कृषि कर्म को पूजा मानते थे हमारे पूर्वज

कृषि जिसे आज एक सामान्य व्यवसाय माना जाता है, एक समय में पवित्र एवं धार्मिक कार्य माना जाता था। भूमि में हल चलाते समय तथा बीज बोते समय मंत्रोच्चार किया जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में सीरिया के शासक सैल्युकस के राजदूत मेगस्थनीज के लिखे विवरण में यहां तक उल्लेख मिलता है कि दो देशों के बीच यदि युद्ध हो रहा है तो कृषकों को अवध्य माना जाता था तथा युद्ध के दौरान भूमि और उपज को क्षति नहीं पहुंचाई जाती थी।


मेगस्थनीज के शब्दों में ‘दूसरी जातियों में युद्ध के समय भूमि को नष्ट करने या उसे ऊसर या पड़त बना देने की प्रथा है, पर इसके विपरीत भारतवासी, कृषक समाज को अवध्य और पवित्र मानते हैं, भूमि जोतने वाले चाहे उनके पड़ौस में युद्ध हो रहा हो, तो भी कभी किसी प्रकार के भय की आशंका से विचलित नहीं होते। दोनों पक्ष के लडऩे वाले, युद्ध के समय एक-दूसरे का संहार करते हैं, परंतु जो खेती में लगे हुए हैं, उन्हें सर्वतोभाव से निर्विघ्न पड़ा रहने देते हैं। वे न तो शत्रु के देश की उपज और भूमि का अग्नि से सत्यानाश करते हैं और न उनके पेड़ काटते हैं।‘


मेगस्थनीज ने अपने वृत्तांत में अनेक बार इस बात का उल्लेख किया है कि कृषि को पवित्र एवं कृषक को अवध्य माना जाता था। एक अन्य स्थान पर मेगनस्थनीज ने लिखा है- ”निज भूमि पर काम करते हुए किसान को शत्रु देश के सैनिक हानि नहीं पहुंचाते हैं, क्योंकि इस (कृषक) वर्ग के लोग सर्वसाधारण जनता के हितकारी माने जानने के कारण सब हानियों से बचाये जाते हैं।‘


मेगस्थनीज एवं चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में कौटिल्य अर्थशास्त्र लिखा गया है। इस महान ऐतिहासिक ग्रंथ में कृषि को एक धार्मिक कार्य बताया गया है। मेगस्थनीज ने अपने विवरण में लिखा है कि भूमि के अधिकांश भाग पर सिंचाई होती है तथा उसमें एक वर्ष में दो फसलें तैयार होती हैं पर कौटिल्य ने एक वर्ष में तीन फसलें पैदा करने का विवरण दिया है। कौटिल्य के अनुसार वर्षाऋतु के प्रारंभ में शालि (धान), कोद्रव (कोदो) प्रियंगु (कंगनी) वरक (मोंठ) तथा कुछ दलहन बोये जायें, वर्षा के मध्य में मुदगर (मूंग), उड़द आदि बोये जाएं। वर्षाऋतु की समाप्ति के बाद कुसुंबा, मसूर, कुलत्थ (कुल्थी) यव (जौ), गोधूम (गेहूं), कलाय (चना) और सर्वद (सरसों) आदि को बोया जाये। कौटिल्य ने अन्य फसलों का भी उल्लेख किया है, इनमें ईक्षु (ईख) और कार्पास (कपास) आदि शामिल हैं। मेगस्थनीज ने उपरोक्त फसलों के अतिरिक्त ज्वार, अनेक प्रकार की दालें, विविध प्रकार की धान तथा वास्फोरम नामक एक अनाज का भी उल्लेख किया है। कौटिल्य धान आदि की फसलों को श्रेष्ठ मानते थे तथा साग-सब्जी की फसल को मध्यम। आधुनिक युग में दो फसलें लेने को ही उन्नत कृषि माना जाता था, पर कौटिल्य के समय में तीन फसलें पैदा होती थी- जो हैमन (रबी) ग्रैष्मिक (खरीफ) और केदार (जायद) कहलाती थी।


कौटिल्य ने इस बारे में भी लिखा है कि कौन सी भूमि में कौन सी फसल बोई जाये। उनके ही शब्दों में-


‘फेनाद्यातो वल्लीफलानां, परिवाहान्ता, पिप्पलीमृद्वीकेक्षुणा कूपपर्यन्ता शाकमूलानां हरणीपर्यन्ता, हरितकानां, पाल्योलपाना, गन्धभैषज्योशीरहीरबेर पिण्डालुकादीनाम’ (कौटिल्य अर्थशास्त्र 2/24)


अर्थात् जो भूमि फेनाघात (नदी के जल से आप्लावित हो जाती हो। उस भूमि में वल्ली फल (खरबूजा, तरबूज, ककड़ी आदि) बोयी जाये, जो भूमि परिवाहान्त (सिंचित) हो उस पर पिप्पली, मृद्वीका (अंगूर) और गन्ना बोया जाये, जो भूमि कूप पर्यन्त (कुओं के समीप स्थित) हो, उस पर साग सब्जी और मूल (गाजर, मूली, शकरकंद) आदि बोये जायें, जो भूमि हरणीपर्यन्त (जहां पहले तालाब रहते हों और उनके सूख जाने पर भूमि में नमी रहती हो) उस पर हरी फसलें बोई जायें और क्यारियों की मेड़ों पर सुगंध देने वाले और औषधियों के लिए उपयोगी पौधे लगाये जायें।


कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक फलों, फूलों, खाद्यान्नों, कन्द, मूल, मसालों आदि का उल्लेख है। इनमें मरीच (मिर्च), श्रंगि (अदरक), धनिया, जीरा, नींबू, आम, आंवला, बेर, झरबेरी, जामुन, कटहल और अनार आदि के नाम तो है ही कई ऐसी वस्तुओं और फसलों के नाम हैं, जिनका अर्थ हमें आज ज्ञात नहीं है। चाणक्य ने गन्ने के रस से गुड़ मत्स्यण्डिका, (चीनी) खण्ड (खांड) बनाने का उल्लेख भी किया ही है।


मत्स्यण्डिका (चीनी) के उपयोग से नींबू, आम तथा अन्य फलों का शरबत बनाने का भी उल्लेख किया गया है। कौटिल्य कृषि कर्म को धार्मिक अनुष्ठान मानते थे। इसीलिए कौटिल्य ने लिखा है जब बीजों को बोना प्रारंभ किया जाये तो कुछ बीजों को पानी में भिगोकर तथा इन भीगे हुए बीजों के बीच में स्वर्ण (सोना) रखकर यह मंत्र पढ़ा जाये-


प्रजापतये काश्चपयाय देवाय च नम: सदा।
सीता में ऋद्ध्यातां देवी बीजे च धनेषुच।।


अर्थात प्रजापति और काश्यप देवताओं को सदा नमस्कार है। हमारी कृषि में सदा वृद्धि हो और हमारे बीजों और धन में देवी का निवास हो। मौर्य काल में अच्छी फसल की कामना के लिए कई देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती थी। यद्यपि सिंचाई के पर्याप्त प्रबंध थे, फिर भी वर्षा कब होगी और कैसे होगी इसे भी ज्योतिष के आधार पर जानने का प्रयत्न किया जाता था। कौटिल्य के मतानुसार बृहस्पति ग्रह की स्थिति और गति से, शुक्र के उदय और अस्त से और सूर्य के स्वरूप और विकार से वर्षा के संबंध में अनुमान लगाया जाना चाहिए।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में यद्यपि कृषि का विवरण बहुत विस्तृत नहीं है, पर वह एक रहस्योद्घाटन अवश्य करता है, कि भारत में कृषि मात्र व्यवसाय नहीं थी, इसे एक पवित्र, कर्म, धार्मिक अनुष्ठान तथा सामाजिक दायित्व का कार्य माना जाता था। यह पवित्र धार्मिक और सामाजिक कर्म, सफलता और सुगमतापूर्वक सम्पन्न हो इसलिए अनेक देवी-देवताओं की आराधना की जाती थी। वैसे आज भी इस परम्परा के कुछ अवशेष देखने को मिलते हैं। कई गांवों में खेतों में हल चलाने, बीज बोने, कुआं खोदने आदि का मुहूर्त निकलवाने की आज भी परंपरा है। इसके पीछे धारणा यही है कि पवित्र कार्य, शुभ समय पर हो। फसल आ जाने पर त्यौहार मनाने तथा विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा-उपासना की परम्परा आज भी कायम है। होली, बैसाखी, लोहड़ी, बिहू आदि त्यौहार नई फसल आने के उपलक्ष्य में ही तो आयोजित होते हैं।