दीपावली पर पर्यावरण चिंतन
खुशियों में आग लगाने आए पटाखे ?
दीपपर्व, दिवाली, दीपावली अथवा दीवावली के पर्व का वर्णन पुराण और इतिहास में भी मिलता है ।दिवाली शब्द संस्कृत के दो शब्द दीवा यानि दीया और आवली यानि पंक्ति से मिलकर बना है. जिसका एक अर्थ है कि पंक्ति में रखे हुए दीपक।
रोशनी का प्रतिनिधि दीपक
स्कन्द पुराण में दीपक को सूर्य की रोशनी का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है. दिवाली के पर्व को यम और नचिकेता की कथा से भी जोड़कर देखा जाता है. इतिहास की मानें तो 7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने दिवाली के पर्व को ‘दीपप्रतिपादुत्सव:’ बताया है । भारतीय इतिहास के जानकार अलबरूनी ने भी दिवाली के पर्व का वर्णन अपने संस्मरणों में किया है ।
राम आए दिवाली लाए
दीवाली सनातन धर्मावलंबियों का यह सबसे बड़ा और प्रमुख त्योहार है। जनश्रुतियों के अनुसार चौदह वर्ष के वनवास के बाद श्रीराम के लक्ष्मण व सीता सहित अयोध्या आगमन पर उनके स्वागत में अयोध्या नगर को घी के दीयों से जगमगाया गया था तभी से हिंदू धर्म में यह पर मनाया जाने लगा । तब अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर और रंगोली सजाकर भगवान राम का स्वागत किया था लेकिन दीप जलाने के अलावा भी दिवाली से जुड़ी कई अहम परंपराएं हैं जो पीढ़ी-दर -पीढ़ी चली आ रही हैं । इसमें दीपावली से पहले घर की साफ-सफाई करना, दीपावली के दिन सजावट करना, नए कपड़े पहनना, पकवान बनाना, मां लक्ष्मी की पूजा करना आदि समय के साथ परंपरा रूप में जुड़ते चले गए।
और फिर आ गए पटाखे
इसके अलावा दिवाली से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण परंपरा है, पटाखे फोड़ना । कई राज्य सरकारों द्वारा वायु प्रदूषण को रोकने के लिए पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद लोगों का पटाखे फोड़ने का उत्साह कम नहीं हो रहा है। आज पटाखे फोड़ना पूरे देश में दिवाली समारोह का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है।
पुरानी नहीं पटाखा परंपरा
एक जानकारी के मुताबिक 16वीं सदी से बारूद का मिलिट्री में इस्तेमाल शुरू हुआ था। ऐसा माना जा सकता है कि उस समय कहीं ना कहीं नागरिकों द्वारा भी आतिशबाजी के तौर पर बारुद का इस्तेमाल हो रहा होगा लेकिन यह तय है कि इनका इस्तेमाल बहुत बड़े स्तर पर नहीं होता था।
हथियार के तौर पर बारुद का पहली बार इस्तेमाल मुगल बादशाह बाबर ने किया था। भारत पर जब बाबर ने आक्रमण किया तो उसने दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराने के लिए युद्ध में बारुद का इस्तेमाल किया था कह सकते हैं कि उसकी जीत में बारुद के उपयोग का बड़ा योगदान रहा था।
पटाखे, पर्यावरण और धंधा
कुल मिलाकर सबसे बड़े पर्व दिवाली पर पटाखे फोड़ना खुशी और उत्सव को मनाने का एक तरीका बन गया है। हालांकि पर्यावरण प्रदूषण को देखते हुए हर साल पटाखे न फोड़ने की अपील सरकार व विभिन्न पर्यावरण तथा सामाजिक संगठनों द्वारा की जाती है । वहीं कुछ लोग दिवाली पर पटाखे फोड़ना शुभ मानते हैं ।
पटाखों के निर्माण और बिक्री से जुड़े लोगों के लिए भी यह एक बड़ा व्यावसायिक अवसर है। तमिलनाडु के विरुधुनगर जिले का शिवकाशी पटाखों के निर्माण का मुख्य केंद्र है हालाँकि, हाल के वर्षों में कई राज्यों द्वारा पटाखों के उत्पादन, भंडारण और बिक्री को विनियमित करने के लिए उठाए गए कदमों के कारण देश भर के व्यापारी दिवाली के दौरान अपने व्यवसाय को नुकसान होने की भी शिकायत कर रहे हैं।
कब आए पटाखे?
इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि पटाखे फोड़ना कब दिवाली समारोह का हिस्सा बन गया मगर दिवंगत इतिहासकार पीके गोडे के अनुसार, दिवाली मनाने के लिए आतिशबाजी का उपयोग लगभग 1400 ईस्वी के बाद शुरू हुआ, जब बारूद का उपयोग भारतीय युद्ध में किया जाने लगा, यह तथ्य1950 में प्रकाशित उनकी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ फायरवर्क्स इन इंडिया बिटवीन 1400 एंड 1900” में दिया गया है।
कौन लाया भारत में पटाखे?
मध्यकालीन चीनी रसायनज्ञों द्वारा बारूद के आविष्कार ने उसकी चमक और धमाके से लोगों को भयभीत भी किया और मोहित भी किया। अपने सैन्य मूल्य के अलावा, बारूद का उपयोग दिखावे के लिए भी किया जाने लगा। एक अन्य ऐतिहासिक धारणा के अनुसार अरब लोगों के माध्यम से चीन से भारत और यूरोप में बारूद तकनीकी आई। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बारूद के उपयोग के आतिशबाज़ी शो के शुरुआती संदर्भों में से एक अब्दुर रज्जाक द्वारा 1443 में बनाया गया था। महानवमी उत्सव की घटनाओं का वर्णन करते हुए, विजयनगर के राजा देवराय द्वितीय के दरबार में तिमुरिड सुल्तान शाहरुख के तत्कालीन राजदूत रज्जाक ने लिखा था कि उत्सव के दौरान राज्य में “विभिन्न प्रकार की आतिशबाज़ी और कला, और विभिन्न अन्य व्यवस्थाएँ” प्रदर्शित की गईं। .ऐतिहासिक ग्रंथों में 1518 में गुजरात में शादियों में आतिशबाजी के इस्तेमाल का भी उल्लेख है। यह तो तय है कि दिवाली के दौरान पटाखों का उपयोग 18वीं शताब्दी से पहले शुरू नहीं हुआ था जब मराठा शासकों ने आम जनता के लिए आतिश बाजी का आयोजन किया था।
पटाखे और पर्यावरण
भारत को आजादी मिलने के बाद से ही भारतीय उद्योगों ने पटाखों का निर्माण शुरू किया और वे जल्दी ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो गए। किंतु आज देश के चार बड़े महानगरों एवं दूसरे तेजी से विकसित होते हुए शहरों तथा कस्बों तक में पटाखों के कारण विशेष तौर पर दिवाली के अवसर पर हवा में प्रदूषण का स्तर बहुत खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है और इसकी वजह से लोगों को सांस तक लेने में तकलीफ होती है । इतना ही नहीं दीपावली का यह प्रदूषण केवल दीपावली तक ही सीमित नहीं रहता अपितु उसके कई दिन बाद तक हवा की फिज़ा बिगाड़े रखता है । दिल्ली समेत कई राज्यों की सरकारों ने दिवाली के अवसर पर सामान्य पटाखे जलाने पर रोक भी लगाई है तथा ग्रीन पटाखे भी बाजार में आए हैं लेकिन इसका असर न के बराबर ही हुआ है वहीं कट्टर किस्म के हिंदू लगातार इस बात पर आपत्ति भी करते रहे हैं कि दीपावली पर ही इस प्रकार के बंधन क्यों ? जबकि ईद क्रिसमस एवं दूसरे धर्मों के अन्य त्योहारों पर भी पटाखे खूब चलाए जाते हैं । उनका प्रश्न है कि क्या तब प्रदूषण नहीं होता ? यदि देखें तो उनकी बात गलत भी नहीं है लेकिन कटु सत्य यह है कि पटाखों का दिवाली से धार्मिक दृष्टि से कोई संबंध नहीं रहा है यह तो बाद में उसमें जुड़ी हुई एक कुरीति की तरह ही है जो आज दीपावली के हर्ष को लील रही है अतः बेहतर हो कि सरकार केवल दीपावली पर ही नहीं अपितु अन्य अवसरों पर भी पटाखे तथा प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे घटकों पर पूर्ण तैयार रोक लगाएं ।