महज़ राम की विजय का जश्न नहीं बहुआयामी पर्व है दशहरा

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भारत की विविध संस्कृति आदिकाल से ही पर्वधर्मा रही है। दशहरा भी इसी पर्व श्रंखला की एक ऐसी ही कड़ी है ।     अधिकांश लोगों को यही पता है कि रावण पर राम की विजय का प्रतीक है दशहरा । आदर्श रूप में इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में भी रेखांकित किया जाता है लेकिन दशहरा मनाने के पीछे एक नहीं अनेक कारण हैं । वस्तुत: दशहरा महज़ राम की रावण पर विजय का जश्न मात्र नहीं अपितु एक बहुआयामी पर्व  है  । इस दशहरे के अवसर पर यह जानना समीचीन होगा कि दशहरा मनाने के पीछे कौन-कौन से मुख्य कारण हैं।

राम की रावण पर विजय 

   आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को, नवरात्र के नौ दिनों की साधना तथा उपवास के बाद दशहराआता है।

दशहरा मनाने के पीछे तो मुख्य कथा तो राम द्वारा रावण का वध करके सीता को पुनः प्राप्त करना लंका पर विजय प्राप्त करना और विभीषण को वहां का राजा नियुक्त करना ही है। मान्यता है कि इस दिन भगवान रामचन्द्रजी ने रावण का वध कर माता सीता की रक्षा की थी। इसीलिए दशहरा को ‘रावण-दहन पर्व’ भी कहा जाता है। रामायण की यह कथा अच्छाई (राम) की बुराई (रावण) पर विजय को प्रतिपादित करती है।

 महिषासुर का वध

एक अन्य मिथक  के अनुसार महिषासुर राक्षस  देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर सब पर अत्याचार कर रहा था। तब देवताओं की प्रार्थना पर माता दुर्गा का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नौ दिनों तक महिषासुर से युद्ध कर दशमी के दिन उसका वध किया। इसीलिए इसे महिषासुर मर्दिनी विजय दिवस भी कहा जाता है। 

पांडवों का शमी पूजन

दशहरे से जुड़ी एक अन्य कथा महाभारत से संबंधित है । महाभारत के अनुसार दुर्योधन की चाल में फंसकर पांडवों को वनवास में जाना पड़ा वनवास की शर्त थी की अंतिम वर्ष अज्ञातवास के रूप में  बिताना पड़ेगा यदि पहचान लिए गए तो एक बार फिर से उन्हें वनवास करना होगा। तब अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने अपने शस्त्र शमी वृक्ष में छिपा दिए थे। एक वर्ष बाद विजयदशमी के दिन उन्होंने शस्त्र निकालकर पूजा की और बाद में इन्हीं शास्त्रों के बल पर महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त की। तभी से दशहरे के पर्व के अवसरपर शमी पूजन की परंपरा  प्रचलित हुई।

कृषि पर्व  दशहरा: 

दशहरे के पर्व को मात्र धार्मिक कृत्य मानना इसके महत्व को घटना होगा। 

इसे कृषि पर्व भी माना गया है, दशहरे के अवसर पर खेतों से खरीफ की फसल कटने लगती है और किसान समृद्धि की कामना करते हैं। कृषि क्षेत्र की संपन्नता को दर्शाने के लिए भाइयों के कानों पर ‘नौरते’ रखती हैं यह नौरते वास्तव में जौ के अंकुर होते हैं जो जीवन में खुशहाली के प्रतीक हरियाली की पूजा को स्थापित करते हैं। 

सरस्वती पूजा का पर्व 

दक्षिण भारत में दशहरे को सरस्वती पूजन और शिक्षा-आरंभ का शुभ दिन माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार विजयदशमी विजया नक्षत्र के उदय होने पर मनाया जाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि दशहरा एक बहुआयामी पर्व है जिसके एक पक्ष से ही हम अधिक परिचितहैं। 

 शस्त्र पूजन

इस दिन शौर्य और पराक्रम के प्रतीक रूप में लोग अपने शस्त्रों, औजारों, व्यवसायिक उपकरणों और वाहनों की पूजा करते हैं।यह परंपरा विशेषकर क्षत्रिय और सैन्य समाज में अब भी प्रचलित है। जबकि शिक्षण एवं साहित्य से जुड़े हुए लोग सरस्वती पूजा के रूप में लेखनी की पूजा भी करते हैं। 

रामलीलाएं ,रावण दहन

उत्तर भारत में रामलीला के आयोजन का समापन विजयदशमी को होता है।रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन कर बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश दिया जाता है। यह आयोजन सामुदायिक मेलजोल और सांस्कृतिक उत्सव का रूप ले चुका है।

 प्रतिमा विसर्जन

बंगाल, ओडिशा, असम आदि राज्यों में दुर्गा पूजा का समापन विजयदशमी पर माँ दुर्गा की प्रतिमा के विसर्जन से होता है।

वहां इसे “बिजया दशमी” कहा जाता है और लोग एक-दूसरे को गले लगाकर ‘शुभ विजयादशमी’ की बधाई देते हैं।

 आयुध एवं वाहन सज्जा

दक्षिण भारत में वाहन, घर-गृहस्थी के उपकरण और किताबों की विशेष पूजा होती है। इसे “आयुध पूजा” कहा जाता है 

ऊर्जा प्रदाता

दशहरा केवल आस्था से नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव-जीवन के विज्ञान से भी जुड़ा है।  आश्विन मास वर्षा ऋतु के समापन और शरद ऋतु के आगमन का काल है। इस समय शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है। नवरात्र के नौ दिनों का व्रत शरीर को संतुलित करता है और दशमी पर उत्सव ऊर्जा प्रदान करता है।

मानसिक शुद्धिकरण : 

रावण-दहन की परंपरा केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि मनोविज्ञान पर आधारित है। अपने भीतर के अहंकार, क्रोध, लोभ जैसे “रावण” को जलाकर मनुष्य आत्मशुद्धि का अनुभव करता है।

अंतर्साधना का पर्व 

दशहरा केवल बाहरी उत्सव नहीं, बल्कि आत्मिक साधना का प्रतीक है। नवरात्र के नौ दिन आत्मसंयम, उपवास और ध्यान के होते हैं। दशमी इस साधना की विजय का प्रतीक है। यह बताता है कि जब मनुष्य भीतर के विकारों से जीत जाता है तो जीवन में प्रकाश और ऊर्जा का संचार होता है।शमी वृक्ष पूजन हमें स्मरण कराता है कि धैर्य और छिपे हुए सामर्थ्य का प्रयोग समय आने पर ही करना चाहिए।

आयुध पूजा जीवन में कर्म और परिश्रम की महत्ता का संदेश देती है।

सामाजिक जागरण :

रामलीलाओं और दुर्गा पंडालों ने इसे लोकनाट्य, कला और शिल्प का विशाल मंच बना दिया है।  रावण-दहन को अब केवल पुतला जलाने तक सीमित न मानकर भ्रष्टाचार, नशाखोरी, हिंसा और अन्य सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध प्रतीकात्मक संदेश देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

पर्यावरणीय चेतना : 

आधुनिक युग में पुतलों और मूर्तियों को पर्यावरण-अनुकूल बनाने की पहल हो रही है। यह परंपरा और विज्ञान का सुंदर संगम है।

पुरातन,आधुनिक का संगम 

दशहरा हमें यह सिखाता है कि परंपराएँ स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील होती हैं।पुरातन काल में यह शस्त्र पूजन और युद्ध आरंभ का पर्व था, आज यह शिक्षा, तकनीक और व्यवसाय में नए संकल्पों का प्रतीक है। पहले यह खेत-खलिहान और प्राकृतिक ऊर्जा से जुड़ा उत्सव था, अब यह सामाजिक सुधार और नैतिक चेतना का वाहक बन रहा है। विज्ञान और आध्यात्म दोनों ही यह कहते हैं कि जब तक हम भीतर की नकारात्मकता पर विजय नहीं पाएँगे, तब तक बाहरी विजय अधूरी रहेगी।

 

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