अस्त्र- शस्त्र व वस्तुओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का दिन आयुध पूजा

शक्ति और शक्ति के समन्वय का पर्व नवरात्र और विजयादशमी शारीरिक- मानसिक शुद्धता के साथ विजय का त्योहार है। विजय की प्राप्ति शारीरिक- मानसिक शक्ति, आयुध, अस्त्र के माध्यम से ही होती है। यही कारण है कियुद्ध व जीवन काल में उपयोगी वस्तुओं को सम्मानित, पूजित करने के उद्देश्य से प्राचीन काल से ही नवरात्र पूजन के साथ आयुध पूजा का भी विधान रहा है। आयुध पूजा को अस्त्र पूजा भी कहा जाता है। अस्त्र भी आयुध का पर्याय है। सामान्य रूप में इसका अर्थ है- अस्त्र-शस्त्र की पूजा।विभिन्न क्षेत्रों और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार आयुध पूजा के महानवमी, अस्त्र पूजा, सरस्वती पूजा, महारा नवमी, विश्वकर्मा पूजाऔर शास्त्र पूजा आदि अनेक नाम हैं।नवरात्रि के दौरान और दशहरा से पहले आयुध पूजा की भारत में प्राचीन व महत्वपूर्ण परंपरा है।नवरात्रि के बाद आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजयादशमी के दिन मनाई जाने वाली आयुध पूजा में अस्त्र- शस्त्रों का पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों पर इसे आश्विन शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि अर्थात शारदीय नवरात्रि के अंतिम दिन भी मनाया जाता  है।

 

मान्यता है कि इस दिन उपकरण और शस्त्रों की पूजा करने से विजय प्राप्ति का वरदान मिलता है।आयुध पूजा को ज्ञान और विद्या की देवी सरस्वती पूजा के रूप में भी देखा जाता है। आयुध पूजा के समय ज्ञान, कला और साहित्य की देवी सरस्वती, धन की देवी लक्ष्मी व शक्ति की देवी पार्वती प्रमुख रूप से पूजी जाती हैं।अनुष्ठानमें यंत्र, अस्त्र- शस्त्र, पुस्तकें, संगीत वाद्ययंत्र, औजार आदि को सम्मानित करते हुए आशीर्वाद के लिए पूजन स्थल पर रखा जाता है। मान्यता है कि इस पर्व का आरम्भत्रेतायुग में नवरात्रि काल में नवमी के दिन अयोध्या पूजा के साथ हुआ था।आयुध पूजा मुख्य रूप से दक्षिण भारत के कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना आदि राज्यों में मनाया जाने वाला एक लोकप्रिय पर्व है। दक्षिण भारत के राज्यों मेंइस दिन छात्र सत्य ज्ञान के लिए देवी सरस्वती की पूजा व प्रार्थना करते हैं। इस अवसर पर सैनिकों द्वारा अस्त्र- शस्त्रों अर्थात हथियारों की पूजा की जाती है।शिल्पकारों, कारीगरों के लिए उनके उपकरण पूजनीय होते हैं। किसी भी कार्य में उससे संबंधित साधन ही अच्छा प्रदर्शन करने और उचित पुरस्कार पाने के लिए एक दिव्य शक्ति के रूप में कार्य करते हैं। युद्ध में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र- शस्त्र विजय प्राप्ति के लिए अत्यंत प्राचीन काल से ही भारत में पूजनीय रहे हैं।

 

पौराणिक मान्यतानुसार आयुध अनुष्ठान अस्त्र- शस्त्र व आजीविका से जुड़े उपकरणों की पूजा करने के लिए किया जाता है।आयुध पूजा के माध्यम से भक्त देवताओं के दिव्य आशीर्वाद से अपने अस्त्र- शस्त्र व औजारों को विधिपूर्वक शुद्ध करते हैं। विजयादशमी कृतज्ञता का दिन है। अपने जीवन काल में प्राप्त होने वाली सफलता, मिलने वाली उपलब्धियों के प्रति कृतज्ञ होने का दिन है। जीवन में वस्तुएं सिर्फ आकार नहीं, बल्कि उनकी उपयुक्तता से निर्णायक है। बहुत छोटी-छोटी चीज़ें जीवन में बहुत महत्व रखती हैं।अपने दैनिक जीवन में उपयोग की वस्तु, साधन और उपकरणों की कार्यक्षमता, गुण को आयुध पूजा के माध्यम से पूजा जाता है।आयुध पूजा के दिन उन उपकरणों का आदर किया जाता है, उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट किया जाता है, जिनका हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व होता है।यह दिन अपनी आजीविका के लिए उपयोग किए जाने वाले औजारों की पूजा और प्रार्थना करने के लिए विशेष महत्व का माना जाता है, ताकि उनका उपयोग सहज, सुगम ढंग से कर सकें और सफलता सुनिश्चित कर सकें। अपने दैनंदिनी जीवन में उपयोग में आने वाली हर वस्तु के प्रत्ति आदर, सम्मान से ओत- प्रोत होने से ही जीवन पूर्णत्व को प्राप्त होता है। वस्तु के महत्व को जानने से वह वस्तु कई गुना अधिक उपयोगी हो जाती है। जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं को महत्व देने से उन वस्तुओं से संतुष्टि प्राप्त होती है।

उल्लेखनीय है कि सभी उपकरण एक ही दिव्यता की प्रतीक हैं। सभी उपकरण मन के द्वारा सृजित हैं, और मन ईश्वर के द्वारा सृजित है। बल्कि कहा गया है-मन ईश्वर ही है। इस मन में कुछ निर्माण करने के सभी विचार एक ही स्त्रोत से आये हैं। और वह स्त्रोत है -देवी। यही कारण है कि प्रत्येक जीव के अंदर बुद्धि के रूप में निवास करने वाली देवी को चंडी रूप में हवन करते हुए भक्तगण बारम्बार प्रणाम करते हैं, क्योंकि यह दिव्यता ही हर जीव में बुद्धि बनकर प्रकट होती है।यह दिव्यता ही हर मनुष्य में भूख और नींद के रूप में उपस्थित है। यह दिव्यता ही उत्तेजना और अशांति के रूप में भी व्याप्त है। हर ओर केवल एक ही दिव्यता की मौजूदगी की सजगता मात्र ही मन को शांति प्रदायक महसूस होता है।यह सत्य है कि सम्मान प्राप्त करने वाला व्यक्ति सम्मान देने वाले से कुछ अधिक बड़ा हो जाता है। इसलिए ब्रह्मांड का आदर -सम्मान करने से आपस में सौहार्द से रहा जा सकता है। जीवन के हर क्षण का सम्मान करने के कौशल को विकसित करना ही मानवता के लिए उत्तम है।अपनी जीवन की उपयोगी वस्तुओं को जानकर उनका सम्मान करना ही आयुध पूजा है।

 

मान्यतानुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आश्विन अर्थात क्वारमास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि के दिन ही रावण का वध किया था।इसी दिन भगवती दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त महिषासुर पर विजय प्राप्त की थी। इसे असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए इस दशमी को विजयादशमीके नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए इसे विजयादशमी कहते हैं।रावण पर श्रीराम की विजय हो अथवा असुरों पर भगवती दुर्गा की विजय हो, दोनों ही स्थिति में, रूपों में विजयदशमी शक्तिपूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष व उल्लास तथा विजय का पर्व है। आदि सनातन काल से ही भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक रही है,शौर्य की उपासक रही है। व्यक्ति, जाति और समाज के रक्त में वीरता के प्रकटन, प्रादुर्भवन करने के उद्देश्य से ही विजयादशमी अर्थात दशहरे के उत्सव का प्रचलन हुआ है। दशहरा का यह पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।

 

 चैत्र शुक्ल दशमी एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा के समान ही दशहरा भी अत्यंत शुभ तिथियों में गिनी जाती है। इस दिन शस्त्र-पूजा के साथ ही अक्षर लेखन, नया उद्योग, गृह निर्माण का  आरम्भ, बीज वपन आदि नवीन कार्य प्रारम्भ करने की परिपाटी है। ऐसा विश्वास है कि इस दिन आरंभ किए गए कार्य में अवश्य विजय मिलती है। प्राचीन काल में राजा -महाराजा गण इस दिन विजय की प्रार्थना कर रणयात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। भगवान श्रीराम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। श्रीराम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था।छत्रपती शिवाजी महाराज ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। प्राचीन भारतीय राजाओं के इस दिन विजय प्रस्थान करने के अनेक उदाहरण भारतीय इतिहास में दर्ज हैं। महाभारत की कथा के अनुसार इसी दिन वनवास काल और अज्ञातवास के बाद पांडुपुत्र अर्जुन ने अपनी बृहन्नला वेश त्याग कर विराटनगर में शमी के वृक्ष के खोड़हर में रखे ध्वज व अस्त्र -शस्त्रों को निकालकर कौरवों के विरुद्ध विराटराज का लड़ाई में साथ दिया था, और बाद में आवश्यक होने पर कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत के युद्ध में कौरवों के विरुद्ध लड़कर विजय प्राप्त की थी। सम्पूर्ण भारत में इन्हीं मान्यताओं के कारण नवरात्रि का पर्व देवीपूजाव विजयादशमी शक्तिपूजन के रूप में मनाया जाता है।

 

प्राचीन काल में अस्त्र- शस्त्रों की पूजा का मुख्य कारण यह था कि अस्त्र- शस्त्रों द्वारा ही शत्रुओं का नाश किया जा सकता था, दुष्टों को दंडित किया जा सकता था और दुश्मन को पराजित किया जा सकता था।देवी पार्वती देवी के अवतार देवी चामुंडेश्वरी ने कर्नाटक के राक्षस महिषासुर का वध इन अस्त्रों के माध्यम से ही किया था। इसीलिए यहउत्सव यहाँ आश्विन शुक्ल नवमी को देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर के संहार के स्मरण के रूप में मनाया जाता है। कथा के अनुसार भैंस रूपी राक्षस महिषासुर को हराने के लिए सभी देवताओं ने अपने अस्त्र- शस्त्रों,प्रतिभा और शक्तियों को देवी दुर्गा को दिया। पूरा युद्ध नौ दिनों तक चला। और नवमी की संध्या परदुर्गा ने महिषासुर का वध करके लड़ाई समाप्त की। इस प्रकारयह दिन महानवमी के रूप में मनाया जाता है। और आयुध पूजा का अनुष्ठान किया जाता है।मान्यता है कि महिषासुर का वध करने अर्थात युद्ध समाप्ति के बाद शस्त्रों को पूजा के लिए बाहर रखा गया था।बाद मेंदेवी दुर्गा द्वारा अपनी उद्देश्य पूर्ति हेतु युद्ध में उपयोग किए गए उन सभी अस्त्र- शस्त्रों व औजारों को एक स्थान पर एकत्रित कर उनकी साफ- सफाई की गई और पूर्णतः सजावट के बाद संबधित देवताओं को पूजित- सम्मानित कर उन्हें लौटाया गया। तब से ही इस दिन आयुध पूजा की परिपाटी चली आ रही है।