गुरुनानक जयंती – सतगुरु नानक प्रगटिआ, मिटी धुन्ध जग चानण होआ

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भाई गुरुदास जी 15वीं शताब्दी के हालात के बारे में इस प्रकार लिखते हैं :-


”कल आयी कुत्ते मुही खाज होईआ सुरदार गुसाई।
राजे पाप कमांवदे उल्टी बाड खेत क्यों खाई।
प्रजा अंधी ज्ञान बिन कुड कुस्त मुखहू अलाई।
चेले साज बजाईन्दे नचंण बहुत गुरु बिघ ताई।
सेवक बैठे घरां विच गुरू उठा घर्रा तिनाडे जाई।
काजी होये रिश्वती बंडी लैके हक गवाई।
स्त्री पुरखे याम हित भावे आई किथाऊ जाई।
वरतिया पाप एवं जग माही।‘


भाई गुरुदास जी की इस कविता से स्पष्ट है कि उस समय अंधकार था। लोग अंधविश्वास में फंसे हुए थे, धार्मिक स्थानों के पुजारी भी भ्रष्टाचार कर रहे थे।  राजा लूट-खसोट करते थे तथा उन्हें लोगों की भलाई की कोई चिंता नहीं थी। स्त्रियों की इज्जत लूटी जा रही थी। जातपात को आधार बनाकर लोगों से भेदभाव किया जा रहा था। पाखंडियों का जोर था। गरीब आदमी की हालत बहुत ही दयनीय थी।


यह कुदरत का नियम है कि जब पाप का पलड़ा भारी हो जाता है तथा आतंकवादी शक्तियां देवी शक्तियों पर हावी हो जाती हैं तो परमात्मा एक ऐसे पुरुष को जन्म देता है जो कि आतंकवादी शक्तियों का मुकाबला करता है तथा लोगों को ठीक रास्ते पर ले जाता है। इसी प्रकार 1469 ई. में कार्तिक की पूर्णमासी को ननकाना साहब में गुरु नानक देव जी ने जन्म लिया। भाई गुरुदास जी गुरुजी के जन्म के बारे में इस प्रकार लिखते हैं :-


सतगुरु नानक प्रगटिआ, मिटी धुन्ध जग चानण होआ, जिऊं कर सूरज निकलिया, तारे छिपे अंधेर पलोआ।


भाई गुरुदास जी की उपरोक्त पंक्तियां बिलकुल ठीक हैं क्योंकि गुरू नानक देव जी के जन्म से अन्धकार समाप्त हो गया तथा जग में उजाला हो गया।


उनकी आंखों में रुहानी चमक भी तथा मस्तक भी चमकीला था। जब वे पण्डित के पास पढऩे के लिये गये तो उन्होंने उससे अनेक सवाल पूछे जिनके पण्डित के पास जवाब नहीं थे। इसके बाद गुरुजी ने सवालों के जवाब दिये तो पण्डित नानक देव के चरणों में गिर गया। उन्होंने एक दिन नहाते समय नदी से डुबकी मारी तो बाहर ना निकले।


बहुत ढूंढऩे के बाद भी ना मिल सके। ऐसा कहा जाता है कि  नानक देव को परम पिता परमात्मा के संदेश वाहक ले गये तथा उन्हें परमात्मा का नाम प्रचार करने के लिये कहा गया। संसार में बाणी सिमरण करों तथा अंधकारमयी जनता को उपदेश दो, तुम्हारा जीवन नाम, दान, सेवा, स्नान तथा सुमरिन में व्यतीत हो। गुरु साहिब ने भी इस प्रकार लिखा है :-
जैसी मैं आवे खसम की बाणी तैसडा करी ज्ञान वे लालो,
पाप की जंझ ले काबलो घाईया जोरो मंगे दान वे लालो
”मन को ज्योति सरूप है, आपणा मूल पछाण’


मन को ज्योति का स्वरूप कहा गया है। ज्योति नहीं कहा गया यही  ध्यान देने योग्य बात है। मन ज्योति नहीं है। ज्योति का स्वरूप है। जैसे हम किसी सुन्दर बालक को देखकर कहते हैं कि बालक का मुख चंद्रमा जैसा है। वस्तुत: बालक का मुख चंद्रमा नहीं है। चांद की उसे उपमा दी जाती है। वैसे ही यहां मन को ज्योति की उपमा दी गई है। परन्तु मन अलग है और आत्मा भिन्न है। मन का मूल आत्मा है। क्योंकि मन जब विलीन होता है या तिरोहित होता है तो केवल आत्मा बचती है।


यद्यपि इस अवस्था तक पहुंचना कठिन जरूर है परन्तु इस अवस्था तक पहुंचे बिना अहंकार से छुटकारा नहीं हो पाता और यदि अहंकार ना छूटे तो निरंकार की प्राप्ति नहीं हो सकती। अहंकार का अर्थ ही है कि निरंकार की अनुपस्थिति और निरंकार का अर्थ है कि अहंकार समाप्त हो गया।


जब साधक इन चारों परतों को भेदता है तो उसे ज्ञान होता है कि परमात्मा तो आत्मा में ही विराजमान है। यथा गुरुवाणी- ”आतम महि राम, राम महि आतम चीनस गुरु बिचारा’। गुरू का विचार करने से ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही वह मंदिर है। जिसमें परमात्मा निवास करता है। और जैसे पुष्प में सुगंध बसती है दर्पण में प्रतिबिंब रहता है उसी प्रकार परमात्मा हृदय में निवास करता है।


‘पुहप मध जिऊं वास बसत है, मुकर मंहि जैसे छाई
तैसे ही हरि बसे निरंतर घर ही खोजहु भाई।‘


जब मन बुद्धि की ओर भागता है तो परमात्मा से दूर हो जाता है। जब हृदय या भाव की ओर जाता है तो केंद्र के निकट आता है। क्योंकि भावना या भाव के बिना अकाल पुरख का स्मरण नहीं हो सकता और वह भावना उत्पन्न होती है साध संगत में जाने से। ‘साध संगत बिन भाव न उपजे, भाव बिन भगति न होए तेरी।‘


जब हृदय में भाव उठे तो परमात्मा का स्मरण होता है। अहंकार को गिराने के लिए गुरु घर में सेवा का मार्ग बताया गया है।  इस प्रकार साधक सिमरन और सेवा से मन के पार जाकर उस, अकाल पुरख परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है क्योंकि जब मन आत्मा में विलीन होगा तो आत्मा भी परमात्मा में विलीन हो जाएगी।  तब गुरु का सिख और गुरु में कोई भेद नहीं रहता। क्योंकि ‘हरि हरिजन हुई एक है, बिब विचार कछ नाहि’ जल  से उपज तरंग जिऊं जल ही बिखै समाए। संत पलटूदास ने भी कहा है।  ‘हरि हरिजन की छुई कहै सो नर नरकै जाय’ यहीं तक आकर मन अपने स्वरूप को पहचान लेता है और स्वरूप का ही हो जाता है। तभी मुक्ति का द्वार खुलता है और आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। 


इसलिए मन को गुरुजी का उपदेश है-
मन जू जोति सरूप है, आपणा मूल पछाण।