
मोहन मंगलम
मनुष्य को सृष्टिकर्ता की सर्वश्रेष्ठ कृति मानने वालों की कमी नहीं है। पर, वे यह नहीं जानते कि मानव योनि में जन्म लेने भर से कोई मनुष्य की श्रेणी में नहीं आ जाता। मनुष्य को मनुष्य बनना पड़ता है। मनुष्यता प्रमाणित करनी पड़ती है। जो मनुष्य अपनी मनुष्यता को प्रमाणित नहीं कर सकता, उसमें और पशु में भला क्या अन्तर है?
वैदिक चिन्तन में जन्म लेने वाला ऋण-स्वरूप होता है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मान कर व्यक्ति दंभी न हो जाए – संभवतया यही सोचकर व्यक्ति को ऋण-स्वरूप कहा गया है। यह एक खुली चुनौती भी है कि ‘हे मानव तू तो ऋण है- ऋण से धन बन जा, धन्य बन जा।’ एक बार यह बात समझ में आ जाने पर व्यक्ति अपने जीवन का एक-एक दिन, एक-एक क्षण ऋण से मुक्त होकर धन्य बनने में ही बिताना चाहेगा। यही सक्रियता मनुष्य को पुरुषार्थी बनाती है।
सुविधाएँ जुटाई जा सकती हैं। सुख-साधन बटोरे जा सकते हैं, पर इनसे कोई व्यक्ति धन्य या धनवान नहीं बन सकता। धन्य तो सद्गुणों से बना जाएगा, सत्कर्मों से बना जाएगा, सद्भावों से बना जाएगा। सत्कर्म सीमित साधनों से भी किए जा सकते हैं। सद्भाव भी बाह्य उपकरणों पर निर्भर नहीं रहते।
स्मृतिकारों ने बहुत सोच-समझ कर तीन ऋणों की कल्पना की है – देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देव-यज्ञ करके देव ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है। ज्ञानार्जन और विद्यादान करके ऋषि ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है। इसी तरह सुयोग्य और संस्कारशील सन्तान के द्वारा पितृ ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है।
ऋणमुक्त होकर जीने की कल्पना अपने आप में आनन्दायिनी है। व्यक्तित्व के विकास की कसौटी है ऋणमुक्त होना। ऋण के भार से आक्रान्त होकर न लोक में अभ्युदय का आनन्द लिया जा सकता है और न आध्यात्मिक क्षेत्र में सन्तोष प्राप्त किया जा सकता है।
ऋण से निर्भार हों तब छोटे-बड़े सब दायित्वों को ग्रहण किया जा सकता है, निभाया जा सकता है। इस लोक का ऋण तो पितृ ऋण है। माता-पिता ने जन्म दिया। संस्कार देकर योग्य बनाया। कष्ट सहे। सपनों का संसार दिया। उनका ऋण चुकाने के लिए माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा करें। साथ ही उनके द्वारा प्रशस्त किए मार्ग पर चलते हुए सुसन्तान द्वारा परम्परा को आगे बढ़ाएं। परिवार का निर्माण करें। पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करें। सुन्दर समाज का निर्माण करें। उसके दायित्वों को निभाएं।
दूसरा ऋण ऋषियों का है। इसे दूसरे लोक का ऋण कहा गया है। कर्म की प्रेरणा ऋषि-मुनियों के वचनों से मिलती है। यह बहुत बड़ा ऋण है। उस परम्परा को आगे बढ़ाकर और उसमें अपनी ओर से और वृद्धि करके दूसरे लोक से ऋणमुक्त होना सम्भव है।
तृतीय लोक भावनाओं का है। यह दिव्य लोक है। सद्भावों का विस्तार करके तृतीय लोक में ऋणमुक्त हुआ जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य अपने मनोराज्य में जीता है, मनोयोग-पूर्वक कर्तव्य कर्म करता है। मनोराज्य भावलोक ही हुआ करता है।
जीवन बहुरंगी है। जो जैसे जीना चाहे, जिए। पर ऋण-भार से आक्रान्त होकर जीना बड़ी कष्ट-कल्पना है। ऋणमुक्त होकर जीना ही जीवन की सार्थकता है। ऋणमुक्त होने पर साधक धनयुक्त हो जाता है। धनयुक्त होना ही धन्य होना है- धनवान होना है। वह मान-धन, यशोधन, ज्ञान-धन बन जाता है। वह विद्या पाकर धनी हो जाता है।
सत्य, सन्तोष, करुणा, दया, सेवा, सहानुभूति, परहितरति आदि मानवीय गुण अर्जित करके ही मनुष्य अपनी मनुष्यता को प्रकट करता है। इन गुणों से हो चरित्र बनता है। चारित्रिक दीप्ति प्रकट होती है। चारित्रिक दीप्ति से संपन्न व्यक्ति धनवान या धन्य बनता है। सन्तोष के विषय में कहा गया है-
गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान।
जो आए सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
सर्वश्रेष्ठ धन ही विद्या है। विद्या प्राप्त करके मनुष्य विद्वान बनता है। विद्या ऐसा धन है जो बाँटने से अधिकाधिक बढ़ता है। भर्तृहरि का कहना है कि विद्या मनुष्य का सौन्दर्य है, छिपा हुआ धन है। विद्या भोगदात्री है, यश और सुख प्रदान करने वाली है। विद्या विदेश में बन्धुजन है। विद्या परा देवता है। विद्या ही राजाओं में पुजती है, धन नहीं। विद्या के बिना पुरुष पशु ही है।
व्यक्ति धनवान से धन्य कैसे बनता है – यह सब जानते हैं। इसके उपरान्त भी सांसारिक प्रपंचों में फंसे रहते हैं। धनी नहीं होना चाहते। चाहते तो हैं; पर प्रयत्न नहीं करते।
लोग सपनों की पूंजी या धन की बात भी करते हैं मगर यूं ही कोई धनी नहीं हो जाता। ज्ञान, कर्म और भाव के स्तर पर सपने देखते रहने से सत्प्रयास करके – ऋणमुक्त होकर व्यक्ति धनी या धन्य बनता है। सारा जीवन ऋण से धन बनने को साधना में लगाया करते हैं उत्तम साधक। नासमझ लोग जीवनभर ऋण के भार से ग्रस्त रहते हैं और धन्य होने का अवसर खो देते हैं। ऋण रूप ही जन्मे और ऋण रूप ही मर जाते हैं। श्रेष्ठ जीवन वह है जिसे जीकर साधक धन्य-धन्य हो जाए –
ऐसे जीने से क्या भला, जब अर्थ सधे न कोय।
जीवन तो है धन्य वही, जब कोई कर्ज न होय।।
मनुष्य को सृष्टिकर्ता की सर्वश्रेष्ठ कृति मानने वालों की कमी नहीं है। पर, वे यह नहीं जानते कि मानव योनि में जन्म लेने भर से कोई मनुष्य की श्रेणी में नहीं आ जाता। मनुष्य को मनुष्य बनना पड़ता है। मनुष्यता प्रमाणित करनी पड़ती है। जो मनुष्य अपनी मनुष्यता को प्रमाणित नहीं कर सकता, उसमें और पशु में भला क्या अन्तर है?
वैदिक चिन्तन में जन्म लेने वाला ऋण-स्वरूप होता है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मान कर व्यक्ति दंभी न हो जाए – संभवतया यही सोचकर व्यक्ति को ऋण-स्वरूप कहा गया है। यह एक खुली चुनौती भी है कि ‘हे मानव तू तो ऋण है- ऋण से धन बन जा, धन्य बन जा।’ एक बार यह बात समझ में आ जाने पर व्यक्ति अपने जीवन का एक-एक दिन, एक-एक क्षण ऋण से मुक्त होकर धन्य बनने में ही बिताना चाहेगा। यही सक्रियता मनुष्य को पुरुषार्थी बनाती है।
सुविधाएँ जुटाई जा सकती हैं। सुख-साधन बटोरे जा सकते हैं, पर इनसे कोई व्यक्ति धन्य या धनवान नहीं बन सकता। धन्य तो सद्गुणों से बना जाएगा, सत्कर्मों से बना जाएगा, सद्भावों से बना जाएगा। सत्कर्म सीमित साधनों से भी किए जा सकते हैं। सद्भाव भी बाह्य उपकरणों पर निर्भर नहीं रहते।
स्मृतिकारों ने बहुत सोच-समझ कर तीन ऋणों की कल्पना की है – देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देव-यज्ञ करके देव ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है। ज्ञानार्जन और विद्यादान करके ऋषि ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है। इसी तरह सुयोग्य और संस्कारशील सन्तान के द्वारा पितृ ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है।
ऋणमुक्त होकर जीने की कल्पना अपने आप में आनन्दायिनी है। व्यक्तित्व के विकास की कसौटी है ऋणमुक्त होना। ऋण के भार से आक्रान्त होकर न लोक में अभ्युदय का आनन्द लिया जा सकता है और न आध्यात्मिक क्षेत्र में सन्तोष प्राप्त किया जा सकता है।
ऋण से निर्भार हों तब छोटे-बड़े सब दायित्वों को ग्रहण किया जा सकता है, निभाया जा सकता है। इस लोक का ऋण तो पितृ ऋण है। माता-पिता ने जन्म दिया। संस्कार देकर योग्य बनाया। कष्ट सहे। सपनों का संसार दिया। उनका ऋण चुकाने के लिए माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा करें। साथ ही उनके द्वारा प्रशस्त किए मार्ग पर चलते हुए सुसन्तान द्वारा परम्परा को आगे बढ़ाएं। परिवार का निर्माण करें। पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करें। सुन्दर समाज का निर्माण करें। उसके दायित्वों को निभाएं।
दूसरा ऋण ऋषियों का है। इसे दूसरे लोक का ऋण कहा गया है। कर्म की प्रेरणा ऋषि-मुनियों के वचनों से मिलती है। यह बहुत बड़ा ऋण है। उस परम्परा को आगे बढ़ाकर और उसमें अपनी ओर से और वृद्धि करके दूसरे लोक से ऋणमुक्त होना सम्भव है।
तृतीय लोक भावनाओं का है। यह दिव्य लोक है। सद्भावों का विस्तार करके तृतीय लोक में ऋणमुक्त हुआ जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य अपने मनोराज्य में जीता है, मनोयोग-पूर्वक कर्तव्य कर्म करता है। मनोराज्य भावलोक ही हुआ करता है।
जीवन बहुरंगी है। जो जैसे जीना चाहे, जिए। पर ऋण-भार से आक्रान्त होकर जीना बड़ी कष्ट-कल्पना है। ऋणमुक्त होकर जीना ही जीवन की सार्थकता है। ऋणमुक्त होने पर साधक धनयुक्त हो जाता है। धनयुक्त होना ही धन्य होना है- धनवान होना है। वह मान-धन, यशोधन, ज्ञान-धन बन जाता है। वह विद्या पाकर धनी हो जाता है।
सत्य, सन्तोष, करुणा, दया, सेवा, सहानुभूति, परहितरति आदि मानवीय गुण अर्जित करके ही मनुष्य अपनी मनुष्यता को प्रकट करता है। इन गुणों से हो चरित्र बनता है। चारित्रिक दीप्ति प्रकट होती है। चारित्रिक दीप्ति से संपन्न व्यक्ति धनवान या धन्य बनता है। सन्तोष के विषय में कहा गया है-
गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान।
जो आए सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
सर्वश्रेष्ठ धन ही विद्या है। विद्या प्राप्त करके मनुष्य विद्वान बनता है। विद्या ऐसा धन है जो बाँटने से अधिकाधिक बढ़ता है। भर्तृहरि का कहना है कि विद्या मनुष्य का सौन्दर्य है, छिपा हुआ धन है। विद्या भोगदात्री है, यश और सुख प्रदान करने वाली है। विद्या विदेश में बन्धुजन है। विद्या परा देवता है। विद्या ही राजाओं में पुजती है, धन नहीं। विद्या के बिना पुरुष पशु ही है।
व्यक्ति धनवान से धन्य कैसे बनता है – यह सब जानते हैं। इसके उपरान्त भी सांसारिक प्रपंचों में फंसे रहते हैं। धनी नहीं होना चाहते। चाहते तो हैं; पर प्रयत्न नहीं करते।
लोग सपनों की पूंजी या धन की बात भी करते हैं मगर यूं ही कोई धनी नहीं हो जाता। ज्ञान, कर्म और भाव के स्तर पर सपने देखते रहने से सत्प्रयास करके – ऋणमुक्त होकर व्यक्ति धनी या धन्य बनता है। सारा जीवन ऋण से धन बनने को साधना में लगाया करते हैं उत्तम साधक। नासमझ लोग जीवनभर ऋण के भार से ग्रस्त रहते हैं और धन्य होने का अवसर खो देते हैं। ऋण रूप ही जन्मे और ऋण रूप ही मर जाते हैं। श्रेष्ठ जीवन वह है जिसे जीकर साधक धन्य-धन्य हो जाए –
ऐसे जीने से क्या भला, जब अर्थ सधे न कोय।
जीवन तो है धन्य वही, जब कोई कर्ज न होय।।