खुशी-खुशी मनायें दीवाली

दीपावली भारतवर्ष का एक प्राचीन त्यौहार है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है यह अंधेरे पर उजाले का, अज्ञान पर ज्ञान का, बुराई पर अच्छाई का, विषाद पर हर्ष की विजय का प्रतीक त्यौहार है। यह भारत के साथ-साथ विश्व के अन्य कई भागों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
दीपावली के कुछ समय पूर्व एक लंबा मौसम बरसात का रहता है, जिसके कारण हमारे आवासीय स्थलों में अनेक प्रकार की गंदगी जमा हो जाती है जिनमें बीमारियां फैलाने वाले कई प्रकार के कीटाणु रहते हैं। इस पर्व पर खूब अच्छी तरह सफाई-पुताई और टूट-फूट की मरम्मत की जाती है। दूसरे शब्दों में अगर यह भी कहें कि यह पर्व वर्ष भर की गंदगी को समाप्त कर स्वच्छता लाता है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।


इस त्यौहार का सीधा संबंध मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के चौदह वर्ष वनवास काटने और रावण जैसी बुराई को समाप्त कर सकुशल घर लौटने से जोड़ा जाता है। कहते हैं उस दिन अयोध्यावासियों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। जैसा कि श्री राम चरित मानस की कुछ चौपाईयों से भी ज्ञात होता है-


”समाचार पुरबासिन्ह पाये। नर अरू नारि हरषि सव धाए।।‘
अवधपुरी प्रभु आवत जानी । भई सकल सोभा के खानी॥
कंचन कलस विचित्र संवारे। सबहिं धरे साजि निज-निज द्वारे॥
बंदनवार पताका केतू। सबहिं बनाये मंगल हेतु॥
नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥
पुरे सोभा संपत्ति कत्याना। निगम सेष सारदा बखाना॥
अवधपुरी अति रूचिर बनाई। देवन्ह सुमन वृष्टि झारी लाई॥


कहते हैं कि अयोध्यावासियों के इस कृत्य को देखकर देवताओं ने भी स्वर्ग लोक से पुष्प बरसाये थे। अवधपुरी की स्वर्ग से भी अधिक शोभा लग रही थी।


पुराने समय में चारों वर्णों में से वैश्य समुदाय जो धन-धान्य से अधिक सम्पन्न होता था, उस समुदाय में दीपावली का विशेष महत्व होता है। इस दिन लोग वर्षभर का लेखा-जोखा कर नये बहीखाते शुरू करते हैं। धन की देवी लक्ष्मी की पूजा को भी विशेष महत्व दिया जाता है। इसके पीछे एक लोककथा प्रचलित है। एक समय था जब दीपावली की संध्या मां लक्ष्मी सभी घरों में विचरण करती थीं। संयोगवश वह विचरण करते-करते एक वैश्य के घर पहुंची। उस समय उस घर में केवल एक बुजुर्ग ही उपस्थित था। शेष सदस्य कहीं गये हुये थे। उस बुजुर्ग ने मां लक्ष्मी को बिठाकर कहा कि मैं स्नान करने जा रहा हूं और जब तक मैं लौटकर न आ जाऊं तुम कहीं मत जाना। बुजुर्ग जी ने सीधे जाकर कुएं में छलांग लगाकर अपना जीवन समाप्त कर लिया। कहते हैं मां लक्ष्मी आज भी वैश्यों के घर में बैठी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही हैं।


कहा जाता है कि एक समय था जब लोग शुद्ध देशी घी के दिये जलाया करते थे। धीरे-धीरे घी का स्थान सरसों के तेल ने ले लिया। विज्ञान का युग आया, दिये का स्थान मोमबत्ती ने छीना। समय को और आगे सरका कर मोमबत्ती को विद्युत चलित कई प्रकार के प्रकाशों ने पछाड़ दिया। आज बाजार में ऐसा सामान मिलता है कि आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता। कुछ भी हो जो बात देशी घी के दिये में थी वह इन विद्युत लडिय़ों की जगमगाहट में कहां आयेगी, परंतु इतना अवश्य है आज देव प्रतिमाएं विज्ञान के चमत्कारों से सजीव जान पड़ती हैं। इस अवसर पर बाजारों में ऐसे कितने ही चित्र मिलते हैं। जिन्हें देखते हुये लगता है कि बस देखते ही रहो। पटाखे खुशी के अवसर पर मनोरंजन का साधन हैं। इन्हें फूटते देख छोटे-बड़े सभी खूब रोमांचित होते हैं।


आज कुछ ऐसे भी पटाखे आ गये हैं जिन्हें एक बार जलाकर दूर हट जाईये और कुछ मिनिटों तक खड़े होकर उसके एक के बाद एक करतब देखते रहिये, परंतु इनके दुष्प्रभावों को भी नहीं झुठलाया जा सकता।


 इनके प्रयोग से कई प्रकार का प्रदूषण तो फैलता ही हैं, वहीं दूसरी ओर यदि इन्हें छोड़ते समय जरा-सी भी असावधानी बरती गई तो यह हमारे हर्ष को दुख में बदल सकते हैं। इन्हें छोड़ते समय सुरक्षा की कभी अनदेखी नहीं की जानी चाहिये। विशेषकर बच्चों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए, क्योंकि बच्चे तो नासमझ होते हैं, हर वस्तु को खिलौना समझते हैं। हर बार इस अवसर पर हुई असावधानियों से दुर्घटनाओं के समाचार मिलते हैं जो दिल दहला देने वाले होते हैं।


कुछ लोग इस अवसर पर जुआं खेलना शुभ मानते हैं। देखा जाता है कि इस दिन जुआरी तो जुआरी सामान्य जन भी दो-दो हाथ करने से नहीं चूकते। शायद इंसान की यही सबसे बड़ी कमजोरी है। वह बिना परिश्रम के सब कुछ पा लेना चाहता है। हम महाभारत को क्यों भूलते हैं जिसमें दर्शाया गया था कि जुएं के कारण ही द्रोपदी का चीरहरण हुआ, पांडवों को वनवास हुआ। बावजूद इसके लोगों में दीपावली पर जुआं खेलने की परंपरा जारी है।