बाल कथा- ढोल की पोल

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रिटायर होकर अध्यापक गजराज सिंह ने जंगल में पाठशाला खोली। उस पाठशाला में पढ़ने आते थे गधा ढेंचू राम, भालू मिठ्ठन प्रसाद, बिल्ल म्याऊं देवी, बंदर खोंखों सिंह, कुत्ता भौंकूचंद। सबकी कापी पर सिंह साहब लिखते ‘बहुत अच्छा‘ और ढेंचू गधे की कापी पर ‘बेकार‘। ढेंचू गुस्से में दांत किटकिटाता हुआ रह जाता।
सारा दिन ढेंचू जंगल में छलांगे मारता रहता। स्कूल का काम रोज करवाता खोंखों सिंह से। ढेंचू सोचता कि सिंह साहब खोंखों की कापी पर ‘बहुत अच्छा‘ लिखते हैं और उसी लिखाई पर मेरी कापी में लिखते हैं ‘बेकार‘। जरूर इनकी आंखें कमजोर हो गई हैं या दिमाग चल गया है। ढेंचू को अपनी बात पर धीरे-धीरे विश्वास होने लगा।
एक दिन उसने ऐसा बवंडर उठाया कि जंगल की पंचायत बुलानी पड़ी। इसमें देखना था कि सिंह साहब पढ़ाने लायक रहे हैं या नहीं। बच्चों के भविष्य का प्रश्न था।
एक ने कहा, ‘सिंह साहब, अपने चश्मे का नंबर बदलवाइए।‘
दूसरा बोला, ‘अगर आप बच्चों को ठीक से पढ़ा नहीं सकते तो कोई और धंधा देखो।‘
तीसरे ने शिकायत की, ‘इतने बुढ़ापे में इन्हें काम पर लगाया किसने? हटाओ इन्हें, दूसरा मास्टर रखो।‘
सिंह साहब बोले, ‘अपने काम के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना। बच्चों की परीक्षा ही बताएगी। लिखो बच्चो, अंग्रेजी में कविता, जैक एंड जिल, हिंदी में आलू- कचालू बेटा कहां गए थे और तीन का पहाड़ा भी लिखो।‘
परीक्षा का समय समाप्त हुआ। सिंह साहब बोले, ‘मेरी नजर को आप कमजोर कहते हैं, इसलिए पंचायत खुद इनकी कापियां जांचे ।‘
सबने ठीक-ठीक लिखा था। बस ढेंचू की कापी ही कोरी थी। उसकी पोल खुल गई थी। ढेंचू सिर झुकाए शरम से मरा जा रहा था।
पंचायत ने ढेंचू के पिता की खबर ली, ‘सिंह साहब से माफी मांगो और आगे अपने बच्चे की पढ़ाई पर खुद ध्यान दो।‘
अपना काम खुद ही करना चाहिए, ढेंचू को भी यह समझ आ गई थी।

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