राम मंदिर के लिए चार दशक लड़ी किन्तु श्रेय नहीं लिया

अयोध्या का नाम आते ही भगवान श्री राम की जन्मभूमि और उसके लिए सतत् संघर्ष करने वाले एक संगठन का नाम अनायास ही मानस पटल पर उभर कर आता है। सम्पूर्ण विश्व जानता है कि अयोध्या भगवान श्री राम की जन्मस्थली है जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु महाराज ने सरयू के तट पर की थी।  जन्मभूमि स्थित मंदिर का जीर्णोद्धार कराते हुए आज से लगभग 2100 वर्ष पूर्व सम्राट विक्रमादित्य द्वारा काले कसौटी के पत्थर वाले 84 स्तंभों पर विशाल व भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। जिसे विदेशी आक्रांता बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीरबाकी द्वारा सन 1528 में ध्वस्त कर उसी के मलबे से मंदिर की नींव पर ही मस्जिद नुमा एक ढांचा बनाया गया।


मंदिर के ध्वंस का मुख्य कारण हिन्दू समाज की आस्था पर प्रहार कर बल पूर्वक धर्मांतरण करा मुसलमान बनाने की मानसिकता ही थी।  मंदिर पर हुए इस प्रथम प्रहार को रोकने हेतु 15 दिनों तक लगातार संघर्ष चला। इन 15 दोनों में लगभग 1.76 लाख रामभक्तों के बलिदान दिया किन्तु अड़ियल मुगलिया सल्तनत ने आखिर तोपों से मंदिर को उड़ा दिया।  1528 से लेकर 1949 तक के कालखंड में भिन्न-भिन्न समयों में लगभग 76 युद्धों में लाखों रामभक्तों ने अपने जीवन का बलिदान दिया।  कभी हम जीते तो कभी रुक गए।  किन्तु भगवान की जन्मभूमि पर हमने कभी अपना दावा नहीं त्यागा।  कभी कोई राजा लड़ा तो कभी कोई जागीरदार, कभी कोई संत लड़ा तो कभी कोई सामान्य नागरिक, कभी दर्शन पूजन निकट से किया तो कभी बहुत दूर से ही, कभी वहाँ पर भगवान को मूर्ति रूप में विराजमान देखा तो कभी मात्र उनकी जन्मभूमि के ही दर्शन मिले।  कभी मंदिर में दर्शन मिले तो कभी चबूतरे पर बने टाट के टेंट में।  रामभक्तों  के मन में वेदना तो रहती ही थी किन्तु एक संतोष भी था कि चलो जैसा भी है, पावन जन्मभूमि दर्शन का सुभाग्य तो मिला, भव्य मंदिर भी कभी ना कभी बनेगा।  जो भी भक्त अयोध्या आता एक गहरी वेदना तथा एक संकल्प को मन में धारण करके जाता कि ‘राम लला हम आएंगें, मंदिर भव्य बनाएंगे’।


 हालांकि 1885 में भी एक निर्णय जन्मभूमि के पक्ष में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार के काल में न्यायालय ने दिया था। किन्तु स्वतंत्र भारत में पहला वादअयोध्या निवासी श्री गोपाल सिंह विशारद के द्वारा जनवरी 1950 में फैजावाद के  जिला न्यायालय में भगवान के दर्शन पूजन की अनुमति हेतु दायर किया गया।  इसे उच्च न्यायालय ने भी पुष्ट कर दिया। दूसरा वाद रामानंद संप्रदाय के साधु परमहंस श्री रामचन्द्र दास जी द्वारा 5 दिसम्बर 1950 को दायर किया गया जिसे अगस्त 1990 में वापस लेलिया गया। तीसरा श्रीपंच रामानंदी निर्मोही अखाड़े ने दिसंबर 1959 में तथा चौथेदिसंबर 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के बाद पंचम वाद भगवान श्रीराम लला विराजमान व स्थान श्रीराम जन्मभूमि के द्वारा जुलाई 1989 में दायर किया गया।


 1949 से लगातार कानूनी कार्यवाही तो कछुए की चाल चलती रही किन्तु मामले में असल मोड़ तब आया जब 1964 में जन्मे विश्व हिन्दू परिषद ने अपनी तरुणाई के 19 वें वर्ष में प्रवेश किया। आंदोलन की कमान तो संभाली किन्तु उसका श्रेय स्वयं ना लेकर किसी और को देता चला गया।  श्रीराम जन्मभूमि के साथ काशी और मथुरा की मुक्ति हेतु 6 मार्च 1983 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए एक हिन्दू सम्मेलन में इस हेतु आह्वान करने वाले कोई और नहीं अपितु, देश के दो बार अंतरिम प्रधानमंत्री रहे श्री गुलजारीलाल नंदा तथा राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री दाऊदयाल खन्ना थे।  इस संबंध में इन नेताओं ने एक पत्र भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को लिखा।


 बस इसके बाद तो एक के बाद एक श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए आंदोलनों की एक श्रंखला सी बन गई।  हालांकि इन आंदोलनो की औपचारिक घोषणा से पूर्व विश्व हिन्दू परिषद(विहिप) ने 1983 के दिसंबर माह में देश व्यापी एकात्मता यज्ञ की एक अनूठी योजना बनाई जिसके अंतर्गत ‘जाति-भाषा अनेक – सारा भारत एक’ के राम भाव से प्रेरित हो कर हरिद्वार से रामेश्वरम तथा गंगासागर से सोमनाथ तक सम्पूर्ण भारत को एक करने हेतु छोटी बड़ी लगभग एक 100 यात्राओ ने 50 हजार किमी से अधिक का मार्ग तय किया तथा 29 दिसंबर को इन सभी का संगम नागपुर में हुआ।


 उपरोक्त हिन्दू सम्मेलन के आह्वान तथा एकात्मता यात्राओं के उत्साह ने जन्मभूमि की मुक्ति हेतु नव-ऊर्जा का संचार किया। परिणामत: 21 जुलाई 1984 को अयोध्या के भगवताचार्य आश्रम में ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ का गठन हुआ।  गोरक्ष पीठाधीश्वर पूज्य महंत अवैद्यनाथ जी महाराज को इसका अध्यक्ष तथा श्री दाऊदयाल खन्ना जी को महामंत्री बनाया गया। राम और राष्ट्र के प्रति इनकी श्रद्धा ने उन्हें इस पावन कार्य से जोड़ दिया।  इसके बाद तो एक के बाद एक कार्यक्रम आंदोलन व संगठन बनते चले गए और राम भक्तों का कारवां भी बढ़ता चला गया।  1984 श्री राम जानकी रथ यात्राएं तथा उनकी सुरक्षा हेतु युवाओं की एक वाहिनी को बजरंग-दल का नाम देकर उसका गठन हुआ।  जन्मभूमि की तालाबंदी के विरुद्ध अभियान तेज करने हेतु धर्मस्थल रक्षा समिति का गठन हुआ।  उडुप्पी में 31 अक्तूबर 1985 को हुई धर्म संसद के एक आह्वान तथा पूज्य महंत रामचन्द्र दास परमहंस द्वारा आत्म-बलिदान की धमकी के परिणाम स्वरूप 1 फरवरी 1986 राम लला ताले से मुक्त हो गए।


देवोत्थान एकादशी यानि 9 नवंबर 1989 को देश के चार लाख गांवों से पूजित शिलाओं के माध्यम से हरिजन बंधु श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों पूज्य संतों की उपस्थिति में मंदिर का शिलान्यास हुआ। इसके निमित्त सम्पूर्ण देश में लगभग 7 हजार स्थानों पर यज्ञ किए गए। इसके बाद पूज्य संतों की केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की बैठक के निर्णयानुसार 30 अक्तूबर 1990 को कारसेवा की घोषणा ने राजनैतिक गलियारों में हल्ला मचा दिया। उसे रोकने के लिए केंद्र की वीपी सिंह सरकार तथा राज्य की मुलायम सिंह सरकार की लाख चेतावनियों, लाठी-डंडों व गोलियों को झेलते हुए कारसेवक लाखों की संख्या में, किसी भी मार्ग से, किसी भी वेश में व किसी भी ढंग से ‘राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ के मर्मस्पर्शी व गगन भेदी उद्घोषों के साथ, सिर पर केसरिया पटका बांधे अयोध्या पहुँच गए। दंभी शासक मुलायम सिंह ने कहा गया था कि ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता’। उत्साही रामभक्तों ने गुंबद पर भगवा भी पहरा दिया। आंदोलन के महा-नायक स्वर्गीय श्री अशोक सिंहल जी भी लहूलुहान हुए थे।


इसके बाद तो आडवाणी जी की रथ यात्रा हो या वीपी सिंह, चंद्रशेखर व पीवी नरसिंहा राव के साथ वार्ताओं का दौर, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा ध्वंस का मामला हो या सितंबर 2010 का माननीय उच्च न्यायालय का निर्णय, माननीय सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई में बाधा डालने के हिन्दू-द्रोही व कॉंग्रेसियों द्वारा न्यायालय पर किए गए अनवरत हमले हों या9 सितंबर 2019 का ऐतिहासिक सर्वसम्मत आदेश, एक के बाद एक बाधाएं आती गईं , समाधान निकलता गया और सम्पूर्ण विश्व टकटकी लगा कर देखता रहा।


मा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के साथ ही आंदोलनों और कानूनी दाव-पेचों का तो अंत हो गया किन्तु वर्ष 2021 की 15 जनवरी से प्रारंभ हुए 44 दिवसीय श्री राम जन्मभूमि निधि समर्पण अभियान ने भी विश्व भर के जन जागरण अभियानों में एक नया कीर्तिमान बना डाला। कोविड संकट के विकराल दंश के झलने के बाद भी ‘यह राम मंदिर मेरा है। रामजी के आदर्श व जीवन मूल्य मेरे हैं।  रामराज्य की ओर हम सब मिलकर बढ़ेंगे।  कितनी ही वाधाएं आएं, अविचल रहकर, कंटकाकीर्ण मार्ग को बुहारते हुए सम्पूर्ण हिन्दू समाज को साथ लेकर चलेंगे’ ये भाव लेकर रामभक्त एक बार फिर जुट गए। देश के कुल 6.5 लाख में से 5.25 लाख गाँवों में 13 करोड़ से अधिक परिवारों के 65 करोड़ हिन्दुओं से सम्पर्क हेतु 10 लाख टोलियों में 40 लाख कार्यकर्ता जुटे थे। महामाहिम राष्ट्रपति महोदय से लेकर अधिकांश राज्यों के राज्यपालों, मुख्य मंत्रियों, केंद्र राज्यों के मंत्रियों, प्रतिष्ठित हस्तियों से लेकर समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े विशिष्ठ लोगों पूज्य संतों के अतिरिक्त आर्थिक व सामाजिक रूप से देश के सभी सबल-निर्बल राम-भक्तों ने अपनी श्रद्धा-भक्ति व शक्ति से अधिक धन समर्पित किया। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2020 में किए गए भूमि पूजन के दृश्य को भी हम सभी ने देखा। अब आगामी 22 जनवरी को राम लला अपने भव्य व दिव्य मूल गर्भगृह में पुन: विराजमान हो जाएंगे। 


1983 से 2023 यानि पूरे चार दशक तक, विहिप की योजना, रचना, संचालन व संकट मोचक के रूप में इस आंदोलन में योगदान को तो सम्पूर्ण विश्व ने प्रत्यक्ष देखा किन्तु उसने इस सब का श्रेय स्वयं ना लेकर सदैव पूज्य संतों व हिन्दू समाज को ही दिया।  कभी मार्ग दर्शक मण्डल तो कभी जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति, कभी मंदिर जीर्णोद्धार समिति तो कभी श्री राम जन्मभूमि न्यास, कभी श्री राम जन्म भूमि मुक्ति संघर्ष समिति तो अब श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास। सभी जगह पूज्य संतों का ना सिर्फ मार्ग-दर्शन लिया अपितु उन्हीं को सदैव आगे रख कर श्रेय दिया। विहिप ने हर छोटी बड़ी सफलता का श्रेय सदैव पूज्य संतों व हिन्दू समाज को ही दिया और स्वयं आत्म-विलोकी या निर्लिप्त भाव से जन्मभूमि की सेवा तथा हिन्दू समाज के जागरण व संगठन के पुनीत कार्य में सक्रिय रही। उसका एक ही उद्देश्य रहा कि हिन्दू संगठित होगा तो राष्ट्र भी शक्तिशाली बनेगा। हिन्दू समाज से ऊंच-नीच व भेद-भाव का अंत होगा तो समाज समरस व खुशहाल बनेगा।  इसी दौरान अनेक अन्य संघर्षों के साथ विहिप ने श्री रामसेतु तथा अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा हेतु भी बड़ी व निर्णायक लड़ाई लड़ीं। यह भाव वास्तव में विहिप ने हनुमान जी से सीखा। उन्होंने भगवान श्री राम के हर दुष्कर कार्य को सहज बनाया किन्तु उसका श्रेय स्वयं श्री राम या अपने अन्य साथियों को ही दिया।