वैश्विक कूटनीति का चातुर्य काल, मोदी डॉक्ट्रिन से मजबूत हुआ भारत

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 वैश्विक कूटनीति के चातुर्य काल का तात्पर्य उस दौर से है जब विश्व के देशों के बीच कूटनीति (राजनय) और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में निपुणता, समझदारी और रणनीतिक कुशलता अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। इस काल में देशों को सीमाओं के पार जटिल राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संदर्भों में अपने हितों की रक्षा और विस्तार के लिए सूझ-बूझ, संतुलन, संवाद, और मध्यस्थता करनी पड़ती है। 21वीं सदी में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैश्विक कूटनीति के चातुर्य काल के अधिष्ठाता समझे जाते हैं। उन्होंने समकालीन विश्व को जो कूटनीतिक संदेश दिया है, वह मोदी डॉक्ट्रिन यानी मोदी सिद्धांत के नाम से मशहूर है।

 

कहना न होगा कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का यह काल वैश्विक सत्ता संघर्ष, क्षेत्रीय विवाद, आर्थिक साझेदारी, तकनीकी और आर्थिक सहयोग तथा बहुपक्षीय कूटनीतिक पहलों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय माहौल को स्थिर और सकारात्मक बनाए रखने के लिए दक्षता और चतुराई की आवश्यकता पर जोर देता है। उदाहरण के रूप में, भारत की हाल की विदेश नीति में अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता, मध्य पूर्व संघर्ष, रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे वैश्विक तनावों के बीच तटस्थता और संतुलन बनाए रखने की रणनीति, और क्षेत्रीय सहयोग जैसे क्वाड पहल शामिल हैं जो वैश्विक कूटनीति के चातुर्य काल की एक झलक हैं।

 

निःसन्देह, इस काल में कूटनीतिक क्रियाकलाप बिना बल प्रयोग के अपने राष्ट्रों के योगदान और सुरक्षा सुनिश्चित करने पर केंद्रीत होते हैं। इसलिए, वैश्विक कूटनीति के चातुर्य काल का मतलब समग्र वैश्विक वातावरण में सूझ-बूझ और सामंजस्यपूर्ण कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से अपने और वैश्विक हितों को संतुलित और सुरक्षित रूप से आगे बढ़ाने की क्षमता को कह सकते हैं। यह मोदी डॉक्ट्रिन यानी मोदी सिद्धांत से प्रभावित है।

 

दरअसल, मोदी डॉक्ट्रिन का मतलब है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह नीति-संहिता, जिसमें भारत अपनी विदेश नीति, सुरक्षा नीति और आतंकवाद के खिलाफ रणनीति में पहले से काफी ज्यादा आक्रामक, आत्मनिर्भर और सक्रिय हो गया है। इस सिद्धांत के तहत भारत हर अंतरराष्ट्रीय मसले में ‘भारत के हित’ को सर्वोपरि रखता है। भारत अब किसी एक गुट का हिस्सा नहीं बनता, बल्कि सभी देशों से कूटनीतिक संबंध मजबूत करता है। भारत ‘मल्टी-अलाइनमेंट’ को प्रोत्साहित करता है ताकि उसकी रणनीतिक स्वतंत्रता बनी रहे।

 

लिहाजा, ‘मेक इन इंडिया’ और आर्थिक-तकनीकी आत्मनिर्भरता का भी इसमें खास महत्व है। मोदी डॉक्ट्रिन के अनुसार, भारत अब आतंकवाद के खिलाफ सिर्फ डिफेंसिव नहीं, बल्कि आक्रामक रणनीति अपनाता है। सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयर स्ट्राइक और ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाइयों ने यह दिखाया है कि भारत अब अपनी सुरक्षा के लिए सीमा-पार कार्रवाई करने से नहीं डरता। अब भारत आतंकवादियों के खिलाफ डोजियर भेजने की नीति को छोड़कर, सीधे सैन्य दबाव बनाता है।

 

भारत की संप्रभुता के खिलाफ किसी भी कार्रवाई पर तत्काल और कठोर जवाब दिया जाता है। किसी भी तरह के परमाणु युद्ध या जमीनी युद्ध के डर से भारत पीछे नहीं हटता; बल्कि भारत अपनी शर्तों पर कार्रवाई करता है। भारत की मजबूत स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के ऊपर परोक्ष रूप से चीनी/अमेरिकी हाथ होने के बावजूद भारत ने उसके छक्के छुड़ा दिया और युद्धोंमत पाकिस्तान को भारत के समक्ष घुटने टेकने व गिड़गिड़ाने को मज़बूर कर दिया।

 

भारतीय संस्कृति, सभ्यता और योग जैसे वैश्विक अभियान भी इसी नीति का हिस्सा हैं। मोदी डॉक्ट्रिन का मतलब है – निर्णायक, निर्भीक, आक्रामक, बहुपक्षीय, आत्मनिर्भर और भारत-हित केंद्रित नीति, जिससे भारत वैश्विक मंच पर ज्यादा शक्तिशाली स्थिति में पहुंचा है। मसलन, आधुनिक संकटों में चातुर्य काल की अवधारणा को लागू करने का मतलब है जीवन में अनुशासन, संयम, और सूझ-बूझ के साथ संकटों का सामना करना। चातुर्य काल में आत्मसंयम, भक्ति, सामाजिक नियमों का पालन, और मानसिक संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण होता है। इसी प्रकार, आधुनिक संकटों में- जैसे आर्थिक संकट, पर्यावरणीय समस्याएं, सामाजिक अस्थिरता या वैश्विक तनाव- इन गुणों का पालन करके स्थिरता और समाधान की दिशा में काम किया जा सकता है।

 

चातुर्य काल की तरह, जब हम सीमित संसाधनों में संयमित और विवेकपूर्ण निर्णय लेते हैं, अपने जीवन में नियम और संतुलन बनाए रखते हैं, तो कठिनाइयों का सामना करना आसान हो जाता है। जैसे पारंपरिक चातुर्मास में व्रत और तपस्या से मन की शांति और अनुशासन मिलता है, वैसे ही आधुनिक संकटों में धैर्य, समझदारी, और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। इसका अर्थ है कि जब बाहरी परिस्थितियाँ अनिश्चित या कठिन हों, तब भी आंतरिक स्थिरता, नैतिकता, और सामाजिक जिम्मेदारी बनाए रखते हुए समाधान खोजने का प्रयास करना। आधुनिक दुनिया में यह वैश्विक कूटनीति, पर्यावरण संरक्षण, आर्थिक नीति, और सामाजिक सौहार्द जैसे क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है, जहां सरल जीवन और विवेकपूर्ण कूटनीति से संकट प्रबंधन संभव होता है।

 

वाकई वैश्विक कूटनीति के ‘चातुर्य काल’ के बाबत भारत के प्रधानमंत्री मोदी सिद्धांत को इस अद्भुत ‘चातुर्य काल’ का श्रेय देना ज्यादा उपयुक्त होगा, क्योंकि समकालीन विश्व में चाहे अमेरिका हो, चीन हो, रूस हो, यूरोपीय संघ हो, या अरब देश हों, सभी भारत के युगांतरकारी गुटनिरपेक्ष कूटनीति की मुखापेक्षी बने हुए हैं। चाहे ऑस्ट्रेलिया हो, अफ्रीकी देश हों या दक्षिण अमेरिकी देश, लगभग सभी भारत की तरह संतुलित राह पर अग्रसर रहना चाह रहे हैं। भारत की बढ़ती प्रगति और मजबूत होते आर्थिक व सैन्य सामर्थ्य से उनकी परिवर्तित निष्ठा भी स्वाभाविक है।

 

चूंकि दुनिया के अधिकांश देश रूढ़िवादी/अनुदार देश हैं, इसलिए वो देश भारत की जनापेक्षी मौलिक नीतियों की नकल भी सही तरीके से नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए इसको नख से सिख तक समझना हरेक भारतीय के लिए बहुत जरूरी है। सच कहूं तो शांतिपूर्ण विकास व सहअस्तित्व का सिद्धांत ही मोदी प्रशासन का एकमात्र ध्येय है लेकिन इससे हथियार व गोली-बारूद निर्माता षड्यंत्रकारी पश्चिमी-पूर्वी देशों की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी है।

 

कहना न होगा कि पश्चिमी देश भले ही लोकतंत्र व शांति की माला जपते हैं लेकिन पर्दे के पीछे से अशांति पैदा करने के लिए आतंकवाद, नक्सलवाद और अंडरवर्ल्ड के गुप्त संरक्षक भी यही हैं ताकि इनके हथियार व गोली बारूद का कारोबार चमकता रहे। इनके नशे और आपराधिक गोरखधंधे का तस्करी नेटवर्क खूब फले-फूले । इससे चिकित्सा व सुरक्षा उपकरणों की बिक्री भी खूब बढ़ती है। क्रिप्टो करेंसी व हवाला की आड़ में ये पूरी दुनिया को अस्थिर व असुरक्षित बनाये हुए हैं।

 

हालांकि, जब दुनिया के विभिन्न देशों की समझदारी बढ़ी व पूंजीवादी कब्जे तथा लाभ के एकसमान बंटवारे की बात उठी तो उनमें परस्पर होड़ मच गई। फिर इन्होंने क्षेत्र व धर्म के नाम पर इनकी पारस्परिक गोलबंदी बढ़ी। जहां एक ओर ईसाई व यहूदी देश एक हुए, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम देश भी परस्पर एक हुए। इससे तीसरी ओर भी जागरूकता बढ़ी और विश्व के हिन्दू-बौद्ध-सिख-जैन धर्म आदि धर्मों से प्रभावित देश भी एकजूट होने के लिए सोचने लगे और भारत-चीन जैसे सामर्थ्यवान देशों ने अपने अंतर्विरोधों को पाटने को सतर्क हो गए।

 

यदि पुरानी प्रतिद्वंद्विता की बात छोड़ भी दें तो मौजूदा दौर में जी-7, जी-20 बनाम ब्रिक्स व ग्लोबल साउथ के देशों में जो स्वहित साधन की होड़ मची हुई है, उसका ध्येय भी लगभग यही है। इसलिए कोई अमेरिकी छतरी तले जा रहा है तो कोई उसे उतारकर फेंक रहा है। कोई चीनी छतरी में जाने को बेताब है तो कोई इससे परहेज कर रहा है। इससे रूस व भारत की वैश्विक साख पुनः चमक उठी है। दुनियावी देश इनकी वस्तुनिष्ठ नीतियों पर फिदा हुए हैं।इससे परेशान अमेरिका-यूरोप के द्वारा जहां रूस के विरोधी यूक्रेन को भड़काकर रूस पर निरंतर हमलावर बना दिया गया है, वहीं भारत के खिलाफ पाकिस्तान/बंगलादेश को अक्सर सहयोग देकर खड़ा कर दिया जाता है।

 

उधर, सम्भावित रूस, भारत, चीन गठजोड़ को कमजोर करने के लिहाज से तीसरे प्रमुख देश चीन के खिलाफ भी कभी ताइवान को भड़काया जाता है तो कभी तिब्बत के मसले की हवा दी जाती है। कभी चीन के शिनजियांग प्रान्त के मुस्लिम उत्पीड़न को उभारने की कोशिश की जाती है।चूंकि रूस-चीन-भारत के अंतर्विरोधों से दुनिया सशंकित रहती है, इसलिए क्षुद्र अमेरिकी कूटनीति प्रायः हर जगह सफल हो जाती है।

 

हालांकि, इसी प्रतिक्रियास्वरूप अमेरिका पूरी दुनिया में जहां-जहां भी खड़ा होने के लिए मेहनत करता है, वहां-वहां रूस-चीन-ईरान भी उसके पांव उखाड़ने में मशगूल लगते हैं। यदि वियतनाम, लीबिया, इराक युद्ध में अमेरिकी विफलता की बात अभी भुला भी दी जाए तो अफगानिस्तान से लेकर अरब व खाड़ी देशों तक में अमेरिकी पांव उखाड़ने में रूस-चीन सफल होते प्रतीत हो रहे हैं। नाटो की तर्ज पर इस्लामिक नाटो बनना इस नजरिए से एक बड़ा संकेत है। इसमें पाकिस्तान ने भी रूस-चीन का गुप्त साथ दिया है। जिससे अमेरिका यहां भी अलग-थलग पड़ गया है।

 

यद्यपि इजरायल को लेकर अमेरिका अरब और खाड़ी देशों में अपनी मौजूदगी रखता है, फिर भी यहां ईरान उसके खिलाफ है। चूंकि इजरायल तो अकेले सभी मुस्लिम देशों की नाक में दम कर रखा है, इससे शिया व सुन्नी देश में बंटे अरब व खाड़ी देश भी पारस्परिक बैरभाव भूलकर पश्चिमी नाटो की तर्ज पर इस्लामिक नाटो बना रहे हैं। वहीं, पाकिस्तान जैसा दोगला मुल्क इस्लामिक संघ के साथ है, अमेरिका के साथ है या चीन के साथ, भरोसे के साथ कुछ भी कहा नहीं जा सकता। सुन्नी देश पाकिस्तान, सऊदी अरब और तुर्किये के साथ है, लेकिन ईरान के साथ रहेगा या नहीं, वही जाने।

 

इसी तरह से भारत और इजरायल में समझदारी भरी मित्रता है क्योंकि दोनों के अस्तित्व को मुस्लिम एकजुटता से खतरा है। यह भारतीय कूटनीति का ही कमाल है कि  इजरायल के दुश्मन ईरान से भी भारत की अच्छी समझदारी भरी मित्रता है। पहले अमेरिकी प्रभाववश ईरान से दूरी बनी थी, लेकिन रूस के साथ मिलकर उसे भी पाट दिया गया। भारत एक साथ अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, जापान, ऑस्ट्रेलिया, उत्तरकोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील आदि को साधकर अपने विकास की ओर अग्रसर है। इससे अमेरिका के पेट में मरोड़ उठता रहता है, जबकि रूस भारतीय मित्रता भाव से संतुष्ट रहता है। यही भारत की ताकत भी है।

 

देखा जाए तो दुनियावी देशों की इन सब द्विपक्षीय कोशिशों का एक मात्र ध्येय यही है कि खुद को आर्थिक व सैन्य दृष्टि से निरंतर मजबूत कीजिए, और अपने हित साधन के लिए दूसरे देशों को परस्पर उलझते रहने दीजिए। जब भी मौका मिले तो निज स्वार्थ के खातिर लोकतंत्र, शांति व विकास  की माला जपिए, लेकिन कहीं तानाशाहों को बढ़ावा दीजिए तो कहीं चरणरज मूर्ख नेताओं को जनतांत्रिक गद्दी दिलवाइए ताकि उनकी मदद की आड़ में वहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूटा जा सके और अपना लाभदायक व्यापार उन पर थोपा जा सके।

 

हालांकि, पहले औद्योगिक क्रांति और फिर सूचना क्रांति ने दुनिया के सभी देशों को जगा दिया है। जैसे प्राचीन युग में भूमि-पशुधन संसाधनों पर काबिज होने के लिए युद्ध होते थे, उसी तरह से मध्य युग में धर्म के नाम पर धर्मयुद्ध होने लगे। इसी बीच औद्योगिक क्रांति होने से जब पूंजीवादी देश लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों पर हावी होने लगे तो इन्हीं में से कुछ ने साम्यवाद और समाजवाद का स्वर बुलंद करके इन्हें काबू में रखने की कोशिशें की। रूस-चीन को इसका श्रेय जाता है।

 

इसी दौर में यानी 20वीं सदी में यूरोपीय देशों में दो दो विश्व-युद्ध हुए, जिसमें एशियाई उपनिवेशों को भी शामिल किया गया। सच कहूं तो भारत-चीन जैसे एशियाई देशों को आजाद करवाने में इन विश्व युद्धों की बड़ी भूमिका है क्योंकि इससे इंग्लैंड कमजोर हुआ। बताते चलें कि प्रथम विश्व युद्ध मुख्य रूप से दो गठबंधनों के बीच लड़ा गया था: एक ओर मित्र राष्ट्र, जिनमें फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, इटली और संयुक्त राज्य अमेरिका (बाद में शामिल) जैसे देश थे, और दूसरी ओर केंद्रीय शक्तियाँ, जिनमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य शामिल थे।

 

हालांकि रूस बाद में युद्ध से हट गया। जबकि इटली (1915 से) और संयुक्त राज्य अमेरिका (1917 से) प्रथम विश्व युद्ध में जुड़ गए थे। अन्य देश जैसे जापान, सर्बिया, ग्रीस और अन्य देश बाद में मित्र राष्ट्रों में शामिल हुए। वहीं, केंद्रीय शक्तियाँ में जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ओटोमन साम्राज्य, बुल्गारिया शामिल थे। यह युद्ध एक वैश्विक संघर्ष था जिसकी शुरुआत सर्बिया और ऑस्ट्रिया-हंगरी के बीच एक क्षेत्रीय संघर्ष के रूप में हुई थी, लेकिन बाद में यह कई यूरोपीय साम्राज्यों के बीच फैल गया और इसमें 30 से अधिक देशों ने हिस्सा लिया।

 

वहीं, दो दशक बाद पुनः हुआ द्वितीय विश्व युद्ध मुख्य रूप से दो सैन्य गठबंधनों के बीच हुआ था: धुरी शक्तियाँ (जर्मनी, इटली और जापान) और मित्र राष्ट्र (मुख्यतः ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और चीन) के बीच। यह 1939 से 1945 तक चला, जो मानव इतिहास का सबसे बड़ा और रक्तरंजित संघर्ष था। इस बार धुरी शक्तियाँ में नाज़ी जर्मनी, फ़ासीवादी इटली, शाही जापान शामिल थे। जबकि मित्र राष्ट्र में ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, फ्रांस, चीन। यह युद्ध दुनिया के लगभग सभी देशों को प्रभावित करने वाला एक वैश्विक संघर्ष था और इसके परिणामस्वरूप दुनिया के राजनीतिक शक्ति संतुलन में बड़ा बदलाव आया।

 

दोनों विश्व युद्ध इसलिए हुए कि पहले इंग्लैंड अपने हित के मद्देनजर दूसरे देशों को शत्रुतापूर्वक यूज एंड थ्रो करता था। कहा जाता था कि ग्रेट ब्रिटेन के राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चतुराई पूर्वक अमेरिका ने इंग्लैंड की जगह ले ली और इंग्लैंड को अपना सहयोगी बना लिया। फिर अमेरिका-यूरोप मिलकर यूएसएसआर यानी रूस आदि के संघ को चुनौती देने लगे।इस प्रकार इंग्लैंड, फ्रांस, इटली विरोधी जर्मनी की जगह अब रूस ने ले ली है। जबकि, जर्मनी की कारोबारी सहानुभूति अब भी रूस से ज्यादा है। वहीं, जर्मनी के सहयोगी रहे जापान की जगह अब चीन ने ले ली है।

 

अमेरिका और सोवियत संघ (रूस व उसके 14 अन्य पड़ोसी देशों का समूह) की दुश्मनी जगजाहिर है। यह क्रमशः पूंजीवादी व साम्यवादी सोच का टकराव है। जब यूएसएसआर को आपस में भिड़ाकर अमेरिका ने बर्बाद कर दिया तो उस समय वह चीन का निर्माण अपने सहयोगी के रूप में कर रहा था। ऐसा इसलिए कि रूस और भारत के गठजोड़ के सामने पाकिस्तान से बड़े देश चीन की जरूरत अमेरिका को थी। चूंकि चीन तब भारत और रूस दोनों से बैर भाव रखता था, इसलिए अमेरिका-चीन की दोस्ती जम गई। इससे चीन की खूब तरक्की हुई।

 

वहीं, चीन जब स्वावलंबी होकर मजबूत गया तो अमेरिका की नजरों में ही खटकने लगा। इससे क्षुब्ध चीन अब वैश्विक मंचों पर अमेरिका को ही चुनौती देने लगा। चतुराई पूर्वक चीन ने अमेरिका विरोधी रूस और उत्तर कोरिया को अपना बना लिया। चीन ने पाकिस्तान को अमेरिका से तोड़ लिया। अमेरिका विरोधी ईरान व अरब देशों से सांठगांठ किया।यूरोप व एशियाई देशों में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने लगा। इससे सोवियत संघ को तोड़ने वाले अमेरिका ने चीन को तोड़ने का मन बना लिया। इसके लिए वह ताइवान, तिब्बत व चिनझियांग अंतर्विरोधों को हवा देने लगा।

 

अमेरिका अब भारत को भी चीन व अरब देशों के खिलाफ भड़काने लगा। क्योंकि आतंकवादियों के जनक अमेरिका पर जब 9/11 आतंकी हमला हुआ तो उसे भारत की दोस्ती महसूस हुई। फिर चारा डालकर भारत को अपना लिया। उसने भारत को पूर्ण रूप से अपनाने के लिए रूस से दोस्ती तोड़वानी चाही। इजरायल-भारत की मित्रता करवाकर ईरान से भिड़ाने की चाल चली। लेकिन भारतीय नेताओं ने अमेरिका मित्रता को प्रगाढ़ बनाने में अतिशय सावधानी बरती। इससे अमेरिका, भारत से भी चिढ़ गया और चीन की तरह ही भारत को भी कमजोर करने का प्लान बनाने लगा।

 

हालांकि, इसी उतावलापन में अमेरिका ने अपनी अतीत की भूलों से सबक नहीं लिया । पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत ने जब पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम दिया तो भारत की मजबूती का एहसास चीन-अमेरिका को हुआ। इससे अमेरिका भारत विरोधी बन गया। सख्त टैरिफ भारत पर थोप दिया जबकि, अमेरिका को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि अमेरिका-वियतनाम युद्ध में सोवियत संघ (रूस) ने अमेरिका के खिलाफ वियतनाम को मजबूत किया, जिससे अमेरिका कमजोर पड़ गया और वियतनाम पर काबिज होने के उसके अरमान अधूरे रह गए।

 

वहीं, रूस जब अफगानिस्तान पर काबिज हो गया तो इससे अमेरिका की चिंता और बढ़ गई। फिर उसने पाकिस्तान को हथियार देकर तालिबान पैदा किया और रूस के पांव अफगानिस्तान से उखाड़े। उधर, अमेरिका ने इजरायल को आगे करके अरब और खाड़ी देशों को अपने साथ मिलाया। इससे यूरोप को जोड़ने और रूस को तोड़ने में अमेरिका को कामयाबी मिली। लेकिन अब भी कुछ अरब देशों से रूस-चीन को समर्थन जारी रहा। भारत से भी उनके सम्बन्ध ठीक ठाक रहे। लेकिन दूसरों को लड़ाकर अपना हथियार बेचने वाला अमेरिका, जनसेवा के नाम पर अपने डॉलर का धंधा चमकाने में माहिर अमेरिका को अब दिक्कत महसूस हो रही है।

 

कहने का तातपर्य यह कि भारत को अपना पिछलग्गू बनाकर अंतरराष्ट्रीय हित साधने की अमेरिकी रणनीति अब विफल हो चुकी है। यूरोपीय संघ के फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली अब अपना हित देख रहे हैं। जापान और सऊदी अरब से अमेरिका की दूरियां बढ़ी हैं। इससे भारत का मोदी सिद्धांत न केवल मजबूत हुआ है बल्कि द्विपक्षीय सम्बन्धों में भारत की विश्वसनीयता अमेरिका-चीन के मुकाबले ज्यादा बढ़ी है। इससे अमेरिका-चीन दोनों की बेचैनी बढ़ी है। ये अब अरब व खाड़ी देशों के कंधों पर बंदूक रखकर भारत को घायल करने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं, लेकिन भारत-इजरायल की दोस्ती चुटकियों में इनका बाजा बजा देगी, यह भी समझते हैं। यूरोप की यूक्रेन सम्बन्धी जिद से दुनिया पुनः तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ी है।

 

अब आपको चातुर्य काल (Neoclassicism) और रीयलिज्म (Realism) के बीच मुख्य अंतर समझाते हैं। वह यह है कि, चातुर्य काल एक कलात्मक और साहित्यिक आंदोलन था जो 18वीं और 19वीं शताब्दी के आरंभ और मध्य में प्राचीन ग्रीक-रोमन कला, तर्क, अनुशासन, नियम और संतुलन की पुनर्स्थापना पर केंद्रित था। इसमें आदर्शता, संतुलित संरचना, और स्पष्ट नियमों का पालन मुख्य होता था। जबकि रीयलिज्म एक ऐसा आंदोलन है जो यथार्थ और सामान्य जीवन के सजीव, वस्तुनिष्ठ, और तटस्थ चित्रण पर बल देता है। यह आम जीवन के वास्तविक अनुभवों, सामान्य लोगों, और उनकी समस्याओं को बिना किसी सजावट या अतिशयोक्ति के दिखाने का प्रयास करता है।

 

इस प्रकार, चातुर्य काल में कला और साहित्य में आदर्शवाद, नियमबद्धता और श्रेष्ठता को महत्व दिया जाता है, वहीं रीयलिज्म में वास्तविकता, यथार्थता, और जीवन के आम पहलुओं का निर्विवाद चित्रण प्राथमिक होता है। यह भी ध्यान देना चाहिए कि चातुर्य काल में कला अधिकतर सोच और तर्क को महत्व देता है जबकि रीयलिज्म में अनुभव और वास्तविकता को प्राथमिकता दी जाती है।

 

कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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