विद्वानों को राजाश्रय क्यों मिले

आज हमारे देश में राजनीति को जातिवाद आधारित बना दिया गया है। लोकतंत्र में जनमत और जनसंख्या का बड़ा महत्व है, इसीलिए हमारे थोथे सिद्धांतहीन राजनेताओं ने अब अपने स्वार्थ के लिये जातिवाद को बढ़ावा देना शुरू कर किया है। जातिवाद की इस राजनीति में सभी दलों ने ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद को गालियां देना शुरू कर दिया है। दलित और पिछड़े वर्गों की राजनीति करने वाले फैशन के तौर पर ब्राह्मणों को गालियां देते समय यह भूल जाते हैं कि वह चाणक्य ही था, जिसने अनाम कुलगोत्र वाले एक अति सामान्य दलित बालक चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया था और स्वयं एक साधु की तरह बिना किसी स्वार्थ के राष्ट्र की सेवा करता रहा।  समर्थ रामदास ने शिवाजी को छत्रपति बनाया, ब्राह्मणों ने ही आतताई सत्ता से संघर्ष में अगुवाई की। वह मंगल पांडे ही था, जिसने 1857 की क्रांति की पहली आत्मबलि दी। तिलक, गोखले, नेहरू, ब्राह्मण ही थे, जो स्वतंत्रता संग्राम के नायक बने। यह सर्वविदित है कि भारतीय संस्कृति में ब्राह्मण वर्ग का योगदान रहा है।


यह गलत है कि ब्राह्मणों ने दलितों की उपेक्षा की। डाकू वाल्मीकि को महर्षि एक ब्राह्मण ने ही बनाया। कबीरदास के गुरु स्वामी रामानंद थे। इसी प्रकार नाभा दास, कुंभनदास, नामदेव, एकनाथ जैसे संतों को भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ाने का काम ब्राह्मणों ने ही किया। कृषि, वाणिज्य एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों की सम्पत्ति का त्याग कर ब्राह्मणों ने विद्या, ज्ञान और समाजसेवा का रास्ता अपनाया। यह उनका व्यवसाय न होकर, राष्ट्र निर्माण के लिए एक विनम्र योगदान था। केवल जीवन यापन के लिये भोजन, साधारण वस्त्र और छोटा- सा आवास अपने लिये लेकर ब्राह्मण ने अपना जीवन राष्ट्र को अर्पित किया। जब-जब समाज और देश पर संकट आया, ब्राह्मण उठकर खड़े हुए। उनके त्याग, ज्ञान और निर्मल जीवन के कारण ही वे हर युग में पूज्य और सम्मानित माने गये, लेकिन आज स्थिति जानबूझकर ब्राह्मण विरोधी बनाई जा रही है।


राजतंत्र और धर्मतंत्र का परस्पर अविच्छिन्न संबंध माना गया है। दोनों में कौन श्रेष्ठ, वरिष्ठ है, कौन सा कनिष्ठ। इस विवाद में न उलझकर एक सत्य हर व्यक्ति स्वीकारता है कि जिस युग में धर्मतंत्र परिपक्व एवं सशक्त होता है तथा अपना अंकुश राजतंत्र पर बनाए रखता है, उसमें सर्वत्र सुव्यवस्था बनी रहती है। राजतंत्र का जहां दायित्व है कि वह सतत् सामने आने वालों समस्याओं, प्रतिकूलताओं हेतु धर्मतंत्र का मार्गदर्शन लें, वहीं धर्मतंत्र को संभालने वाले अग्रदूतों का यह कर्तव्य है कि वे अपना आत्मसम्मान बनाए रखकर व्यक्तित्व का स्तर इतना ऊंचा बनाये रखें कि सहज ही जनसम्मान उन्हें मिलता रहे। सतयुग व्यवस्था में यही होता रहा है एवं पुरोहित, ऋषिगण, मनीषी सदैव शासनतंत्र के पुरोधा मार्गदर्शक रहे हैं। आज स्थिति उल्टी है। राजा- रजवाड़े तो नहीं रहे पर साहब संस्कृति अवश्य विद्यमान है। शासनतंत्र को संभालने वालों को जहां सुगठित, सुव्यवस्थित एवं लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में संलग्न होना चाहिए था, वहां वे अपना स्वार्थ भर पूरा करते दिखाई पड़ते हैं। चाटुकारिता ही चारों और संव्याप्त है। भ्रष्ट आचरण दैनन्दिन जीवन का एक अंग बन गया है। जहां उन्हें धर्मतंत्र से दिशा लेना अभीष्ट था, वहां इसके विपरीत वे तंत्र की शरण में इधर-उधर भटकने, चमत्कार की खोज में डोलने, गद्दी बनाने हेतु विभिन्न बाबाओं की शरण में जाने लगे हैं। लोक नेतृत्व करने वालों को स्वयं अंधविश्वास में लिप्त देख जनता उनसे क्या दिशा लेगी? दूसरी ओर एक कटु सत्य यह भी है कि चारों ओर दृष्टि घुमाने पर भी कहीं कोई ऐसा तंत्र आध्यात्म क्षेत्र में भी नहीं दिखाई पड़ता है, जो शासन को सही दिशा दे। उल्टे शासनतंत्र के सूत्रधारों विभिन्न नेतागणों का सम्मान करते हमारे पूज्य कहे जाने वाले महात्मा दिखाई पड़ते हैं। यह सब देखकर लगता है, गंगा उल्टी कैसे बहने लगी? यह तो कभी पूर्णकालीन महामानवों को विचार भी न होगा कि उनके उत्तराधिकारी अपने अनुयायीगणों को शिक्षा व मार्गदर्शन  देने के बजाय स्वयं उनके आसपास मंडराने लगेंगे।


वस्तुत: यह इस देश की सनातन परम्परा की स्वयं में एक विशेषता रही है कि मनीषी, विद्वान, महात्मागणों ने कभी राजाश्रय की आवश्यकता नहीं समझी। इसी भारत वर्ष में एक मनीषी हुए थे। जब उनका अंतिम समय समीप आया तो राजन उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछने आये। उन्होंने अंतिम शब्द मात्र यही कहे कि आप मेरे बच्चे को इतनी शिक्षा भर दिला दीजियेगा कि वह किसी धनपति अथवा शासन तंत्र की कृपा का भिखारी न रहे। राजा ने यही किया। उस बच्चे को ज्ञानार्जन के लिये काशी भेज दिया। जिस पुरोहित के संरक्षण में वह बच्चा पल रहा था, उसके युवा होने तथा समुचित ज्ञान अर्जित कर लेने पर उन्होंने कहा कि अब तुम भेंट लेकर राजा के पास जाओ और उन्हें अपने अर्जित ज्ञान का प्रमाण दो। मात्र बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किये हुये उस युवक ने वही किया राजा को भेंट दी एवं चरणों में सिर नवाया। राजा उसकी चापलूसी चेष्टा देखकर निराश हुये। उन्होंने उस युवक से पुन: शिक्षा प्राप्त करने हेतु काशी जाने को कहा। पुन: कुछ वर्षों तक उस युवक ने वेदान्त दर्शन तत्वज्ञान में महारथ प्राप्त कर राजदरबार में अपनी उपस्थिति दी एवं इस बार पहली बार से भी अधिक भांति-भांति के उपहार भेंट किये। भावभंगिमा में विनम्रता इतनी कि कोई भी खुशामद पसंद करने वाला राजा प्रसन्न हो ऊंचा पद दे देता। राजा को मनीषी के वचन याद थे। उन्होंने निराश होकर सोचा कि इसका ब्राह्मत्व अभी भी नहीं जागा है। आत्मसम्मान इसमें विकसित हुआ नहीं, फिर पुरोहित पद देने का प्रश्न ही नहीं उठता।



इस बार भी राजा ने उपेक्षा दिखाते हुए कहा कि और ज्ञान अर्जित करो, अभी कमी है। युुवक की समझ में कुछ नहीं आया। उसे लगा या तो राजा विद्वता का सम्मान करना नहीं जानता या फिर यह मेरी परीक्षा ले रहा है। ऐसा सोचते हुए वह पुन: काशी चल पड़ा, ताकि योग, शास्त्र, व्याकरण आदि का और भी उच्च स्तरीय अध्ययन कर वह राजा को प्रसन्न कर सके। एक वर्ष के परिश्रम के बाद वह लौटा तो अगणित उपहार साथ थे, जो प्रसन्न होकर वहां के धनपतियों ने उसे दिये थे। सब राजा के समक्ष रखकर उसने साष्टांग प्रणाम किया। जब राजा ने उसे उठने को नहीं कहा, वह विद्वान उठा किन्तु उठने पर उसने नरेश की वही रुखी तटस्थ मुद्रा देखी।



न स्वागत, न सत्कार। न कोई  पद या उपाधि। निराश हो वह नदी किनारे चिंतन करता हुआ भ्रमण करने निकला। जीवन उसे व्यर्थ लगने लगा था। देर रात तक बैठा सोचता रहा, क्या करें? एक साधु वहां से गुजरे। उनकी दिव्य दृष्टि ने हीरे की परख कर ली व छिपे हुए दोष को भी। पहले उससे उसकी गाथा सुनी, फिर उससे बोले- जिस शास्त्र ज्ञान को तुमने अर्जित किया, उस पर मनन क्यों नहीं किया? क्या तुम्हें पतंजलि का योग सूत्र एवं गीता का समत्वं योग उच्यते वाला तत्वदर्शन यह नहीं सिखाता कि आत्मिक सम्पदा से सम्पन्न विभूतिवान को किसी प्रकार की राजकृपा रूपी भिक्षा नहीं चाहिए। तुम्हारा आत्मसम्मान, अन्दर का ब्राह्मणत्व तो इस ज्ञान से और भी प्रखर होना था किन्तु तुम तो उसे भी गिरा बैठे। युवक द्वारा भावी मार्गदर्शन मांगे जाने पर साधु ने कहा- अब इस तत्वदर्शन को जीवन में उतारो। योग-चित्तवृत्ति निरोग का नाम है। इसके उच्चतम सोपानों को प्राप्त करो, पूरी लगन से तप करो, इतना प्रचण्ड तप कि स्वयं इंद्र भी सारा वैभव तुम्हारे चरणों पर रख दें, लेकिन तुम्हें आत्मसत्ता के समक्ष वह भी तुच्छ लगे।



युवक ने जो कुछ भी सीखा- पढ़ा था, उस पर अमल करते हुए स्वयं को साधना पुरुषार्थ में नियोजित कर दिया। उसे सांसारिक वैभव से कोई मतलब नहीं रह गया। निराहार रहता व सतत साधनारत रहता। धीरे-धीरे कीर्ति फैली। लोग आते, चरणों में धन-संपदा फल पुष्प रखते पर योगीराज ने कभी उन पर दृष्टि नहीं डाली। समाचार राजा के कानों तक पहुंचा।
पता चला कि यह वही युवक है, जो पहले उनके आदेश पर ज्ञानार्जन हेतु गया था। राजा ने एक परीक्षा और लेनी चाही। अपने प्रधानमंत्री को योगीराज की सेवा में भेजा और कहा- उन्हें यहां लेकर आओ। मंत्रीजी ने भी जाकर देखा कि यह तो वही युवक है। उन्होंने लगभग आदेशात्मक भाषा में कहा-  राजाज्ञा है कि आप हमारे साथ चलें। योगीराज ने शांत, संतुलित स्वर में कहा- हम तो एक परब्रह्म का अनुशासन मानते हैं। किसी राजा की आज्ञा का यहां कोई महत्व नहीं। अपने राजा से कह दो कि यदि वे स्वयं आकर मिलना चाहें तो हम कुछ क्षण उन्हें   यहां आश्रम में दे देंगे। राजा शासन व्यवस्था संबंधी कोई परामर्श चाहें तो हमें देने में कोई संकोच नहीं। वह हमारा कर्तव्य है। हतप्रभ मंत्री ने जाकर सारी बातें राजा को बताई तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने समझ लिया कि वे उस युवक से जो चाहते थे, वह उसने अर्जित कर लिया।



राजा ने जाकर पूरे सम्मान के साथ याचना की कि अब आप चलिये एवं राज पुरोहित बन शासन का सूत्र संचालन करिये। योगीराज ने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि अब मेरा स्थान जहां है, वहां ठीक है। आप वहीं रहें व राज्य को हमारी अमानत मानकर चलाते रहें। जब भी आप चाहें मार्गदर्शन लेने आ सकते हैं। राजा ने उनके चरणों में मस्तक नवाया व कहा- आप धन्य हैं। आपने धर्मतंत्र की न केवल लाज रखी, बल्कि उसे पुन: अपने उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया। आप यहीं आश्रम में साधना करते रहें। हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाये रखें। कभी मार्ग से विचलित होता देखें तो मार्गदर्शन देते रहें। इस कथा के समापन पर आज की परिस्थितियों में पुन: प्रश्न उठता है कि क्या मनीषी वर्ग को, आध्यात्म तंत्र के अधिष्ठाताओं को शासन तंत्र का आश्रय लेना शोभा देता है? क्या महामण्डलेश्वरों, संस्कृति के अग्रदूतों का आत्मसम्मान उसी स्थिति को नहीं पहुंच गया है, जैसा कि कथा में वर्णित युवक के माध्यम से बतलाया गया। यदि ऐसा है तो पुन: ब्राह्मण वर्ग को आमूलचूल मंथन, आत्मविश्लेषण करना व उस सम्मानस्पद स्थिति तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिेये, जिसके वे पूर्व में अधिकारी रहे हैं।