श्री का महात्म्य

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‘श्री का भारतीय संस्कृति व व्यक्तिगत जीवन में क्या महत्व है? गम्भीर विचार-मन्थन से इस सम्बन्ध में इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित, समृद्ध और कान्तिवान्ï बनाने में सम्पूर्ण तत्वज्ञान इस ‘श्री अक्षर में समाहित है। इसकी उपयोगिता को देखते हुए जो इस बारे में सोचते-विचारते और वैसा बनने के लिए तदनुरूप कदम बढ़ाते हैं, वास्तव में वही श्रीमान्ï ‘श्रीवान्ï कहलाते हैं। शेष तो श्रीहीनों की भांति समाज में तिरस्कृत जीवन जीते हैं।
शतपथ ब्राह्मïण की एक कथा में ‘श्रीÓ की उत्पत्ति का वर्णन है। वह प्रजापति ब्रह्मïाजी के अन्तस्ï से आविर्भूत होती है, अपूर्व सौन्दर्य एवं तेजस्ï से सम्पन्न है। प्रजापति ब्रह्मïा उनका अभिनन्दन करते हैं और बदले में उस आद्य देवी से सृजन क्षमता का वरदान प्राप्त करते हैं।
ऋगवेद में ‘श्री और ‘लक्ष्मी को एक ही अर्थ में प्रयुक्त माना गया है। तैत्तिरीय उपनिषद्ï में ‘श्री का अन्न, जल, गोदुग्ध एवं वस्त्र जैसी समृद्धियां प्रदान करने वाली आद्य शक्ति के रूप में उल्लेख है। गृह सूत्रों में उसे उत्पादन की उर्वरा शक्ति माना गया है। यजुर्वेद में ‘श्री और ‘लक्ष्मीÓ का विष्णु की दो पत्नियां कहकर उल्लेख किया गया है- ‘श्रीश्चते लक्ष्मीश्चते सपजयौ। श्रीसूक्त में भी दोनों को भिन्न मानते हुए अभिन्न उद्देश्य पूरा कर सकने वाला बताया गया है- ‘श्रीश्च लक्ष्मीश्च इस निरूपण में ‘श्रीÓ को तेजस्विता और ‘लक्ष्मीÓ को सम्पदा के अर्थ में लिया गया है।
शतपथ ब्राह्मïण में ‘श्रीÓ की फलश्रुति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वह जिन दिव्यात्माओं में निवास करती हैं, वे तेजोमय हो जाते हैं। अथर्ववेद में पृथ्वी में अर्थ में ‘श्रीÓ का प्रयोग अधिक हुआ है। धरती माता एवं मातृभूमि के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति करने के लिए ‘श्रीÓ का उच्चारण एवं लेखन होने का इन ऋचाओं में स्पष्टï संकेत है।
अरण्यकों में ‘श्रीÓ को सोम की प्रतिक्रिया अर्थात्ï आनन्दातरेक कहा गया है। गोपथ ब्राह्मïण में उसकी चर्चा शोभा-सुन्दरता के रूप में हुई है। श्रीसूक्त में इसकी जितनी विशेषताएं बताई गई हैं उनमें सुन्दरता सर्वोपरि है। वाजसनेयी आरण्यक में ‘श्रीÓ और ‘लक्ष्मीÓ की उत्पत्ति तो भिन्न-भिन्न बताई गई है पर पीछे दोनों के मिलकर एकात्म होने का कथानक है।
चित्रों में लक्ष्मी को कमलासन पर विराजमान हाथियों द्वारा स्वर्ण कलशों से अभिषिक्त किए जाने का चित्रण मिलता है। कमल सौन्दर्य का प्रतीक है, गज साहसिकता की निशानी है,  स्वर्ण वैभव का चिन्ह है, जल शान्ति, शीतलता और सन्तोष का द्योतक है। इन विशेषताओं के समुच्चय को ‘लक्ष्मीÓ कह सकते हैं। नारियों को ‘गृहलक्ष्मीÓ कहने की प्रथा है। यह व्यर्थ ही नहीं है।
वास्तव में उनमें लक्ष्मी तत्व की अधिकांश विशेषताएं मौजूद होती हैं। ऐसे में उनका गृहलक्ष्मी कहलाना सार्थक ही है। ‘श्रीÓ शब्द में लक्ष्मी की उपरोक्त स्थिति को अपनाने का प्रोत्साहन है। पुराणों में ‘श्रीÓ की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई है। यहां पर इसका भाव प्रबल पुरुषार्थ का संकेत है। खारे जलागार से भी पुरुषार्थी लोग वैभव-वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं- इस तथ्य को लक्ष्मी-जन्म के उपाख्यान से महापंडितों ने निरूपित किया है। कल्पसूत्र की एक कथा में भगवान महावीर के किसी पूर्व जन्म में उनकी माता त्रिशला होने का वर्णन है, जिसने दिव्य स्वप्न में ‘श्रीÓ के दर्शन किए थे। समयानुसार इस दिव्य-दर्शन की प्रतिक्रिया अपनी गोद में भगवान को खिला सकने के रूप में प्राप्त हुई।
‘श्रीÓ की प्रतिष्ठïा जब किसी नाम के आगे होती है तो वह अपने दिव्य गुणों के कारण उसे भी गरिमावान बना देती है। इसी कारण किसी को गरिमा प्रदान करने और सम्मान देने के लिए उसके नाम के आगे ‘श्रीÓ लिखने का सामान्य प्रचलन है। आध्यात्मिक पुरुषों, राजनेताओं, सम्मानित व्यक्तियों के नाम के पूर्व ‘श्रीÓ लगाने का इतना ही तात्पर्य है कि वे एक प्रतिष्ठïा प्राप्त पुरुष हैं। इसलिए ‘श्रीÓ का सम्पुट लगने मात्र से व्यक्तित्व की छवि बहुत कुछ मानस में प्रतिभाषित होने लगती है। चोरों, डकैतों, उठाईगीरों, लुटेरों व आतंकवादियों को इसी कारण ‘श्रीÓ लगाकर सम्बोधित करने की प्रथा नहीं है।
क्योंकि वे ‘श्रीÓ को अभिव्यक्ति करने वाले गुणों को धारण नहीं करते और उनका सम्पूर्ण जीवन लोगों को सताने और उत्पीडि़त करने में ही बीतता है। यह ‘श्रीÓ में निहित तत्वदर्शन के सर्वथा विरुद्ध है।
‘श्रीÓ को भारतीय धर्म में इतना महत्व क्यों दिया गया है? इस पर विचार करने से प्रतीत होता है कि व्यक्तित्व को आन्तरिक सौन्दर्य, व्यवहारिक तेजस्विता और भौतिक समृद्धि के प्रति आस्थावान्ï तथा प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत है। आत्मिक और भौतिक प्रगति के सन्तुलित समन्वय से ही व्यक्तित्व का सर्वतोन्मुखी विकास होता है। ‘श्रीÓ को नाम के पहले जोडऩे में इसी सद्ïभावना एवं शुभकामना की अभिव्यंजना है कि श्रीवान्ï बनें- सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर हों। 

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