‘धर्म’ भारतीय संस्कृति का मूलाधार है और हमारा देश भारत एक धर्मप्राण देश है। आचरण की दृढ़ता और कर्तव्य समुच्चय ही धर्म का स्वरूप है। धर्म व्यापक दृष्टि में यहां की हर वस्तु (जड़-चेतना) में देवत्व की प्रतिष्ठा है।
भारतीय लोकसांस्कृतिक दृष्टि से ‘गाय’ की महत्ता पर विचार करें तो इसका महत्व अक्षुण्य है। हमारी संस्कृति और समाज में गाय का सर्वोच्च स्थान है। पौराणिक ग्रन्थों में ‘गाय’ की उत्कृष्टता सश्रद्ध है। यथा-
‘वेदादिर्वेदमाता च पौरूषं सूक्तमेव च।‘
त्रयी भागवततम् चैव द्वादशाक्षर एव च।
द्वादशात्मा प्रयागश्च काल: संवत्सरात्मक:।
ब्राम्हणाश्चाग्निहोत्रं च सुरभि द्र्वादशी तथा।
तुलसी च वसन्तश्च पुरूषोत्तम एव च।
एतेषां तत्वत: प्राज्ञेर्न पृथग्भाव इष्यते।
ऊंकार गायत्री, पुरुष सूक्त, तीनों वेद, श्रीमद भागवत, ऊं नमो भगवते वासुदेवाय-यह द्वादशाक्षर मंत्र, बारह मूर्तियों वाले सूर्य भगवान, प्रयाग संवत्सर रूप, काल ब्राम्हण, अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, बसंत ऋतु और भगवान पुरूषोत्तम इन सब में बुद्धिमान लोग वस्तुत: कोई अन्तर नहीं मानते।(श्रीमद् भागवत पुराण प्रथम खण्ड, अध्याय 3, श्लोक क्रमश: 34, 35, 36)
नित्य प्रति गौ सेवा तुलसी चिंतन भागवत पाठ और भगवान चिन्तन के समान है। यथा-
उक्त भागवतं नित्यं कृतं च हरिचिंतनम्।
तुलसी पौषकं चैव धेनूनां सेवनं समम्।
(श्लोक 39 श्रीमद् भागवत प्रथम खण्ड अध्याय 3) जिस गऊ का स्थान ईश्वर के समकक्ष है वह नित्य सेवनीय, वन्दनीय और पूज्यनीय है। भारतीय विश्वासानुसार गऊ भवसागर पार करने की नौका है। गऊ दान का महत्व जीवन पर्यन्त है।
गऊ दान मृत्यु के समय एक पुनीत कार्य माना गया है। इतना ही नहीं वह धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरूषार्थ को देने वाली है। हमारे धर्म ग्रन्थों में वर्णित आख्यानों के अनुसार जब पृथ्वी अनीति अत्याचार के भार से अधिक दुखी हुई तब वह गऊ का रूप धारण करके ही भगवान विष्णु के पास गई थी और अपने उद्धार की प्रार्थना की थी।देव स्वरूप ‘गाय’ के अंग-अंग में देवताओं का वास है। इसका वत्स ‘बछड़ा’ वृषभ या बैल कहलाता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि में वृषभ का योगदान कितना महत्वपूर्ण है, यह किसी से छिपा नहीं है। कृषि उत्पादन की वृद्धि के साथ हमारी सम्पन्नता बढ़ी और फिर धीरे-धीरे हमारी सभ्यता में विकास हुआ। फलत: वृषभ और उसकी जननी गाय को समाज में ऊंचा सम्मान और पूजा का स्थान दिया गया, गाय हमारी माता कहलाई, और वृषभ हमारी शक्ति सम्पन्नता और कल्याण का प्रतीक बन गया। इसकी भी पूजा की जाने लगी। दीपावली के दूसरे दिन ‘गोवर्धन पूजा’ के दिन परिवार के सभी पशुओं को नहला धुलाकर, उनके सींगों में गेरू लगाकर उनका श्रृंगार किया जाता है, और उनकी पूजा की जाती है। इसे गौधन पूजा भी कहते हैं। आगे चलकर वृषभ का चिन्ह या चित्र बनाया जाने लगा, और इसे शुभ तथा मांगलिक माना जाने लगा। शिव वाहन को नन्दी के रूप में अधिक मान्यता मिली थी और मिलती भी क्यों न। शिव साक्षात कल्याण की प्रतिमूर्ति जो ठहरे और उस कल्याण का वहन करने वाला वृषभ उनका नन्दी, इसलिए वृषभ को सम्मान देने के लिये प्राय: नन्दी कहा जाने लगा। जैसे सभी वानरों को हनुमान कह दिया जाता है। इसीलिए गोपद, अथवा वृषभ पद को नन्दी पद कहा जाने लगा। यह नंदीपद सर्वथा मांगलिक है। जिसका संबंध किसी विशेष धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति से न होकर संपूर्ण समाज के कल्याण से है। गाय का दुग्ध पोष्याहार है। अर्थाजन का साधन है।
दूध, दही, घृत का व्यवसाय इसी के बल पर होता है। गोबर ईंधन के काम आता है, कृषि के लिये खाद के रूप में प्रयुक्त होता है। गौ मूत्र औषधीय तत्व है। पंचगव्य का एक अंग है। गाय पृथ्वी पर कामधेनु स्वरूपा है। जिसकी सेवा से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। राजा दिलीप की गऊ सेवा विश्व विदित है। प्रागैतिहासिक प्रसंग आज भी प्रेरणादायक है। गाय की महिमा को दिग्दर्शित करती साहित्यकार न्यायविद रामचन्द्र शुक्ल की एक कविता यहां प्रस्तुत है-
संस्कृति की प्रतीक, भारतीयता का गौरव।
वैतरणी भव लोक की, तारती नरक रौख।
पयस्वनी, ममतामयी, वच्छवत्सला सुभदा।
संरक्षिका श्रद्धा विश्वास की निवारती विपदा।
जीवन की ज्योति पुंज, सुख स्वास्थ्य पोषिका।
मनोरमा शुभ श्यामा, धर्म सनातन उद्घोषिका।
धरती का स्वर्ग मन रमा रमणीय वर निरूपाय।
ऋद्घि-सिद्घि समृद्घि दायिनी धन्य पावन गाय। ऐसी सर्वथा मंगलमयी गाय वन्दनीय है। नित्य सेवनीय है।