सभी संतों ने कहा है कि प्रभु का निवास शरीर के भीतर ही है। उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं। महान संत कबीर साहिब ने कहा है, (हीरा साहिब नाम है, हिरदे भीतर देख।) गुरु ग्रंथ साहिब में यही कहा गया है और बाइबल में भी। बाइबल में लिखा है कि तुम्हारा शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है। जैसे एक पुष्प में उसकी सुगन्ध बसी होती है, वैसे ही परमात्मा की दिव्य खुशबू हमारे शरीर के अन्दर विराजमान है। अब प्रश्न उठता है कि जब मालिक हमारे तन के भीतर ही है, तो हम उसे प्राप्त करने के लिए बाहर क्यों भटक रहे है?
हमारे दिमाग में एक सर्प रेंगता है, चौबीस घंटे लगातार। उसका अनुसरण मन करता है। यह सांप चित्त को कभी लोभ रुपी खोह में ले जाता है कभी माया नगरी में। यह अहंकार , वासना और ईष्र्या की नदी में भी सैर करवाता है। और ज्वालामुखी पर्वत पर चढ़ाने के लिए तो यह हर समय तैयार रहता है, यानि क्रोध की अग्निमें जलाने के लिए। अन्य कई प्रकार के उपद्रव खड़े करने के लिए यह साँप जीभ लपलपाता है , मानव मन इसके गच्चे में आसानी से आ जाता है। अगर किसी प्रकार लगातार रेंगता यह साँप काबू में आ जाए तो हमारे अन्दर एक नई यात्रा का श्रीगणेश हो सकता है।
दिमाग में विचरण कर रहे सर्प को केवल संयम और अनुशासन से नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे हर तरह की सामथ्र्य हमारे भीतर है उसी प्रकार यह अनुशासन भी हमारे अन्दर से पैदा होगा।
इसके लिए कहीं भटकने की जरुरत नहीं। यह कार्य हमारे भीतर के बोध से होगा। अन्दर की बैचेनी इस हद तक बढ़ जाए कि कुछ न कुछ उपाय करना होगा तब यह प्रेरणा भीतर से प्रस्फुटित होगी। जिज्ञासा का प्रादुर्भाव होगा। एक प्यास हर वक्त लगी रहेगी। तब तन और मन कुछ नया करने के लिए प्रेरित होंगे। एकान्त की तलाश होगी। भीतर ही भीतर अनायास ही एक खोज की नीव पड़ेगी।