प्रतिवर्ष दीपावली पर भारत माता एक नए प्रकाश पुंज के अवतरण की प्रतीक्षा करती है। ऐसा प्रकाश पुंज जो उसकी सौ करोड़ से अधिक संतानों के घर-आंगन के साथ उनके मन-आंगन में उजियारा फैला सके। हजारों साल से चले आ रहे ज्योति पर्व पर देश की दीवारें तो जगमगा जाती हैं, पर माटी के सभी पुतलों (आज के इंसान) को माटी के ये दीप अभी तक पूरी तरह से आलोकित नहीं कर पाए। असत्य पर सत्य की विजय के अभिनंदन और समृद्घि की कामना के पर्व दीपावली पर अपसंस्कृति के बढ़ते हुए आक्रमण ने सामाजिक विवेक के माथे पर चिंता की रेखाएं उकेर दी हैं। दीपावली के आगमन से कई दिन पूर्व लोग घरों की साफ-सफाई में लग जाते हैं। खील-बताशे, दीये, रूई, फुलझडिय़ां-पटाखे आदि खरीदने में व्यस्त हो जाते हैं। लक्ष्मी पूजा के लिए लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें या मूर्तियां खरीदी जाती हैं, लेकिन ऐसे घर अब कम रह गए हैं, जहां दीपावली की पूजा पर उचित विधि-विधान अपनाया जाता हो, जो दीपावली के वास्तविक कर्म को जानते हों। देवी-देवताओं की आराधना करने की इच्छा लोगों को शायद इसलिए होती है कि वह इन देवी-देवताओं से मनोवांछित फल पाने की कामना करते हैं, पर आधुनिक समय में बिखरते जीवन मूल्यों और नए सांस्कृतिक व भौतिक प्रलोभनों के कारण लोग इन देवी-देवताओं की आराधना तक भूल गए हें। ऐसे में त्यौहार मनाना सिर्फ देखा-देखी और रूढि़ के अलावा कुछ भी नहीं। आज देश में समृद्घि जिस कदर बढ़ती जा रही है, उसी के अनुपात मेें यह त्यौहार उतना ही रंग-बिरंगा और शोर-शराबे भरा तथा भोंडा व अश्लील भी बनता जा रहा है। बेशुमार खरीददारी, नये-नये डिजायनों के कटे-फटे कपड़े, डिस्को थेक, डिस्को दोस्त, और जबरदस्त चकाचौंध को देखकर दीपक आज आंसू बहाकर रह जाता है। दीपावली, जो देश का सबसे बड़ा त्यौहार है आज सबसे बड़ी रूढि़ बन चुकी है। रूढिय़ां स्मृतियों को जीवित रखती है, लेकिन दीपावली स्मृति-लोप का सबसे बड़ा उदाहरण है। हम दीए जलाते है और अंधेरा बढ़ता जाता है। पिछले पंद्रह वर्षों में उपभोक्तावाद ने ऐसी अपसंस्कृति फैलायी है, जो सांस्कृतिक घटनाओं और वस्तुओं के सहज आनंद और उसके सामाजिक अर्थों को नष्ट कर उन्हें व्यावसायिक हितों के लिए सतही तौर पर इस्तेमाल में ला रही है। अब दीपावली का पंजीकरण हो गया है। अब इस पर्व को भी उद्योग के रूप में देखा जाने लगा है। आतिशबाजी-पटाखे, रोशनी और प्रकाश उद्योगों की वजह से यह त्यौहार ध्वनि व पर्यावरण प्रदूषण तथा जान-माल की हानि का प्रमुख कारण बन गया है। महंगे पटाखों में जितना पैसा खर्च किया जाता है, उससे न जाने कितने ही भूखों का पेट भरा जा सकता है, कितने ही नंगे तन को ढंका जा सकता है। अब ज्योतिपर्व सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह गया है। परंपरागत प्रवाह की लीक में बहते असंख्य दीप अवश्य जलते हैं, किंतु इनकी ज्योति अंतर्मन को प्रकाशित नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप आंतरिक अंधकार गहराता जाता है और हमारी कुंठित आशाएं मानसिक विकृति की दशा में बहाती जा रही है।
आधुनिकता और भौतिकवाद के दौर में नैतिकता, मर्यादा एवं मूल्यों का पथ अंधकार में विलीन होता जा रहा है। इससे उपजी कुंठा व्यक्तिगत जीवन में अद्र्घविक्षिप्त मनोदशा, पारिवारिक जीवन में बिखराव के साथ चारों ओर अराजकता, आतंक एवं अशांति के रूप में परिलक्षित हो रही है। इसे अपना दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आज दीपपर्व की ज्योति प्राय: काले धन की कालिख में कैद होकर रह गयी है। यह काला धन मंहगाई का मौसेरा भाई है। ये दोनों मिलकर कंगाली एवं गरीबी की राह बनाते हैं, इसलिए जीवन की अंधेरी राहों से गुजरते हुए आम लोगों को दीपोत्सव कितना आलोकित कर सकता है, यह बड़ा ही कंटीला और रहस्यमय प्रश्न है।
अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार एवं भ्रष्टïाचार हर रोज, हर कहीं प्राय: सभी को चुनौती देते घूम रहे हैं। उनकी नाक में नकेल डालने का साहस किसी में नहीं है। आतंक के अंधेरे की दहशत से आम जनता थर-थर कांप रही है, उसे कोई राम नहीं मिल रहा है। वर्तमान परिस्थितियां सचमुच जटिल हैं। किन्तु हमें जरूरत है बस थोड़ी सी समझदारी और ढेर सारे आत्मविश्वास की।
ज्योति पर्व तभी हमारे मन में और जीवन में कोटि-कोटि दीपों का प्रकाश स्थापित करने में समर्थ होगा, जब हम अपने अंदर के अंधकार को साफ कर उसे अकलुष बनाएं। साथ ही यह समझें कि शील से प्राप्त लक्ष्मी ही देवभूमि भारत और यहां की संस्कृति को अभीष्ट है, अत्याचारों से बनी सोने की लंका नहीं। दीपावली एकता, प्रेम और सद्भावना का पर्व है। आइए हम सभी एक-एक दीप प्रज्वलित करें ताकि उत्सव में प्रेम और उत्साह का समन्वय हो, श्री के साथ आंतरिक गरिमा का अभ्युदय हो।