जीवन जीना सिखाती है श्रीमद्भगवत गीता

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श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जिसके शाश्वत उपदेश व्यक्ति के रोजमर्रा के जीवन के लिए अतिशय उपादेय हैं। अर्जुन के मन में मानव जीवन को लेकर जो अनेक प्रश्न खड़े हुए थे, उनके उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने दिये वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए भी अत्यंत प्रयोजनीय है। ये प्रश्न और उत्तर ही गीता का निर्माण करते हैं।


गीता की एक महत्ता इस बात में है कि इसमें भारत की सभी दर्शन धाराओं का सुंदर समन्वय है। भगवत गीता में अद्वैत, विशिष्ठताद्वेत, शुद्धद्वेत, द्वैत और द्वैताद्वैत सभी चिंतन धाराओं के बीज सुरक्षित हैं। गीता एक कामधेनु है, जिसका दोहन कर सभी आचार्यों ने अपने-अपने सम्प्रदाय की पुष्टि की। गीता भारतीय अध्यात्म साधना का एक दुर्लभ समन्वित शास्त्र है।


आज मनुष्य कुछ भी निष्प्रयोजन नहीं करता। यहां तक कि एक स्थान पर बैठा व्यक्ति दूसरे स्थान पर तभी बैठता है, जब उसको कुछ प्रयोजन या लाभ बोध हो। जब जीवन से मृत्युपर्यन्त जीवन की सभी बातें बिना गीता को जाने-पढ़े ही सम्पन्न हो जाती हैं तब हम गीता क्यों पढ़े, क्यों अपनायें? इसको पढऩे से क्या लाभ है, नहीं पढऩे से क्या हानि है?


गीता पढऩे से मन की शांति, सुख और समाधान मिलता है। गीता हमें बताती है समस्या बाहर नहीं अंतर में है। सुख बाहर न होकर हमारे अंतर मेंं निहित है। जब अंतर में निहित सुख, शांति समाधान पा लेता है तब वैभव पूर्ण जीवन हो, राजसी ठाठ हों या दरिद्रता का जीवन, रूखी रोटी, नमक की डली, ठंडे पानी से ही परम तृप्ति हो जाती है।  चिथड़ों से, गुदड़ी से शरीर की लज्जा का वारण एवं शीत उष्ण से रक्षा हो जाती है। टूटी-फूटी झोपड़ी से ही सिर पर छाया से ही काम चल जाता है। बाहर की बड़ी से बड़ी परिस्थिति भी शुद्ध हो जाती है। वह सब विषम परिस्थितियों में शांत बना रहता है। संसार में बहुत कांटे बिछे हैं, उन सभी को हम हटा नहीं सकते पर अपने पैरों में चप्पल डालकर उनके दु:खपूर्ण प्रभाव से बच सकते हैं, उनसे अपनी रक्षा कर सकते हैं।


जीवन में व्यक्ति को कम से कम एक बार तो गीता अवश्य पढ़ लेनी चाहिए। इससे सोई हुई आत्मा और सोया हुआ विश्वास जागता है। मन में घर कर चुकी हीन भावनाएं दूर हो जाया करती हैं। गीता के अध्यायों को पढऩे से भाग्य स्वत: बदल जाते हैं। निराशा मौत है और आशा जीवन। आशा की आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती, क्योंकि आशा का ही दूसरा नाम गीता है।


श्रीमद्भगवत गीता में कोई कर्मकाण्डी तत्व नहीं है। गीता अद्वैत सूत्र में पिरोयी हुई है। सारे चराचर में एक ही आत्मा का वास है। अत: सब परस्पर जुड़े हुए हैं। परस्पर पूरक, परस्पर अवलम्बित हैं। इस भाव के कारण भारत के लाखों वर्षों के इतिहास में कभी पर्यावरण की समस्या खड़ी नहीं हुई। गीता का सशक्त संदेश है राग-द्वेष मुक्त, न्याय परक नि:स्वार्थ कत्र्तव्य पालन जो आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।


गीता बुढ़ापे की वस्तु नहीं संसार में प्रवेशार्थी के लिए है, इसलिए युद्ध से पूर्व गीता का उपदेश। यह भ्रांति फैला दी गई कि गीता संन्यासियों का ग्रंथ है। अंग्रेजों ने भारतीयों से उनका आधार छीनने के लिए यह दुष्प्रचार किया कि गीता संन्यासियों का ग्रंथ है। इसे पढऩे से व्यक्ति संन्यासी बन जाता है और महाभारत घर में रखने से, जिसे भारतीयों ने पंचम वेद माना है, जिसके विषय में कहा जाता है कि भारत को जो कुछ कहना था, उसे महाभारत में रख दिया है, यही बातें सर्वत्र मिलेगी और इसमें जो बातें नहीं हैं वे अनावश्यक हैं, अर्थहीन प्रलाप मात्र है, घर में कलह होता हैं। यह प्रचलित करवा दिया। वास्तव में महाभारत घर में नहीं रखने से कलह नहीं होता है। महाभारत तो घर के कलह को दूर कर घर में राम राज्य स्थापित करने वाला ग्रंथ है। अगर व्यक्ति का जीवन दुर्योधनादि कौरवों की तरह चल रहा है तो घर में  कलह को कोई रोक नहीं सकता और पाण्डवों की तरह चल रहा है तो घर में राम राज्य हुए बिना रह नहीं सकता है। यह ग्रंथ व्यक्ति को सतपथ दिखाने वाला पथ प्रदर्शक है। यह बताता है कि व्यक्ति यदि रावण की तरह, दुर्योधन की तरह चलेगा तो भले ही पहले तो दिन-दुगनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा है पर कालांतर में मूल सहित नष्ट हो जाता है, बीज नष्ट हो जाता है।


रहीम खानखाना ने अपने प्राण प्यारे मनमोहन की स्तुति में संस्कृत के सुंदर सुस्वर गीत गाए हैं- रत्नाकरस्तव गृह, गृहिणी,  त्रपद्या, कि देययस्ति भवते जगदीश्वराय। आमीर वामनयनाहत मानसाय, दंत भनो, यदुपते कृपया गृहाण।।


अर्थात हे जगदीश्वर, आप क्षीर सागर रूपी रत्नों के भण्डार में रहते हैं, सारे संसार की सुख-समृद्धि, धन-प्राप्ति की  देवी लक्ष्मी आपकी गृहिणी हैं। हे सृष्टि के स्वामी! मैं आपको क्या भेंट करूं? हां, आपके पास सबकुछ है किंतु आपका मन ब्रज की भोलीभाली पवित्रमना गोप बालाओं ने चुरा लिया है। अत: हे भगवान, मैं आपको अपना मन ही भेंट करता हूं। हे यदुपते। कृपया इसे स्वीकार कीजिए। ठुकराइगा मत। इसमें गीता के 12वें अध्याय के आठवें श्लोक की प्रतिध्वनि है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को मन-बुद्धि रूपी दो फूल समर्पित करने को कहते हैं।


एक अन्य पद्य में भक्त रहीम की मुक्ति के लिए प्रस्तुत की गई युक्ति, सारे भक्ति साहित्य में बेजोड़ है-


आनीता तटवन्मया तवपुर: श्रीकृष्ण या भूमिका,
योमाकाचारववाम्बराद्धिनसवर, तव प्रीत ये अद्याविध।
प्रीतो यद्यसि: ता: कर्मक्ष्य भगवान,, तदवांछित देहि में,
नो येद वृहि कदापि मानव पुनर्मामीहरीं, भूमिकाम्।।


अर्थात हे श्री कृष्ण! हे नटनागर! मैंने आज तक आपकी प्रीति के लिए आपके दरबार में बहुरूपिया बनकर 84 लाख योनियों में 84 लाख रूप बनाकर नाच किये हैं। यदि आप उनमें से एक को भी देखकर प्रसन्न हुए हैं तो मेरी मनवांछित मुक्ति मुझे दे ही दो और यदि आपको एक भी नाच पसंद नहीं आया तो स्वयं अपने मुंह से कह दीजिएगा कि आगे से मेरे दरबार में ऐसे रूप बनाकर कभी मत आया करो ताकि मैं तब भी आवागमन के चक्र से छूट जाऊं। इसमें गीता का चरम तात्पर्य निहित है। सारी गीता का सारत्व समल योग दर्शन ही है। शीत उष्ण में सम, सुख-दुख में सम, प्रज्ञा का सिर एवं सम, निंदा, स्तुति में सम, अपने -पराये में सम, मित्र-शत्रु में सम, सब वर्णों में सम, धनी-निर्धन वर्गों में सम, जीव मात्र में सम, जड़ चेतन  में सम, सब में समदर्शन (ब्रह्म दर्शन)। इस प्रकार समत्व की साधना द्वारा स्वधर्म पालन भी न्याय-नीति सम्मत होगा और धर्म पालन करते-करते मोक्ष भी सिद्ध हो जाएगा।