दुनिया में माता और पिता दो तत्व मुख्य होते हैं जिसके आधार पर सारे प्राणी जगत की संरचना होती है। शरीर में आकाश (पिता) और पृथ्वी (माता) के बीच चलने वाली चेतना के प्रवाह को संतुलित करने का नाम स्वास्थ्य है। जितना मातृ एवं पितृ चेतना के साथ तालमेल होता है, उतना ही स्वास्थ्य अच्छा होता है। ओम् का दीर्घ उच्चारण शरीर में मातृ एवं पितृ शरीर ध्वनिमय हो जाता है। ”ओ’ शब्द का लम्बा उच्चारण करने से आकाश तत्व और ”म्’ के उच्चारण से पृथ्वी तत्व बढ़ता है। ओम् की ध्वनि के दीर्घ उच्चारण से आभा मंडल शुद्ध होता है। सभी रोगों में राहत मिलती है।
श्वास लेते समय पेट आगे आने लगता है। श्वसन की इस प्रक्रिया को मातृ प्राणायाम कहते हैं। इस प्रक्रिया से शरीर में पृथ्वी अर्थात् मातृ तत्व सक्रिय होता है। गर्दन को सामने नीचे झुकाकर और हथेलियों को पृथ्वी की तरफ रख गर्दन को एन्टी क्लॉक वाइस घूमाने से भी मातृ तत्व बढ़ता है। नाभि के ऊपर की तकलीफ में प्राय: मातृ तत्व का अभाव होता है। मातृ ऊर्जा बढ़ाने से रक्त विकार दूर होता है। प्रेम बढ़ता है और निर्भयता का अनुभव होता है। रक्त पृथ्वी तत्व से अधिक संबंधित होता है।
पितृ प्राणायाम- सुखासन में बैठ दोनों हथेलियों को आकाश की तरफ रखने से श्वसन डायाफ्राम तक ही पहुंचता है। श्वास की इस प्रक्रिया को पितृ प्राणायाम कहते हैं। इससे आकाश अर्थात् पितृ तत्व बढ़ता है। हथेलियों और गर्दन को आकाश की तरफ रख गर्दन को धीरे-धीरे क्लॉकवाइस घूमाने से भी पितृ चेतना बढ़ती है। शरीर में नाभि के नीचे की गड़बड़ी के समय प्राय: पितृ तत्व का अभाव होता है। नाड़ी तंत्र आकाश तत्व से अधिक संबंधित होता है। आकाश तत्व बढऩे से मोटापा कम होता है।
दोनों हथेलियों को एक के ऊपर दूसरी रखने से शरीर में प्राण ऊर्जा के प्रवाह का संतुलन होता है। इस स्थिति में ध्यान करने से लम्बे समय तक एकाग्रता आसानी से रह सकती है। प्राय: सभी तीर्थंकरों की बैठकर ध्यान करने की इसी स्थिति में अधिकांश मूर्तियां मिलती है। पितृ प्राणायाम के अभ्यास से निद्रा को रोका जा सकता है। पितृ प्राणायाम से मस्तिष्क में सजगता बढ़ती है। जैन धर्म में साधक बैठकर कायोत्सर्ग अथवा ध्यान करते समय प्राय: दोनों हथेलियों को आकाश की तरफ रखते हैं।
मातृ एवं पितृ प्राणायाम द्वारा रोगोपचार
1. अनिद्रा- जब मस्तिष्क में चिंतन चलता रहा है तो निद्रा नहीं आती है। उस समय मातृ प्राणायाम करने से निद्रा आने लगती है।2. पेट का दर्द- बायीं हथेली कमर में दर्द के ठीक पीछे वाले भाग में तथा दाहिनी हथेली पेट पर दर्द वाले स्थान पर स्पर्श कर गहरा श्वास लेने से दर्द में राहत मिलने लगती है।
3. मस्तिष्क का दर्द- बायीं हथेली को सिर में दर्द के ठीक पीछे वाले भाग पर तथा दाहिनी हथेली को सिर में दर्द वाले स्थान पर स्पर्श करने से सिर दर्द में आराम होता है।
4. कब्ज- नाभि पर हथेली से क्लॉकवाइस मसाज करने से कब्जी दूर होती है।
5. दस्त- नाभि पर हथेली से एन्टी क्लॉकवाइस मसाज करने से दस्तों में राहत मिलती है।
6. गर्दन का दर्द- गर्दन को आगे पीछे, दाहिने-बायें धीरे-धीरे घूमाकर देखें। जिस स्थिति में बिल्कुल दर्द न आता हो अर्थात् न्यूटरल पोजीशन में दोनों हथेलियों की अंगुलियों को आपस में फंसाकर स्पर्श कर गर्दन को सभी दिशाओं में घुमाने से चेतना का प्रवाह संतुलित होने लगता है और गर्दन का दर्द दूर हो जाता है।