त्योहार व तीर्थ हैं हमारे पूर्वजों की आर्थिक संतुलन नीति के नियामक
Focus News 25 November 2023भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने वाले भारतीय काले अंग्रेज सनातन संस्कृति की किसी न किसी बात को लेकर न केवल हल्ला मचाते रहते हैं बल्कि उसके नियामकों और आयामों को हमेशा अवैज्ञानिक और तुच्छ सिद्ध करने के लिए ऐसे ऐसे हास्यास्पद कुतर्कों का सहारा लेते है जो न केवल सारहीन होते हैं अपितु सन्दर्भहीन भी होते हैं।
अक्तूबर, नवम्बर के महीनों में हर वर्ष दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण का पैमाना खतरनाक स्तर पर पंहुच जाता है। दिल्ली और एनसीआर में सांस लेना तक दूभर हो जाता है। इस प्रदूषण से निबटने के लिए दिल्ली में बैठी सरकारें और स्थानीय निकायें किसी दीर्घकालीन योजना पर काम करके इस मनुष्यजनित समस्या का निराकरण करने के बजाय हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में दस पन्द्रह दिन पराली जलाने को कारण बता कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।
हंसी तो तब आती है जब एक दो दिन दीपावली के त्यौहार पर पटाखे जलाने से दिल्ली और एनसीआर के दमघोंटू माहौल को जोड़ दिया जाता है। हम नहीं जानते कि यह बहाना वैज्ञानिक कसौटी पर कितना सही है मगर हम यह जरुर देखते और महसूस करते हैं कि गाजापट्टी में इजराइल द्वारा बरसाए एक एक बम ने पूरी दिल्ली में जलाये गये पटाखों से अधिक धुआं और जहरीली गैसें फैलाने वाले हजारों बम वहां गिराये मगर वहां एक रोज भी प्रदूषण स्तर खतरनाक स्थिति तक नहीं पंहुचा जबकि आबादी के मामले में, विशाल अट्टालिकाओं के लिहाज से भी गाजा पट्टी दिल्ली से कोई बहुत कम नहीं है।
इसमें कोई शक नहीं है कि प्रदूषण के रूप में जरुर दिल्ली ही क्या, भारत के पर्यावरण प्रदूषण में कुछ तो आतिशबाजी से असर पड़ता ही होगा मगर प्रश्न यहाँ यह भी उठता है कि क्या केवल दीपावली पर ही फोड़े जाने वाले पटाखे प्रदूषण पैदा करते हैं। क्या क्रिसमस और शबेबारात(ह.मुहम्मद का जन्मदिन) पर छोड़े गये पटाखे प्रदूषणरहित होते हैं? क्या दिल्ली में चल रहे करोड़ों एसी और इसी तरह के अन्य उपकरण हवा में विषैली गैसों का स्तर नहीं बढाते? क्या मशीनी वाहन, जेनेरेटर और इसी तरह के अन्य उपकरण प्रदूषण के कारण नहीं हैं? अगर हैं तो इन्हें भी बंद क्यों नहीं किया जाता। इस पर पर्यावरण आयोग और सुप्रीम कोर्ट चुप क्यों है?क्या इसलिए कि वह स्वयं इनका स्तेमाल करता है?
सच बात तो यह है कि यह कुछ अर्बन नक्सलियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दिमागी दिवालिये लोगों का भारतीय संस्कृति और सनातनी मान्यताओं को मिटा कर भारतीय सभ्यता को नेस्तनाबूद करने का घृणित प्रयास है। वे जानते हैं कि सनातनी सभ्यता में इन त्योहारों और मन्दिरों का कितना शीर्ष महत्व है। इसीलिए वे चाहते हैं कि इन्हें मिटा कर वे सनातनियों को भी वामपंथी जनता और अनीश्वरवादियों की तरह अपना मानसिक गुलाम बना लें लेकिन भारत का एक एक सनातनी जानता है कि उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन में उसकी संस्कृति, परम्परा और मान्यताओं का कितना बड़ा योगदान है जो उसे लाखों वर्षों से अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं की तरह से विनष्ट होने बचाए रखती हैं।
कन्फेडरेशन ऑफ आल इण्डिया ट्रेडर्स के अनुसार इसदीपावली में धनतेरस, छोटी दीपावली, बड़ी दीपावली और पहले के एक सप्ताह में 3.75 लाख करोड़ रूपये(47 बिलियन यूएसडी) का व्यवसाय देश भर में हुआ है। इसी तरह दुर्गा पूजा और नवरात्रो में भी 50,000 करोड़ के आस पास का हुआ। मात्र दुर्गा पूजा के समय, सिर्फ पश्चिम बंगाल राज्य में ही तीन लाख से ज्यादा कारीगरों, मजदूरों को काम मिला। देश भर में कितना काम इन त्योंहारों पर मिलता है, अंदाजा लगाया जा सकता है।गणेश चतुर्थी पर 20-25 हजार करोड़ का लेन देन हुआ।यह आंकड़े सिर्फ तीन ही त्यौहारों के हैं।इसी तरह से होली, जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि, रक्षाबंधन जैसे ढेरों त्यौहारो को अगर जोड़ लिया जाय तो आराम से 150-200 बिलियन डॉलर की एक अलग ही अर्थव्यवस्था चलती रहती है।
इसमें अगर तीर्थ स्थलों, बड़े मंदिरों, या अन्य धार्मिक स्थलों को भी जोड़ दिया जाय तो उनसे होने वाली आय और वहाँ श्रद्धालुओं के जाने से होने वाले खर्चो को साथ जोड़ लिया जाय तो यह आकड़ा आराम से 400 बिलियन डॉलर तो पंहुच ही जाएगा।इससे ऊपर भी हो सकता है।यह राशि दुनिया की अडतालीसवीं अर्थव्यवस्था फिनलैंड की जीडीपी के बराबर होतीहै। इससे तुलना का आशय यह है कि हमारे देश में धर्म, त्यौहार, तीर्थ आदि के कारण इतना पैसा एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता है जो दुनिया के 150 से ज्यादा देशों की जीडीपी से भी ज्यादा है और यह कोई नई व्यवस्था नहीं है।हजारों वर्षों से पारम्परिक रूप से चलती आ रही व्यवस्था है। इसका केंद्र हमारे मंदिर, हमारे त्यौहार, हमारे तीर्थ ही होते आये हैं।स्मरणीय है कि ऐसा सिर्फ हिन्दू धर्म में ही नहीं हैं।मक्का-मदीना, वेटीकन सिटी आदि भी इसी व्यवस्था के मॉडल हैं। धर्म का मजाक उडाने वाले तथाकथित विद्वान भूल जाते हैं कि यह देश की अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी धुरी है।
स्मरणीय है कि काशी विश्वनाथ, उज्जैन और केदारनाथ की तरह अगले वर्ष 22 जनवरी को अयोध्या में राम मन्दिर का श्रीगणेश होने जा रहा है जो धार्मिक अर्थव्यवस्था को अविश्वसनीय रूप से एक मानक उछाल देगा।
अब समय आ गया है जब सनातनी धर्माचार्यों को एकजुट होकर सामूहिक रूप से इन छद्म अर्बन नक्सलियों, कथित धर्मनिरपेक्षों और अनीश्वरवादियों के थोथे और अव्यवहारिक तथ्यों पर आधारित सनातनी परम्पराओं के विरोध का प्रखण्डन किया जाय और भारतीय संस्कृति, परम्पराओं और व्यवस्थाओं की रक्षा के लिये आगे आया जाय।इस सम्बन्ध में केवल एक पहल मात्र की आवश्यकता है। जन समर्थन तो अपने आप मिलता चला जाएगा।