
सामाजिक व्यवस्था का यथार्थ चित्रण करने वाला कलमकार, सीधी सपाट और लोकप्रिय भाषा शैली, समाज में गरीब- गुरबों की एक सशक्त आवाज, हिंदी साहित्य का महानायक और कलम का जादूगर। ये सभी उपमा और अलंकार उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद को समर्पित है। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक यात्रा के दौरान समाज के गरीब, पिछड़े, महिला, साहूकार तथा खेती किसानी को अपना विषय बनाया और इन विषयों से संबंधित पात्रों को बड़ी बखूबी से साहित्य विधा में साकार रूप दिया। कई दशकों पूर्व मुंशी प्रेमचंद की यह साहसिक साहित्यिक यात्रा और उनका संदेश आज भी प्रासंगिक है और आज भी सामाजिक ताने-बाने में मुंशी प्रेमचंद की कलम की “धमक” सुनाई पड़ती है। आज हम साहित्य को समर्पित ऐसे ही साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि मना रहे हैं। उन्होंने मुख्य रूप से उपन्यास, कहानी, नाटक और लेख लिखे, और समाज के शोषित वर्गों, विशेषकर किसानों और महिलाओं की समस्याओं और पीड़ा को अपनी रचनाओं में जीवंत किया।
हिन्दी साहित्य के युगांतरकारी लेखक मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले स्थित लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था किंतु साहित्य जगत में वे प्रेमचंद नाम से विख्यात हुए। उनके पिता मुंशी अजायबराय डाक विभाग में कार्यरत थे और माता का नाम आनंदी देवी था। जब वे मात्र सात वर्ष के थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। करीब पंद्रह वर्ष की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपने पिता को भी खो दिया। पिता का निधन हो जाने के बाद प्रेमचंद को कम उम्र में ही स्कूल छोड़ना पड़ा और परिवार को चलाने के लिए काम करना शुरू कर दिया। वर्ष 1898 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। प्रेमचंद ने अपने जीवन की शुरुआत एक अध्यापक के रूप में की। उन्हें मात्र 18 रुपए मासिक वेतन पर पहली नौकरी मिली। प्रारंभ में उन्होंने बहराइच, गोरखपुर, कानपुर और इलाहाबाद जैसे विभिन्न शहरों के स्कूलों में अध्यापन कार्य किया।
धीरे-धीरे अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर वे उच्च पदों पर पहुँचे और उन्हें स्कूल इंस्पेक्टर के रूप में प्रोन्नति प्राप्त हुई। नौकरी के साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। उन्होंने अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास विषयों के साथ इंटरमीडिएट किया और इसके बाद वर्ष 1919 में बीए की डिग्री प्राप्त की। वर्ष 1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन के तहत सरकारी नौकरियाँ छोड़ने का आह्वान किया। तब प्रेमचंद ने भी 23 जून 1921 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और साहित्य को अपना जीवन-ध्येय बना लिया। अपने साहित्य सृजन के प्रारंभिक दौर में उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू किया और तब प्रेमचंद का पहला उपन्यास “मैना” प्रकाशित हुआ लेकिन, प्रेमचंद को जल्द ही ऐसा महसूस हुआ कि हिंदी लोगों तक उनकी बात पहुंचाने के लिए उन्हें हिंदी में लिखना जरूरी है। इसलिए उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया और तब से वह अपने कलम नाम ‘प्रेमचंद’ को अपने हिंदी साहित्य पर लिखने लगे।
उनका पहला हिंदी उपन्यास “सेवासदन” वर्ष 1918 में लिखा गया जिसने उन्हें साहित्यिक जगत में खासी लोकप्रियता दिलाई। उनकी यह कृति उस समय के भारतीय समाज में मौजूद सामाजिक बुराइयों, जैसे वेश्यावृत्ति और महिला उत्पीड़न, पर तीखी टिप्पणी करती है। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने कई उपन्यास एवं कहानी तथा नाटक लिखे। उनके प्रमुख उपन्यास में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, प्रतिज्ञा, गबन, कर्मभूमि एवं गोदान शामिल हैं। वहीं, कहानी-संग्रह में सप्तसरोज, नवनिधि, समरयात्रा एवं मानसरोवर प्रमुख हैं। मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानियों में दो बैलों की कथा, ईदगाह, ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, कफ़न, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोग़ा, कर्मों का फल, बलिदान एवं शतरंज के खिलाड़ी प्रमुख हैं। उनके द्वारा लिखित नाटकों में संग्राम, कर्बला एवं बलिदान तथा बाल-साहित्य में रामकथा, कुत्ते की कहानी एवं मनमोदक खासी चर्चित हैं। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्यिक सजन के साथ सामाजिक सुधारो के लिए बहुत काम किया।
उनके साहित्यिक योगदान को याद करें तो पता चलता है कि उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना से जुड़कर साहित्यिक प्रकाशन को बढ़ावा दिया। वहीं,‘हंस’ और ‘जागरण’ पत्रिकाएँ निकालीं जिनके माध्यम से सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना का प्रसार हुआ। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। वे समाज में हो रही कुरीतियों, अंधविश्वास और असमानताओं के खिलाफ थे। उनके लेखन में सामाजिक न्याय, समानता और मानवीय गरिमा के प्रति जागरूकता का संदेश मिलता है। प्रेमचंद ने अपने लेखन में किसानों और मजदूरों की समस्याओं को प्रमुखता से उठाया। उनकी रचनाओं में मजदूर वर्ग के संघर्ष और शोषण का वास्तविक चित्रण है। उन्होंने समाज के निम्नवर्ग की आवाज को प्रमुखता दी और उनके अधिकारों की बात भी की। वर्ष 1936 में 8 अक्टूबर को महज 56 साल की आयु में उनका निधन हो गया। भारतीय डाक विभाग द्वारा 31 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती पर डाक टिकट जारी किया गया। इसके साथ ही उन्हें “पद्म भूषण” से भी सम्मानित किया गया।
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रखर लेखनी के जरिए सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई। विवाह से संबंधित रूढ़ियों जैसे बहु विवाह, बेमेल विवाह, अभिभावक द्वारा आयोजित विवाह, दहेज प्रथा, विधवा विवाह, वृद्ध विवाह, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, पतिव्रता धर्म के विषय में और सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। आर्थिक समस्या के बावजूद अतिथि सत्कार का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। मुंशी प्रेमचंद का हिंदी साहित्य में सबसे बड़ा योगदान यथार्थवाद की नींव रखना और सामाजिक समस्याओं का चित्रण करना था। उन्होंने अपनी सरल भाषा के माध्यम से गरीबों, किसानों और मेहनतकश वर्ग के संघर्षों को अपनी रचनाओं में जीवंत किया। यही नहीं, उन्होंने कहानी और उपन्यास की एक नई परंपरा विकसित की जो आज भी साहित्यकारों का मार्गदर्शन करती है। उन्होंने अपने लेखन में मानवीयता, न्याय और समानता के मूल्यों को बढ़ावा दिया। यही वजह है कि मुंशी प्रेमचंद का साहित्य सर्जन वर्तमान में भी “प्रासंगिक” दिखाई पड़ता है।
प्रदीप कुमार वर्मा