवसरों पर भी पटाखे तथा प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे घटकों पर रोक लगाएं । इससे भी अच्छा यह रहे कि हम अपनी इच्छा से लगातार बढ़ते हुए पर्यावरण प्रदूषण एवं बीमारियों को ध्यान में रखते हुए पटाखों को ‘ना’ कहें तथा इस बार दिवाली पर देसी दीयों से अपने घरों को सजाएं, घरों में दीपक जलाएं मगर पटाखे जलाने से बचें। ऐसा करके हम अपने पैसे वातावरण पर्यावरण एवं स्वास्थ्य तीनों की ही रक्षा कर रहे होंगे।