शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा

ब्रह्मा की शक्ति उसे कहा गया है, जिससे उन्होंने समस्त विश्व को उत्पन्न किया है। ईश्वर में शक्ति उसी प्रकार अभिन्न रूप से स्थित है, जिस प्रकार चन्द्र-रश्मि चन्द्रमा से अभिन्न है। शक्ति सहज रूप है और हर जगह उसकी अभिव्यक्ति है। सच्चिदानंद परब्रह्म की स्वाभाविक जो परा शक्ति है, वही शक्ति तत्व है। ऐश्वर्य तथा पराक्रम इन दोनों को देने वाली शक्ति नित्य के जीवन में आपदाओं का निवारण कर धर्मादि पुरुषार्थों को देती हुई जीवन को अलौकिक आनंद से आप्लावित करती है।


ऐश्वर्यवचन: शश्यक्ति: पराकर एवं च।
तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्ति: परिकीर्तिता।।
(देवी भागवत-9/2/10)


भगवती शक्ति नित्य ब्रह्मलीला प्रकृति है। अग्नि में दाहकता, चन्द्रमा में प्रभा और सूर्य में कान्ति की भांति वह सदा आत्मा से युक्त है-  जैसे सोने के बिना सुनार, कुण्डल तथा मिट्टी के  बिना कुम्हार घट का निर्माण करने में असमर्थ है, वैसे ही सर्वशक्तिस्वरूपा प्रकृति के बिना शक्तिमान जगत का निर्माण नहीं कर सकता। दैवयोग से एकत्रित ब्रह्मा, विष्णु, महेश जब क्षीर-सागर में गये तब उन्हें कांति में करोड़ों लक्ष्मियों से भी अधिक सुन्दरी श्री भुवनेश्वरी देवी के दर्शन हुए। देवी-दर्शन से उत्सुक त्रिदेव जब विमान से उतरकर समीप गये तब तीनों ही तत्काल प्रभाव से स्त्री रूप हो गये। त्रिवेद ने भगवती देवी को स्तोत्रों से प्रसन्न किया। प्रसन्न देवी ने शिव जी को ‘नवाक्षरÓ मंत्र प्रदान कर ब्रह्मा को उपदेश दिया। साथ ही ब्रह्मा को महासरस्वती, विष्णु को महालक्ष्मी और शिव को महाकाली (गौरी) देवियां देकर ब्रह्मलोक, विष्णु लोक और कैलाश पर्वत पर जाकर अपने-अपने कत्र्तव्यों का पालन करने का आदेश दिया। इस तरह आद्या शक्ति ने अपने रुप को त्रिधास्वरूप में प्रकट किया। इनकी उपासना ही शाक्त-सम्प्रदाय की आधार पीठिका है।
शक्ति उपासना में काली, तारा, त्रिपुरा (षोडशी), भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, मातंगी, कमला और बगलामुखी। इन दस महाविद्याओं का विशेष महत्व है। इनमें प्रथम दो ‘महाविद्या,Ó पांच ‘विद्याÓ  और अन्तिम तीन ‘सिद्धविद्याÓ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें षोड्शी को आद्या शक्ति माना जाता है। ये भुक्ति-मुक्ति दात्री मानी गयी हैं।
शक्ति उपासकों के लिए ‘नवर्णÓ (नवाक्षर) मंत्र प्रधान आलम्बन है। ‘मननात् त्रायते इति मंत्र:Ó इस प्रकार शब्द की व्युत्पत्ति ही मंत्र की अत्यंत गोपनीयता को प्रकट करती है।


ऊँ ऐं ही क्लीं चामुण्डाये विच्चे।Ó  
इस मंत्र का जप करने एवं ज्ञान मात्र से ही उपासक को परम ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाती है।

 जप किसे कहते हैं, इस प्रसंग में योगदर्शन का कथन है-
‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्Ó  
मंत्र की शब्द राशि के अर्थ की भावना करना ही उसका वास्तविक जप है। इस प्रकार जप करने से उपासक को इष्टदेव का साक्षात्कार होता है।
‘स्वाध्यायादिष्ट देवता सम्प्रयोग: (योग दर्शन)  
अत: नवार्ण मंत्र के ‘नौÓ बीजों का अर्थ विवेचन अपेक्षित है। क्रमश: उनका विवेचन प्रस्तुत है- ‘ऐं यह सरस्वती देवी का बीज मंत्र है। इसमें दो अंश हैं-ए+बिन्दु। ऐ का अर्थ सरस्वती तथा बिन्दु का अर्थ दु:ख नाशक अर्थात् चित्स्वरूपा सरस्वती देवी हमारे दु:ख का नाश करें। इस बीज का स्वरूप चन्द्रमा के समान कांति वाला है। ‘ह्रीं यह भुवनेश्वरी रूप महालक्ष्मी का बीज मंत्र है तथा इसका स्वरूप सूर्य के तेज: सदृश है इसमें चार अंश ह, र, ई और बिन्दु हैं। महालक्ष्मी सत्स्वरूपा है।
‘क्लींÓ यह महाकाली व कृष्ण बीज है। इसमें क्, लू, ई और बिन्दु है, इनका अर्थ कृष्ण, सुन्दर तुष्टि और सुखकर अर्थात् सुन्दर कृष्ण हमें तुष्टि-पुष्टि देवें। यही आनंदस्वरूपा महाकाली का स्वरूप काम बीज रूप में कहा गया है। इस बीज का रूप अग्नितुल्य है।
‘चामुण्डायै चा-चित् अर्थात् तपे हुए स्वर्ण के समान कान्तिरूप, मु-रात् अर्थात गहरा लाल वर्णरूप, ण्डा, (न्दा) आनंद अर्थात् नील वर्णरूप, यै द्वितीया विभाक्ति के लिए आर्ष प्रयोग है।
विच्चे-विद्-विद्म:- जानते हैं या जानने का प्रयास करें और ‘चÓ अर्थात चिन्तयाम:- चिन्तन करें। इस प्रकार सम्पूर्ण मंत्र का अर्थ है-  चित्स्वरूपा स्वर्णिम- गौर वर्णा महासरस्वती, सत्स्वरूपा रक्तवर्णा महालक्ष्मी एवं आनंदस्वरूपा नील पद्माभा महाकाली का हम चिंतन करें। इस आद्या शक्ति से परे कुछ भी नहीं है।
आराध्या परमा शक्ति: सर्वेपरी सुरासुरै:।
नात: परतर्र किंचिदधिकं भुवनत्रये।।
सत्यं सत्यं पुन: सत्यं वेद शास्त्रार्थ निर्णय:।
पूजनीयता पराशक्तिर्निर्गुणा सगुणा थवा
(श्रीमद् देवी भागवत 1-9-86,87)