ओंकारेश्वर : यहां मिलते हैं प्राकृतिक रूप से निर्मित शिवलिंग

ओंकारेश्वर मध्यप्रदेश के पूर्वी निमाड़ जिले में नर्मदा नदी तट पर स्थित एक मनोरम स्थल है। प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर यह स्थान खंडवा से 65 किलोमीटर तथा इन्दौर से 75 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां प्रतिष्ठित ज्योतिर्लिंग, ज्योतिर्लिंगों के क्रम में चौथा है। शिवपुराण के अनुसार इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से सभी पाप समूल नष्ट हो जाते हैं।
यह ज्योतिर्लिंग एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी के कारण नर्मदा नदी दो धाराओं में विभाजित हो जाती है। इस पहाड़ी का आकार कुछ ऐसा है कि नर्मदा की जलधाराओं का यह विभाजन ऐसा दिखाई पड़ता है कि जैसे प्रकृति ने वहां ऊँ का आकार ग्रहण कर लिया है।


ओंकारेश्वर में जब नर्मदा विभाजित होती है, तब इसकी एक धारा को नर्मदा कहा जाता है तथा दूसरी को कावेरी। ये दोनों धाराएं आगे चलकर मिल जाती हैं। इस स्थान को दुधारा या कावेरी संगम कहा जाता है। ऋणमुक्तेश्वर का मंदिर इसी संगम पर स्थित है।


इस मंदिर में स्थापित ऋणमुक्तेश्वर शिवलिंग की एक विशेषता यह है कि यहां चने की कच्ची दाल चढ़ाई जाती है। ऋण-मुक्ति की कामना लेकर आने वाले पहले संगम पर स्नान करते हैं, फिर ऋण मुक्तेश्वर शिवलिंग पर चने की दाल चढ़ाते हैं। ऋणमुक्ति की कामना लेकर वैसे तो प्रतिदिन ही यहाँ श्रद्धालु पहुंचते हैं, पर सोमवार एवं मंगलवार को यहां भीड़ अधिक होती है।
ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग के प्रकट होने की जो कथा प्रचलित है, उसके अनुसार देवर्षि नारद एक बार जब गोकर्ण क्षेत्र में तपस्या करने के बाद विंध्य पर्वत पर आये तब विंध्य ने अपने ऐश्वर्य के अभिमान के साथ नारदजी का स्वागत किया। नारदजी ने विंध्य का यह अभिमान समझ लिया। उन्होंने कहा विंध्य गिरिराज! तुम्हें किस बात का अभिमान है? सुमेरू पर्वत तुमसे ऊंचा है और उसका शिखर देवलोक को छूता है। तुम सुमेरू पर्वत के सामने तुच्छ हो। विंध्य को यह बात लग गयी और उसने अपनी अभिवृद्धि के लिए भगवान  शिव की तपस्या की। इस तपस्या से आशुतोष भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रकट होकर विंध्य से वरदान मांगने को कहा। विंध्य ने अपनी अभिवृद्धि एवं संपूर्णता का वरदान मांगा। फलस्वरूप भगवान शिव विंध्य पर्वत पर के इस क्षेत्र में निवास करने पर सहमत हुए तथा यहां प्रणव एवं पार्थिव स्वरूप में प्रकट एवं स्थापित हुए।


ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग दो स्थानों पर प्रकट माना जाता है- पहला, प्रणव स्वरूप में ओंकारेश्वर मंदिर में स्थित है तथा दूसरा, पार्थिव स्वरूप में ममलेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित है।
ओंकारेश्वर को ओंकारमान्धाता भी कहा जाता है। स्कन्द पुराण में इस नगर को बसाने की एक रोचक एवं अद्भुत कथा पढऩे को मिलती है। इक्ष्वाकुवंश में युवनस्व नामक सम्राट हुए। उनके कोई पुत्र नहीं था। पुत्र प्राप्ति के लिए उन्होंने नर्मदा के तट पर ओंकार क्षेत्र में पुत्रेष्ठि यज्ञ प्रारंभ किया। एक रात्रि को उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने भूल से उस अभिमंत्रित कलश का जल पी लिया, जो पुत्र प्राप्ति के लिए सम्राट की रानियों को पिलाया जाने वाला था। अभिमंत्रित कलश के जल ने अपना प्रभाव दिखाया और राजा के पेट में एक भ्रूण स्थापित हो गया। यह भ्रूण निश्चित समय पर राजा की बायीं कुक्षी को फाड़कर तेजस्वी बालक के रूप में प्रकट हुआ। देवराज इन्द्र ने इसे अपनी कनिष्ठका अंगुली का पान कराया, जिससे वह बहुत हृष्ट-पुष्ट एवं शक्तिशाली हुआ। इस बालक का नाम मान्धाता रखा गया।


ओंकारेश्वर क्षेत्र जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसे त्रिपुरी भी कहते हैं।
एक समय इस त्रिपुरी पर बाणसुर नामक दैत्य का अधिकार था। जहां ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग प्रतिष्ठित है, उसे शिवपुरी कहा जाता है। नर्मदा नदी की एक अन्य धारा इस पहाड़ी को विभाजित करती है, उसे कपिला कहते हैं। कपिला और नर्मदा के संगम क्षेत्र को ब्रह्मपुरी कहा जाता है। बीच का एक क्षेत्र विष्णुपुरी कहलाता है।


स्वामी गोविंदपादाचार्य

कावेरी नामक धारा के संगम के बारे में भी एक कथा मिलती है। इस कथा के अनुसार कुबेर ने इसी संगम पर एक सौ वर्ष तक भगवान शंकर की तपस्या की। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर कुबेर को यक्षों का राजा बना दिया। धनपति कुबेर ने जहां तपस्या की हो, वहां आराधना करके मानव भी धन प्राप्त कर सकता है। संभवत: इसी धारणा के परिणामस्वरूप नर्मदा-कावेरी संगम पर ऋणमुक्तेश्वर नामक यह शिवलिंग स्थापित हुआ।


ओंकारेश्वर का विख्यात ज्योतिर्लिंग जिस मंदिर में स्थापित है, वह पांच मंजिला है। सबसे नीचे के भाग में एक गुफा है। कहा जाता है कि इसी गुफा में आदि शंकराचार्य के गुरु स्वामी गोविन्दपादाचार्य ने तपस्या की थी। इसी गुफा में उन्होंने आदि शंकराचार्य को दीक्षा दी थी।
ओंकारेश्वर में कुछ और स्थान भी धार्मिक महत्व के हैं। इनमें से एक है सप्तमातृका तीर्थ। यह वह स्थान है, जहां पार्वती की एक अन्य सात माताएं (दुर्गा) निवास करती हैं। पुत्र की कामना करने वाली नारियां यहां नवमी तिथि को मनौती मानती है, पूजन करती है।


ओंकारेश्वर एक समय में तांत्रिक साधना के लिए बड़ा ही उपयुक्त स्थान माना जाता है। दसवीं शताब्दी में यहां नाथ सम्प्रदाय के बाबा दरियावनाथ ने तपस्या एवं साधना की तथा मां काली एवं बटुक भैरव की स्थापना की। बाबाजी की समाधि पर भी अनेक श्रद्धालु पहुंचते हैं। मां आनंदमयी का भी यहां एक आश्रम है। उन्होंने भी कुछ दिनों यहां साधना की थी। मार्कण्डेय ऋषि का भी एक मंदिर यहां है। ओंकारेश्वर में धार्मिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से जो स्थान दर्शनीय है, उनमें प्रमुख है- अर्जुन की प्रतिमा, खेड़ापति हनुमान, चांद-सूरज गेट, नर्मदा मंदिर, ओंकार मठ, गौरी-सोमनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, पंचमुखी गणेश, सिद्धनाथ मंदिर तथा लेटे हुए हनुमान जी।


ओंकारेश्वर की एक विशेषता और है, वह यह कि यहां नर्मदा नदी की धारा में प्राकृतिक रूप से निर्मित शिवलिंग मिलते हैं। इन प्राकृतिक शिवलिंगों को नर्मदेश्वर कहा जाता है। यहां आने वाले तीर्थयात्री श्रद्धा के साथ उन्हें अपने साथ ले जाते हैं तथा उनका पूजन करते हैं।