संविधान में हिंदी

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डॉ. नीरज भारद्वाज

 

 

भारतवर्ष के स्वतंत्र होने के बाद उसके संविधान बनने में भाषाओं का महत्त्व या योगदान की बात करें तो यह भी बहुत ही रोचक है। डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी अपनी पुस्तक प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी में लिखते हैं कि, ‘फरवरी 1948 में संविधान का जो प्रारूप प्रस्तुत किया गया, उसमें राजभाषा विधेयक कोई उपबंध नहीं था। इतना ही उल्लेख था कि संसद की भाषा अंग्रेजी या हिंदी होगी।’ विचार करें तो अंग्रेजों के आगमन और अंग्रेजों के भारत में पैर जमाने तक हिंदी-उर्दू के बीच झगड़ा खड़ा हुआ था और अब स्वतंत्रता के बाद हिंदी-अंग्रेजी का झगड़ा खड़ा हो गया। कहने का भाव यह है कि हिंदी अपने ही देश में अपने ही लोगों से लड़ाई लड़ रही थी। बहरहाल जो भी हो, भारतीय संविधान लागू होने से पूर्व 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में लेने के विचार पर सहमति बन गई और संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थान मिला।

जहाँ तक राजभाषा की बात है, राजभाषा उस भाषा को कहा जाता है जो राज-काज अर्थात् प्रशासन की भाषा हो। राज-काज अथवा सरकारी काम-काज या कार्यालय की भाषा। राजभाषा देश के प्रशासक वर्ग की भाषा है। इसका प्रयोग मुख्यतः चार क्षेत्रों में अपेक्षित है- शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इस प्रकार हिंदी भाषा को भारतीय संविधान में स्थान मिला और उसके कार्य करने की बातों को भी स्पष्ट किया गया।

संविधान की दृष्टि से बात करें तो अनुच्छेद 120, 210, 343 से 351 तक इन सभी में भाषा से जुड़े तत्वों के बारे में चर्चा की गई है। हम यहाँ पर इन सभी अनुच्छेदों पर संक्षेप में चर्चा कर रहे हैं। अनुच्छेद 120 में संसद में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा के बारे में कहा गया है।अनुच्छेद 210 में राज्य विधान मंडलों में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा। अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार देवनागरी में लिखित हिंदी संघ की राजभाषा है अर्थात् हिंदी संघ की राजभाषा के रूप में स्थापित हो गई।अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के सभी कार्यों के लिए पहले की भाँति अंग्रेजी का प्रयोग करने की व्यवस्था की गई। दूसरे शब्दों में कहें तो अंग्रेजी सह संघीय भाषा के रूप में उभरकर सामने आई। अनुच्छेद 343 (3) में संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखने के बारे में व्यवस्था कर सकती है।

इस बात पर प्रकाश डालते हुए डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, ‘राजभाषा अधिनियम 1963 में अन्य बातों के होते हुए धारा 3 (3) में सरकारी कार्यालयों से जारी होने वाले सभी दस्तावेजों में हिंदी और अंग्रेजी का अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्रीय स्तर पर द्विभाषिकता की स्थिति पैदा हो गई।’ इस मत से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि अब कोई भी सरकारी कागजात अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में जन के सामने आयेगें और यहाँ एक नया विषय अनुवाद भी सरकारी कार्यालयों के लिए आवश्यक हो गया। इन सरकारी कार्यों में सामान्य आदेश, प्रेस विज्ञप्तियाँ, संविदाएँ, नियम, अधिनियम, टेंडर फार्म, टेंडर नोटिस, लाइसेंस, सूचना, प्रशासनिक तथा अन्य रिपोर्ट, परमिट, संसद के दोनों सदनों के सरकारी पत्र आदि सभी कुछ अनिवार्य रूप से दोनों भाषाओं अर्थात् हिंदी और अंग्रेजी में जारी करने की बात कही गई।

अनुच्छेद 344 में राजभाषा के लिए आयोग और संसद समिति के गठन की व्यवस्था की गई।अनुच्छेद 345 में राज्य की राज्यभाषा या राज्यभाषाएँ पर चर्चा है। अनुच्छेद 346 में एक राज्य दूसरे राज्य के साथ अथवा राज्य और संघ के बीच पत्राचार की भाषा की व्यवस्था पर विचार है।अनुच्छेद 347 में किसी राज्य के जन समुदाय के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष अनुबंध है।अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों तथा अधिनियमों, विनियमों आदि में प्रयुक्त भाषा। अनुच्छेद 349 में भाषा से संबंधी कुछ विधियों को अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया।अनुच्छेद 350 में किसी व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा।350 (क) में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ।350 (ख) में भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए विशेष अधिकार।अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश हैं अर्थात् हिंदी का विकास ऐसे किया जाए कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।

संवैधानिक दृष्टि से भाषा की यह बात यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि स्वतंत्र भारतवर्ष में तो भाषाएं जुड़ती गई और अष्टम अनुसूची में वर्तमान में 22 भाषाएँ अपनी जगह बना चुकी हैं। सन् 1950 में इसमें 14 भाषाएँ थी, 1967 में एक भाषा सिंधी को जोड़ा गया, 1992 में तीन भाषाओं को कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी और 2003 में चार भाषाओं को जोड़ा गया बोडो, डोगरी, संथाली और मैथिली।

इतना ही नहीं, अब शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने का कार्यक्रम शुरू हुआ और पहली शास्त्रीय भाषा का दर्जा सन् 2004 में तमिल को मिला। बहुत से पाठकों के मस्तिष्क में यह सवाल चल रहा होगा कि संस्कृत विश्व की सभी भाषाओं की जननी है, तो फिर तमिल को पहले कैसे स्थान मिला। भारत में राजनीतिक इच्छा शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है। बहरहाल सन् 2005 में संस्कृत को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल गया। भाषाओं का जुड़ना भारतवर्ष में रूकने वाला नहीं है, इसीलिए भारतीय कक्षाओं में पढ़ाते समय अध्यापक को बहुभाषी शब्दों  का प्रयोग करना होता है।

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