प्यार का दीप जला लो

‘दिव्या तुमने बाजार से दीवाली के लिए सामान खरीदकर लाने की सूची बना ली है?’ रंजन ने पूछा।


‘अरे, सूची बनाए तो मुझे तीन-चार दिन हो गए हैं पर जनाब को अपने दफ्तर से समय मिले तब न? वर्ष भर का सबसे बड़ा त्यौहार है पर हमारे घर में उसकी कोई तैयारी नहीं और लोगों के घरों में कहीं डिस्टेंपर हो रहा है, कहीं नया फर्नीचर खरीदा जा रहा है तो कहीं बच्चों और बड़ों के  नए-नए जेवर-कपड़े बन रहे हैं। दिव्या रुआंसी हो उठी। ओफ्फो! अब बस भी करो दिव्या। तुम भी पुराने विचारों की होती जा रही हो अब ठीक है त्यौहार है, चलते हैं बाजार दिये-शिये, मिठाई वगैरह ले आते हैं, परेशान क्यों हो रही हो? त्यौहार खुशियां मनाने के लिए आते हैं, घर में तनाव-क्लेश उत्पन्न करने के लिए नहीं। अच्छा बताओ अभी पिछले साल ही तो हमने घर में डिस्टेंपर कराया है या नहीं? अब फिर से करवाना कहां तक संभव है? कितनी तो महंगाई बढ़ गई? फिर इससे तुम्हारा भी तो कितना काम बढ़ जाएगा। जरूरत ही नहीं है, साफ पड़ी है दीवारें। पहले जमाने में लोग कलई की सफेदी कराते थे, जो जल्दी ही मैली हो जाती थी। क्या फायदा है पुरानी लीक पर चलते जाने का? बांस पर झाड़ू बंधवाकर महरी से दीवारें रगड़वाकर साफ कर लो बस। पर्दे, सोफा कवर साफ धुलवाकर प्रेस करवाकर लगा लो। सफाई होने से मतलब है, न कि व्यर्थ के खर्च से। रंजन ने बड़े प्यार से दिव्या को समझाया।

सच पूछिये तो दीवाली एक ऐसा पर्व है, जिसका नाम मन में आते ही हजारों-हजार दिये हमारी कल्पना में एक साथ जल उठते हैं। हिंदुओं के सैकड़ों त्यौहार हैं पर दीवाली सबसे अनुपम और उल्लासमय पर्व माना जाता रहा है। ज्येष्ठï-वैशाख की चिलचिलाती धूप व गर्मी की तपिश के बाद सावन-भादों की टपटपाती वर्षा और तब आती है सुखदायी, सुहानी शरद ऋतु। इसी समय भारत में खरीफ की देशव्यापी फसल कटती है और रबी की फसलों की बुआई हो चुकी होती है, किसान के हाथ काम से खाली। पर मन उमंगों से व जेब पैसों से भरी होती है तो दीवाली का त्यौहार उसे बहुत अच्छा लगता है। अब शहरों में भी उद्योगों एवं दफ्तरों में दीवाली के अवसर पर ही कर्मचारियों को बोनस तथा भांति-भांति के उपहार दिए जाते हैं। इसी कारण घरेलू काम करने वाले नौकर, महरी, डाकिये, जमादार, नाई, वगैरह भी इस मौके पर पूरे साल से भारीभरकम इनाम-बख्शीस की प्रतीक्षा करते रहते है। महिलाएं नए जेवर-कपड़ों की, बच्चे अपनी पसंद की चीजों की व आतिशबाजी और पटाखों की कामना करते हैं, फिर लक्ष्मी-गणेश के पूजन की वह भव्य तैयारियां घरों एवं दुकानों में होती हैं कि बस पण्डितों के भी उस दिन और उस रात पौ बारह रहते हैं, खूब रुपए बटोरते हैं जजमानों से।

मनीष तो कब से ही दीवाली पर अपने मित्रों के साथ ताश पार्टी जमाने की राह देखते हैं। उस दिन कोई प्रतिबंध नहीं रहता, जितनी मर्जी आए दांव लगाओ, आखिर साल भर का सबसे बड़ा त्यौहार जो ठहरा। हजारों की हार-जीत होती है। जो जीतता है वह साल भर के लिए भाग्यशाली माना जाता है। इस प्रकार दीवाली के दिनों में अच्छे-अच्छे घरों में भी जुआ खुलकर खेला जाता है, कहीं-कहीं तो स्त्रियां भी पीछे नहीं रहतीं।

मुझे याद है जब हम छोटे थे तो दीवाली के तीन-चार दिन पूर्व घर पर कुम्हारिन अपना ठेला लेकर आती थी और कोठी में रोशनी करने के लिए तीन-चार सौ दिये दे जाती थी, पूरा मोहल्ला उसी से दिये ले लेता था। मिट्ïटी के लक्ष्मी-गणेश भी वही बनाकर लाया करती थी। दियों को सब बच्चे व नौकर मिलकर बड़े टब में डालकर पानी से धोते थे और चार -पांच घण्टों तक भिगोकर रखते थे। फिर बड़े-बड़े पटरों पर उन्हें उल्टा करके रख दिया जाता था। घर की सब स्त्रियां मिलकर पहले से ही रुई लेकर आवश्यकतानुसार बत्तियां बना लेती थीं, रात भर जलाकर रखने के लिए (घी व तेल से)। मिट्टी के बड़े-बड़े दिये भी खरीदे जाते थे। उस समय कुम्हारों के लिए दीवाली रोजी-रोटी का साधन होती थी। लोग दियों का मूल्य चुकाने के साथ-साथ उन्हें दीवाली पर मिठाई, रुपए व कपड़े भी देते थे तथा शादी-विवाह के अवसर पर भी उन्हें बहुत कुछ दिया जाता था। गर्मी में वे घड़े और सुराही बनाकर जीविकोपार्जन करते थे। अब इन सभी वस्तुओं के लिए बाजारों में घूमना पड़ता है। हालांकि कुछ लोगों ने तो अब पंचधातु अथवा चांदी के छोटे-छोटे लक्ष्मी-गणेश की स्थायी मूर्तियां खरीद ली हैं, ताकि हर दीवाली को उन्हीं का पूजन कर लिया जाए, क्योंकि हर साल मिट्ïटी की नई मूर्तियां लेने में खर्च तो होता ही है, अच्छे रंग-रूप व नाक-नक्शे की मूर्तियां खोजने की परेशानी अलग से रहती है।


पहले के लोग दीवाली की रोशनी शुद्ध सरसों के तेल से दिये जलाकर करते थे। दिये जलाकर कतारबद्ध सजाने में पर्याप्त मेहनत पड़ती थी, साथ ही हवा तेज होने पर दिये बार-बार बुझ जाते थे, कभी दियों का तेल समाप्त हो जाता था, पूरी संध्या दियों में तेल भरते, दियों को बार-बार जलाते-संवारते निकलती थी किंतु आज के इंसान के पास इसकी फुर्सत कहां है? अब तो दीवाली के दिन लोग अपने घरों में बिजली वालों को बुलाकर रंग-बिरंगे बल्बों की कतारें लगवाते हैं और कहीं-कहीं तो लोग इतनी रोशनी करवाते  हैं मानो कोई शादी-विवाह हो रहा हो या बड़ा उत्सव हो रहा हो। पूरी इमारत बिजली के लट्ïटुओं से लकदक करती है, साथ ही बीच-बीच में बिजली के सुंदर कन्दील शोभायमान होते हैं। तीन-चार दिन तक, छोटी दीवाली से लेकर भाईदूज के त्यौहार तक रोशनी की जाती है, क्योंकि केवल स्विच ही तो दबाना होता है। परिवार के समस्त सदस्यों की कोई भागीदारी नहीं रहती है। अमीर लोगों को तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता किंतु उनके आसपास रहने वाले मध्यमवर्ग के लोग जब अपनी हैसियत का ध्यान न रखकर उन लोगों की देखादेखी बर्तन पटाखे तथा मिठाइयां खरीदते व रोशनी पर इतनी अधिक रकम खर्च करते हैं तो स्वयं ही मात खाते हैं, परेशान होते हैं। यही कारण है कि आज दीवाली जैसे उल्लासमय पर्व पर सभी घरों में बच्चों व महिलाओं को उतना आनंद नहीं प्राप्त हो पाता, जितना सादगी से जीवन व्यतीत करने वाले, पहले के लोगों को मिलता था। दिखाने व तड़क-भड़क की प्रवृत्ति छोड़ दें तो जीवन में काफी कुछ प्राप्त किया जा सकता है।


यदि गृहिणियां कुछ बुद्धिमानी से काम लें तो दीवाली के त्यौहार को बहुत अच्छी तरह से मना सकती हैं। हमारे यहां धनतेरस पर बर्तन पूजना शुभ माना जाता है पर इस दिन बाजारों में अत्यधिक भीड़ होती है, साथ ही बर्तन महंगे भी मिलते हैं। दीपा को मैंने देखा है वह पहले से लिया हुआ कोई नया बर्तन कोरा ही रख लेती है और धनतेरस के दिन उसका पूजन करने के पश्चात् ही उसे बरतने में निकालती है, इस प्रकार धनतेरस का त्यौहार भी मना लिया जाता है व पति को दफ्तर  से देर-सबेर आने के पश्चात् भीड़ भरे बाजारों में गोते भी नहीं लगाने पड़ते। वह भी खुश रहते हैं पत्नी की सूझ-बूझ से। सुनयना से दीवाली के विषय में बात हुई थी। वह कहने लगी कि इतनी तो महंगाई है, फिर आजकल तो पूरे साल ही सब लोग अपनी पसंद की वस्तुएं खरीदते रहते हैं, तब दीवाली पर ही क्यों घर के बजट पर बोझ डाला जाए? मैं तो पहले से खरीदे गए या मायके से लाए गए अपने व बच्चों के कपड़ों को कोरा ही रख लेती हूं और दीवाली पर ठाठ के साथ परिवार के सब सदस्य नए-नए कपड़े पहनते हैं, बजट भी नहीं बिगड़ता, त्यौहार भी मन जाता है, अपने साथ के लोगों में मैं और मेरे बच्चे सबसे ज्यादा बढिय़ा कपड़े पहने होते हैं।


दीवाली पर बाजार में मिठाइयां कई दिन पूर्व से बननी आरंभ हो जाती हैं, ऐन दीवाली के दिन मिठाइयों की दुकानों पर इतनी भीड़ होती है कि खरीददार को यह पता करना बहुत कठिन होता है कि दुकानदार उनके डिब्बों में क्या और कैसा पैक कर रहा है। अधिकतर बासी और उतरी हुई मिठाइयां हाथ लगती हैं। उस दिन यदि आप कुछ मिठाइयां घर पर ही तैयार कर लें तो आपको खाने के लिए काफी कम लागत में शुद्ध एवं ताजा मिठाइयां प्राप्त हो जाएं। मेहमानों को भी बाजार की बनी मिठाइयों की अपेक्षा घर की बनी मिठाइयां एवं सूखे मेवे, काजू- किशमिश, बादाम, अखरोट व ताजा फलों में अंगूर-अनार आदि ही अधिक पसंद आते हैं। पारंपरिक मिठाइयों के स्थान पर आगत अतिथियों को यदि आप दही बड़े, दही सौंठ की खस्ता कचौड़ी, ढोकले, ताजी नारियल की बर्फी, पेस्ट्री परोसें तो वे इन्हें कहीं अधिक चाव से खाएंगे। वैसे गृहिणी की सुविधा के लिए आजकल सभी पत्र-पत्रिकाओं में नई-नई वस्तुएं बनाने की पाक विधियां प्रकाशित होती रहती हैं। आप उन्हें भी आजमाकर देख सकती हैं। बच्चों को पटाखें दिलाते समय ध्यान रखें कि उन्हें उनकी आयु के लायक ही पटाखे दिलवायें। अधिक विस्फोटक व खतरनाक पटाखे-बम आदि न दिलवाएं। चलाते समय भी ध्यान रखें, क्योंकि बच्चों के प्रति जरा-सी लापरवाही भयंकर दुर्घटना बन सकती है। उतने ही पटाखे दिलवाएं जितने कि उनके मनोरंजन के लिए पर्याप्त हों, दूसरों की देखा-देखी व होड़ में चलाने के लिए नहीं। इससे आपका बजट तो असंतुलित होता ही है साथ ही आसपास का वातावरण भी दूषित होता है, लोगों की नींद हराम होती है। अक्सर घरों में बच्चे  कई दिन पहले से ही पटाखे चलाने आरंभ कर देते हैं और आधी रात तक चलाते रहते हैं। यह किसी प्रकार भी न्यायसंगत नहीं है।


दीवाली के उल्लासमय पर्व को पूरी श्रद्धा, आस्था एवं प्रसन्नता के साथ मनाइए, ताकि पूरे साल इसकी मधुरता आपके मन में घुलती रहे। अपनी सामथ्र्य से अधिक खर्च करके (ऊपरी दिखावे के लिए) इसे बोझिल न बनाएं। दीपावली पर दीप प्रज्ज्वलित करने का उद्ïदेश्य जीवन में अंधकार को भगाने से है। यह पर्व ज्ञानोदय का प्रतीक है। दीवाली मनाने का अर्थ है अमावस्या रूपी अंधकार का उन्मूलन कर ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर उन्मुख होना। तो दीवाली पर इसी प्रकाश को हमें पाना है, हिल-मिलकर सद्ïभावना, भाईचारे और प्रेम-प्यार के सहारे।