
मानव सभ्यता की प्रगति में भाषा का महत्व उतना ही है जितना प्राणों के लिए श्वास का। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं बल्कि वह वहन करती है संस्कृति, ज्ञान और वैश्विक अवसरों को। आज जब दुनिया के राष्ट्र सीमाओं से परे एक दूसरे से व्यापार, तकनीकी सहयोग और सांस्कृतिक आदान प्रदान में बंध रहे हैं, तब भाषाई दक्षता किसी भी समाज के लिए महाशक्ति बनने का पहला सोपान बन जाती है। हिंदी भाषियों के लिए यह अवसर और चुनौती दोनों है कि वे अपनी मातृभाषा की गरिमा बनाए रखते हुए वैश्विक भाषाओं की समझ हासिल करें। अंग्रेजी तो अब तक वैश्विक स्तर पर कामकाज की अनिवार्य भाषा बन चुकी है किंतु केवल उसी पर टिके रहना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि विश्व राजनीति और अर्थशास्त्र की धुरी अब बहुध्रुवीय हो चुकी है।
भाषाओं की वैश्विक स्थिति पर नज़र डालें तो अंग्रेजी अभी भी सर्वाधिक प्रभावशाली है, जिसे लगभग 150 करोड़ लोग या तो मातृभाषा के रूप में या दूसरी भाषा के रूप में बोलते हैं। यह शिक्षा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और व्यवसाय की केंद्रीय भाषा है। लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से देखें तो चीनी भाषा मंदारिन इस समय दुनिया की सबसे बड़ी भाषा है, जिसके बोलने वालों की संख्या लगभग 110 करोड़ है। मंदारिन चीन की आर्थिक शक्ति के साथ मिलकर एक अनिवार्य भाषा बन चुकी है, विशेषकर उन लोगों के लिए जो व्यापार और विनिर्माण क्षेत्र में चीन से जुड़ना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त जापानी भाषा भी तकनीकी और शोध क्षेत्र में अपनी मजबूती रखती है। जापान का ऑटोमोबाइल, रोबोटिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स में वैश्विक वर्चस्व इस भाषा को विशेष महत्व देता है। जापानी भाषा को लगभग 12 करोड़ लोग बोलते हैं और दुनिया भर की तकनीकी कंपनियों में इसके जानकारों की मांग निरंतर बनी हुई है।
इसी प्रकार जर्मन भाषा यूरोप में विज्ञान और दर्शन की धरोहर लेकर चलती है। जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इंजीनियरिंग,ऑटोमोबाइल तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी है। लगभग 9.5 करोड़ लोग जर्मन बोलते हैं और जर्मनी की विश्वविद्यालय प्रणाली विदेशी छात्रों को आकर्षित करती है। रूस की भाषा रूसी भी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में है, जिसे लगभग 25 करोड़ लोग बोलते हैं। रूस की ऊर्जा नीति,अंतरिक्ष अनुसंधान और सामरिक दृष्टि से रूसी भाषा का महत्व कभी कम नहीं होता। कोरियन भाषा भी धीरे धीरे अपना प्रभाव बढ़ा रही है। दक्षिण कोरिया की इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर और मनोरंजन उद्योग ने कोरियन भाषा को एक नए स्तर पर पहुँचा दिया है। लगभग 8 करोड़ लोग कोरियन बोलते हैं और विश्वभर में के पॉप और के ड्रामा के कारण इसके सीखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
हिंदी स्वयं विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है, जिसे लगभग 60 करोड़ लोग मातृभाषा के रूप में बोलते हैं और यदि उर्दू समेत हिंदी पट्टी के रूपांतरों को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या और भी अधिक हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में हिंदी को स्थान दिलाने का अभियान वर्षों से चल रहा है। किंतु हिंदी भाषियों के लिए केवल अपनी भाषा में सीमित रहना पर्याप्त नहीं है। वैश्विक नौकरी, व्यापार और तकनीकी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के लिए अंग्रेजी के साथ साथ चीनी, जापानी, जर्मन, रूसी और कोरियन भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य हो चुका है।
आज दुनिया भर के विश्वविद्यालय इन भाषाओं को औपचारिक पाठ्यक्रम के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। जापान फाउंडेशन, गोएथे इंस्टीट्यूट, कन्फ्यूशियस इंस्टिट्यूट, रशियन कल्चरल सेंटर जैसे संस्थान विदेशी छात्रों को इन भाषाओं में प्रशिक्षित कर रहे हैं। भारत में भी कई विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों ने विदेशी भाषाओं के विभाग स्थापित किए हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पुणे विश्वविद्यालय आदि में विदेशी भाषाओं के संकाय सक्रिय रूप से कार्यरत हैं। इसके अलावा ऑनलाइन शिक्षा प्लेटफार्म जैसे कोर्सेरा, डुओलिंगो और एडएक्स ने विदेशी भाषाओं को सीखना और भी सुलभ बना दिया है। इन संस्थानों के आंकड़े बताते हैं कि हाल के वर्षों में भारतीय छात्रों में जर्मन और जापानी भाषाएं सीखने की प्रवृत्ति विशेष रूप से बढ़ी है, जबकि व्यापारिक समुदाय चीनी भाषा सीखने की ओर झुकाव दिखा रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में यदि आर्थिक दृष्टि से देखें तो भारत का व्यापारिक संतुलन एशिया के देशों के साथ तेजी से बढ़ रहा है। चीन, जापान और कोरिया भारत के प्रमुख व्यापारिक साझेदार हैं। यूरोप में जर्मनी भारत का सबसे बड़ा सहयोगी है और रूस के साथ भी ऊर्जा तथा रक्षा के क्षेत्र में सहयोग लगातार बना हुआ है। ऐसे में केवल अंग्रेजी जानने वाले भारतीय कारोबारी और तकनीकी पेशेवर उन अवसरों को खो देते हैं जो प्रत्यक्ष संवाद के अभाव में उनके हाथ से निकल जाते हैं। कई बार यह अनुभव किया गया है कि विदेशी व्यापार वार्ता में जब आप सामने वाले की भाषा में एक वाक्य भी बोलते हैं तो उसका असर किसी बड़े समझौते से कम नहीं होता। यह केवल व्यापार नहीं बल्कि विश्वास का सेतु भी है।
तकनीकी दृष्टि से भी भाषाई कौशल एक रणनीतिक निवेश है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और नैनो टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में जापान और कोरिया अग्रणी हैं। यदि भारतीय इंजीनियर और शोधार्थी जापानी और कोरियन भाषा में दक्ष हो जाएं तो उन्हें इन देशों में रोजगार और शोध के अवसर आसानी से प्राप्त होंगे। इसी तरह चीन के विनिर्माण उद्योग और जर्मनी की मशीन निर्माण तकनीक में प्रवेश करने के लिए संबंधित भाषाओं की समझ अनिवार्य है। रूस की अंतरिक्ष तकनीक और ऊर्जा संसाधन के साथ सहयोग हेतु रूसी भाषा का महत्व स्पष्ट है।
यहां यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि भाषा केवल रोजगार या व्यापार का औजार नहीं बल्कि संस्कृति और कूटनीति का सेतु भी है। कोरियन भाषा सीखने वाले युवा केवल नौकरी के अवसर नहीं पा रहे बल्कि वे कोरियन संगीत और संस्कृति को आत्मसात कर रहे हैं। जापानी भाषा जानने वाले छात्र केवल तकनीकी नहीं बल्कि जापान के अनुशासन और सौंदर्यबोध को भी अनुभव कर रहे हैं। जर्मन भाषा सीखने वाले विद्यार्थी न केवल विज्ञान और दर्शन तक पहुंच बना रहे हैं बल्कि गेटे और काफ्का जैसे साहित्यकारों की मौलिकता से परिचित हो रहे हैं।
इस सबका विश्लेषण हमें यह सिखाता है कि हिंदी भाषियों को केवल अंग्रेजी पर निर्भर न रहकर वैश्विक भाषाओं का ज्ञान अर्जित करना चाहिए। इससे वे न केवल रोजगार के अवसर प्राप्त करेंगे बल्कि विश्व राजनीति, अर्थशास्त्र और संस्कृति की धारा में सक्रिय भागीदारी निभा सकेंगे। आंकड़ों के अनुसार यदि हिंदी भाषी युवाओं का मात्र दस प्रतिशत भी वैश्विक भाषाओं में दक्ष हो जाए तो भारत की वैश्विक पकड़ कहीं अधिक मजबूत हो जाएगी।
अतः आज आवश्यकता है कि हिंदी भाषी समाज बहुभाषी समाज के रूप में विकसित हो। अपनी मातृभाषा को आत्मगौरव के साथ संभालते हुए अंग्रेजी, जापानी, रूसी, जर्मन, चीनी और कोरियन भाषाओं को सीखना और सिखाना हमारी शैक्षणिक और सांस्कृतिक नीति का हिस्सा होना चाहिए। यह वह निवेश है जो आने वाले दशकों में भारत को वैश्विक नेतृत्व की ओर ले जाएगा। एक बहुभाषी हिंदी भाषी समाज न केवल आर्थिक समृद्धि की गारंटी देगा बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखने में भी सक्षम होगा। यह एक ऐसा भविष्य होगा जहां हिंदी का गौरव सुरक्षित रहेगा और वैश्विक भाषाओं की समझ हमें विश्व नागरिक बनने की सामर्थ्य देगी।
विवेक रंजन श्रीवास्तव